रविवार, 9 मई 2010

निरुपमा के बहाने चैनल चर्चा

टी वी चैनल पर मेरे साथ बैठकर निरुपमा पाठक मामले दे सम्बंधित न्यूज़(?) देख रही मेरी आठ साल की बेटी की बेटी ने पूछा-‘पापा आप और मम्मा तो ऐसा नहीं करोगे?” सवाल सुनकर मेरे तो होश उड गए.फिर लगा जब मेरे बेटी ऐसा सोच सकती है तो और भी बच्चों के मन में यह सवाल ज़रूर आया होगा?कई तो और भी चिती उम्र के बच्चे होंगे?क्या मीडिया को बालमन से इसतरह खिलवाड़ करने देना चाहिए?इसलिए इस विषय पर कुछ लिखने और आप सबसे अपने मन की बात साझा करने से अपने आपको रोक नहीं पाया...

इन दिनों टी वी चैनेलों में निरुपमा को न्याय दिलाने कि होड़ मची है –हमारी नीरू,बेचारी नीरू,निरुपमा को न्याय जैसे लुभावने शीर्षकों के ज़रिए खबर बेचने का बाजार लगा है.इस होड़ में हर चैनल जज बन गया है.अभी नीरू कि मौत कि जांच ठीक से रफ़्तार भी नहीं पकड़ पाई है और हमारे “खबर जासूस” रोज नया फैसला सुना रहे हैं.कभी नीरू कि माँ तो कभी उसका प्रेमी(शायद पति?) के सर हत्या का फैसला सुनाया जा रहा है.हत्या जैसे जघन्य मामले को भी ऑनर किलिंग कहा जा रहा है.इकतरफा ख़बरों का यह आलम है कि इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाते चंद कम उम्र के बच्चों,इनमें भी ज़्यादातर प्रियाभान्शु के दोस्त थे की राय जानकार आधा घंटे का बेशकीमती वक्त जाया कर दिया गया जबकि पत्रकारिता के सिद्धांतों के मुताबिक दूसरे पक्ष की बात शामिल करना भी उतना ही ज़रुरी है.ऐसा भी नहीं है कि इन चैनलों के पास नीरू के घर जाने के साधान नहीं हैं जब वे माइकल जैक्सन को दिखाने के लिए अमेरिका और इंग्लैंड जा सकते हैं तो झारखंड कितना दूर है?

इससे भी बड़ा सवाल यह है कि इस तरह के कार्यक्रमों को टी वी पर देख रहे लाखों बच्चों और उनके माता-पिता की दशा क्या होगी ?क्या उनके मन में आपस में दुराव पैदा नहीं हो जायगा?इन लोगों से जुड़े परिवारों,उनके रिश्तेदारों पर क्या बीत रही होगी? जो नुकसान छोटे परदे की महारानी एकता कपूर ने अपने सास-बहू मार्का धारावाहिकों से हमारे समाज और परिवारों का पांच साल में किया था वही नुकसान टी वी पर प्रसारित इस तरह कि ख़बरें चंद मिनटों में कर दे रही हैं.टी वी चैनल नीरू कि मौत को भी खाफ पंचायतों के ऊल ज़लूल फैसलों से जोड़कर दिखा रहें हैं.कुछ यही हाल इन्होंने नॉएडा की आरुषि के मामले का किया था.

क्या बिना सच जाने माँ-बाप और बच्चों के बीच ऐसा अविश्वास पैदा करना उचित है?टीआरपी की होड़ में कुछ भी दिखा-सुना रहे इन चैनलों की समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनतीं?वैसे भी मामले कि जांच करना या फैसला देना तो न्यायपालिका का काम है,हाँ मीडिया उसके लिए दबाव ज़रूर बना सकता है पर सीधे-सीधे फैसला सुना देना तो मीडिया का काम नहीं है?अब भी टी आर पी की यह जंग नहीं रुकी तो भविष्य के स्थिति का अंदाज़ा लगाया जा सकता है ?

नोट: मेरी बात का कुछ और मतलब निकला जाय या फिर बात का बतंगड बनाया जाय इसलिए मैं साफ़ कर देना चाहता हूँ कि पत्रकार बिरादरी का सदस्य होने के नाते मुझे भी पत्रकार निरुपमा पाठक कि मौत का उतना ही दुःख है जितना उसके साथिओं को होगा.इस टिप्पडी का उद्देश्य निरुपमा कि असामयिक मौत के बाद टी वी चैनलों पर मचे तमाशे और उसके दुष्परिणामों कि ओर इशारा करना है.

1 टिप्पणी:

  1. आपकी चिंता जायज है, देश की मीडिया इस विषय को भी अपनी टीआरपी की शक्ल में ही देख रही है, जिस घड़ी उसे इससे बड़ी खबर मिल जाएगी, वह इसका नाम लेना भी भूल जाएगी ।

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