सोमवार, 14 जून 2010

जुगाली की उपलब्धियों को पंख लगे...


जुगाली के ज़रिये मैंने सामाजिक और शैक्षणिक मुद्दों पर जागरूकता  जगाने का एक छोटा सा प्रयास किया था .आपके सहयोग से यह प्रयास रंग ला गया और आज जुगाली का कारवां भारत के बाहर अमेरिका,ब्रिटेन सहित दर्जन भर देशों तक फ़ैल गया है. आपकी प्रतिक्रियाएं तथा सुझाव जुगाली को रास्ता दिखने में मददगार बन रहे हैं. उम्मीद है कि भविष्य में भी जुगाली पर मेल-मिलाप इसीतरह चलता रहेगा और आप अपनी बेशकीमती प्रतिक्रियाएं हर पोस्ट पर देते रहेंगे. हम सभी के लिए ख़ुशी की बात यह है कि अब जुगाली को देश के प्रमुख समाचार पत्रों में भी स्थान मिलने लगा है.हिंदी के प्रतिष्ठित अखबारों "जनसत्ता" और "दैनिक जागरण " में बहुमूल्य स्थान मिलना निश्चित ही सम्मान की बात है और इस पोस्ट का उद्देश्य हमेशा की तरह अपनी ख़ुशी को आप सभी के साथ बांटना है.आशा है आप सब के सहयोग से इसी तरह उपलब्धियों को पंख लगते रहेंगे.....




शनिवार, 12 जून 2010

चंद बूंदे ज़िन्दगी की.....

एक चीनी कहावत है-यदि आपको एक दिन की खुशी चाहिए तो एक घंटा ज्यादा सोएं. यदि एक हफ्ते की खुशी चाहिए तो एक दिन पिकनिक पर अवश्य जाएँ.यदि एक माह की खुशी चाहिए तो अपने लोगों से मिलें.यदि एक साल के लिए खुशियाँ चाहिए तो शादी कर लें और जिंदगी भर की खुशियां चाहिए तो किसी अनजान व्यक्ति की सहायता करें.....मेरे मुताबिक किसी अनजान व्यक्ति की सहायता करने का सबसे अच्छा तरीका है –रक्तदान.
वैसे भी “रक्तदान को महादान” माना जाता है और आपके खून की चंद बूंदे किसी व्यक्ति को नया जीवन दे सकती हैं, उसके परिवार को आसरा तथा आपको जीवन भर के लिए दुआएं मिल सकती हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक हमारे देश में हर साल एक करोड़ यूनिट खून की जरुरत है पर तमाम प्रयासों के बाद भी मात्र ७५ लाख यूनिट रक्त ही जमा हो पा रहा है. खून की इसी कमी के कारण भारत में हर साल १५,००,००० लोग जिंदगी से हाथ धो बैठते हैं. हमारे देश में हर तीन सेकेण्ड में किसी न किसी को रक्त चाहिए पर हमारे मन में बसे डर के कारण हम रक्तदान से पीछे हट जाते हैं और कई लोग हमारे इस बे-फ़िजूल के डर के कारण जान गवां देते हैं. रक्तदान नहीं करने के पीछे डर भी कैसे कैसे हैं-कोई कहता है शरीर में कमजोरी आ जाती है जो फिर कभी नहीं मिट पाती, तो किसी को डॉक्टर की मंशा पर शक रहता है कि पता नहीं कितना खून निकाल ले? कोई सोचता है कि रक्तदान में घंटों समय जाया करना पड़ेगा तो किसी को लगता है कि दान किया गया रक्त उसके काम तो पड़ेगा नहीं इसलिए दान करने से क्या फायदा. इन धारणाओं के विपरीत डॉक्टरों का कहना है कि रक्तदान करना दान तो है ही खुद के शरीर के लिए भी अत्यधिक ज़रुरी है. मसलन रक्तदान करने से कम-से-कम छः माह तक ह्रदयाघात का खतरा टल जाता है.इसीतरह नियमित रक्तदान से शरीर की प्राकृतिक रूप से सफाई होती रहती है जिससे कई तरह के संक्रामक रोगों से बचा जा सकता है. रही शारीरिक कमजोरी की बात तो वह भी बमुश्किल घंटे भर की ही होती है और फिर शरीर नया खून बना लेता है इसलिए कोई कमी भी नहीं रह पाती. एक स्वस्थ व्यक्ति में उसके शरीर के कुल वजन के १/७ हिस्से के बराबर खून रहता है...अब ज़रा सोचिये इतने खून में से यदि ४५० मिलीलीटर रक्त निकल गया(कभी भी एक बार में इससे ज्यादा खून नहीं निकाला जाता) तो उसका क्या बिगड़ेगा. यदि मामूली खून निकलने से कुछ हो रहा होता तो ज़रा महिलाओं के बारे में सोचिये जिन्हें हर माह मासिकधर्म के ज़रिये इस दौर से गुज़ारना पड़ता है पर न तो वे कमज़ोर होती हैं और न बीमार, तो फिर पुरुष होकर हम रक्तदान के नाम पर फालतू के बहाने क्यों बनाने लगते हैं?
इसलिए आइये, बहाने और बे-मतलब के डर छोड़कर किसी अनजान व्यक्ति को नया जीवन देने का सार्थक काम करें. बाबा-बैरागियों को दान देकर पुण्य कमाने के लिए हम अपना हाथ खोल देते हैं और जिससे वास्तव में पुण्य मिल सकता है उस रक्तदान से बचने के लिए बहाने बनाते हैं. रक्तदान के प्रचार-प्रसार और जागरूकता के कारण अब असमय मौत का शिकार बनने वाले २५ फीसद लोगों का जीवन बचाया जा सकता है. यदि हम बढ़-चढ़कर एवं उत्साह के साथ रक्तदान करने लगें तो न केवल कई अनजान लोगों का जीवन बचा सकेंगे बल्कि वक्त पर अपने लिए भी खून की कमी से नहीं जूझना पड़ेगा और पुण्य कमायंगे सो अलग. तो चलिए दान करते हैं चंद बूंदे ज़िन्दगी की....

शुक्रवार, 11 जून 2010

हम भारतीयों कि टांगें इतनी कमज़ोर क्यों हैं?

स्वामी विवेकानंद ने सलाह दी थी कि हमारी युवा पीढ़ी को गीता पढ़ने की बजाय फुटबाल खेलना चाहिए.उनका कहना था कि देश के युवा वर्ग को सबल बनना होगा,धर्म की बारी तो इसके बाद आती है. उन्होंने कहा था कि यह मेरी सलाह है कि “ फुटबाल खेलकर आप ईश्वर के अधिक निकट हो सकते हो”. उन्होंने आगे कहा था कि “यह बात आपको भले ही अजीब लग रही हो पर मुझे कहनी पड रही है क्योंकि मैं आप लोगों से प्यार करता हूँ.मुझे इस बात का अनुभव है कि यदि आपके हाथ की हड्डियां और मांसपेशियां अधिक मजबूत होंगी तो आप गीता को बेहतर तरीके से समझ सकोगे”. लेकिन हम भारतीयों की तो आदत है कि हम अपने बाप की नहीं मानते तो विवेकानंद की सीख कैसे मान सकते हैं. हमें उनका कहना नहीं मानना था और हमने नहीं माना! यही कारण है कि विश्व के फुटबाल मानचित्र पर भारत की स्थिति १३३ वीं है और दिल्ली-मुंबई तो दूर मेरठ-भोपाल जैसे छोटे शहरों से भी छोटे देश फुटबाल खेलने वालों देशों की सूची में शान से इठला रहे हैं.
दक्षिण अफ्रीका में शुरू हुए फुटबाल महाकुम्भ( world cup football) में दुनिया भर के चुनिन्दा ३२ देशों की टीमों के १६०० खिलाडी आठ समूहों में बंटकर ६४ मैचों के दौरान अपनी दमदार टांगों का ज़लवा दिखाएंगे और हम भारतीय अपनी पतली-कमज़ोर टांगों और मोटी तोंद के साथ कई लीटर कोला डकारकर किसी विदेशी टीम के नाम पर अपनी नींद खराब करते रहेंगे. वैसे विश्व कप फुटबाल को भारत के आईपीएल( IPL) का बाप कहा जाये तो अतिस्योंक्ति नहीं होगी क्योंकि इन मैचों को ३७६ टीवी चैनलों के ज़रिये २१४ देशों के लगभग ७२ करोड़ लोग देख रहे हैं.सिर्फ टीवी प्रसारण के अधिकार ही ३४ अरब डॉलर में बिके हैं.खेलों की विशालता और महत्त्व का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहाँ सुरक्षा पर ही ९० करोड़ रूपए खर्च हो रहे हैं. अब तक मैचों के ३४ लाख टिकिट लोगों ने ख़रीदे हैं और मैचों के जुनून के साथ-साथ यह संख्या भी बढती जायगी.
सोचिए, यदि हमने विवेकानंद की सलाह मानकर सही ढंग से फुटबाल खेलना शुरू कर दिया होता तो आज हमारी टीम भी तिरंगे के साथ अपनी जर्सी का ज़लवा दिखा रही होती. वैसे भारत में फुटबाल की दशा शुरू से इतनी खराब नहीं रही. १९५० से लेकर १९६४ तक भारतीय फुटबाल ने भी स्वर्णिम दिन देखे हैं. इस दौरान हमने ऑलिम्पिक से लेकर एशियाई खेलों तक में अपनी टांगों का ज़बरदस्त हुनर दिखाया है. एशियाई खेलों में तो हमने स्वर्ण पदक तक जीता है लेकिन कमज़ोर टांगों और बेतहाशा पैसे वाले क्रिकेट ने फुटबाल के साथ-साथ सभी ऊर्जा-स्फूर्ति-जोश और उत्साह से भरपूर खेलों का बंटाधार कर दिया. तभी तो सबसे ज्यादा पैसे पीटने वाले २०-२२ साल के युवा क्रिकेटर अपने ४२ साल के कोच के साथ पूरीतरह से दौड़ भी नहीं पाते क्योंकि दौड़ने के लिए भी तो टांगो में दम चाहिए? हाँ विज्ञापनों से कमी के मामलें में वे कोच तो क्या कारपोरेट घरानों के प्रमुखों से भी आगे हैं. तो चलिए भारतीय फुटबाल कि दशा पर मातम मनाने की बजाय हमारी नई पीढ़ी को स्वामी विवेकानंद की शिक्षा देने का प्रयास करें ताकि भविष्य की पौध मजबूत टांगों वाली हो और फिर हमें फुटबाल तो क्या किसी भी खेल को खेलने वाले देशों की सूची में भारत का नाम नीचे से नहीं ढूँढना पड़े......आमीन!

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...