गुरुवार, 10 मार्च 2011

ब्लॉग पर लगने वाला है प्रतिबन्ध


“ब्लॉग पर लगने वाला है प्रतिबन्ध” पढकर चौंकना लाजिमी है क्योंकि अभी तो देश में ब्लॉग और ब्लागिंग ने ठीक से अपने पैरों पर खड़े होना भी नहीं सीखा है.अंग्रेजी के ब्लागों की स्थिति भले ही संतोषजनक हो पर हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओँ के ब्लॉग तो अभी मुक्त हवा में साँस लेना सीख रहे हैं और उन पर प्रतिबन्ध की तलवार लटकने लगी है.दरअसल बिजनेस अखबार ‘इकानॉमिक्स टाइम्स’ के हिंदी संस्करण में पहले पृष्ठ पर पहली खबर के रूप में छपे एक समाचार के मुताबिक सरकार ब्लाग पर प्रतिबन्ध लगाने का प्रयास कर रही है.यह प्रतिबन्ध कुछ इस तरह का होगा कि आपके ब्लॉग के कंटेन्ट(विषय-वस्तु) पर आपकी मर्ज़ी नहीं चलेगी बल्कि सरकार यह तय करेगी कि आप क्या पोस्ट करें और क्या न करें.सरकार ने इसके लिए आईटी कानून में बदलाव जैसे कुछ कदम उठाये हैं. खबर के मुताबिक सरकारी विभाग सीधे ब्लॉग पर प्रतिबन्ध नहीं लगाएंगे बल्कि ब्लॉग बनाने और चलाने का अवसर देने वालों की नकेल कसी जायेगी. नए संशोधनों के बाद वेब- होस्टिंग सेवाएं उपलब्ध करने वालों,इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर और इसीतरह के अन्य मध्यस्थों को कानून के दायरे में लाया जा रहा है.प्रतिबंधों की यह सूची बीते माह जारी की गई थी और इसपर आम जनता,ब्लागरों और अन्य सम्बंधित पक्षों की राय मांगी गई थी.
सरकार की इस कवायद पर लोकतंत्र के पहरुओं की भवें तनना लाजिमी है.वैसे देखा जाये तो ब्लॉग और सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों ने इन दिनों दुनिया भर में क्रांति सी ला दी है. कई देशों में तो ब्लॉग और ब्लागर समुदाय ने सत्ता परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका से मुख्य धारा के मीडिया दिग्गजों तक को हैरत में डाल दिया है. ट्यूनीशिया,मिस्त्र,लीबिया जैसे तमाम देशों में ब्लॉग और सोशल नेटवर्किंग साइट परिवर्तन के वाहक बन गए हैं. आलम यह है कि ट्यूनीशिया जैसे देश में तो नए चुनाव कराने के लिए गठित अंतरिम सरकार में एक ब्लागर तक को स्थान दिया गया है.विद्रोह की आंधी में उड़ रहे बाकी देशों में भी ब्लागर महत्वपूर्ण भूमिका में हैं. सामाजिक आदान-प्रदान के सहज उद्देश्य के साथ शुरू हुए इन माध्यमों ने अपनी पहुँच,जनता की नब्ज़ पर पकड़ और लोकप्रियता के जरिए ऐसा समां बाँधा कि इन्हें कभी ‘न्यू मीडिया’ तो कभी लोकतंत्र का ‘पांचवा स्तंभ’ तक कहा जाने लगा. मेरी नज़र में तो ब्लॉग या सोशल नेटवर्किंग पर किये गए ‘ट्विट’ और ‘पोस्ट’ छोटे-छोटे पर बिलकुल स्वतंत्र समाचार पत्र हैं. इन्हें हम क्षेत्रीय/आंचलिक समाचार पत्रों के जिला/तहसील/नगर संस्करणों के भी आगे के अखबार कह सकते हैं, जिन पर न तो किसी सेठ का मालिकाना प्रभाव चलता है, न विज्ञापनों का दबाव और न किसी नामवर संपादक की सम्पादकीय नीति. ब्लॉग के मोडरेटर अपनी मर्जी के मालिक/संपादक हैं और वेबसाइट के ट्विट पर किसी की रोक नहीं है.अब तो ‘ट्विट’ वास्तव में समाचार का आधार बन गए हैं तभी तो तमाम अखबार किसी न किसी सेलिब्रिटी के ट्विट और ब्लॉग पर कही गई बात को न्यूज़ बनाकर प्रतिदिन परोस रहे हैं.इसीतरह नामी-गिरामी समाचार पत्रों में ब्लॉग नियमित स्तंभ बन गए हैं.
प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ से पहले ही परेशान सत्ता नहीं चाहती कि इस ‘पांचवें स्तंभ’ को मजबूत होने दिया जाए? क्योंकि चौथे स्तंभ को तो विज्ञापनों के लालच में काबू में किया जा सकता है परन्तु न्यू मीडिया या पांचवा स्तंभ तो पूरी तरह से स्वतंत्र है और यदि एक बार इसने अपनी जड़ें जनमानस के मन में गहरे तक जमा ली तो फिर उसे किसी तरह रोक पाना/डराना/धमकाना असंभव हो जायेगा.वैसे भी अरब देशों के उदाहरण सत्ता-प्रतिष्ठान की आँखे खोलने के लिए पर्याप्त हैं.यही कारण है कि इन नए माध्यमों के पुष्पित-पल्लवित होने से पहले ही इनकी जड़ों में मट्ठा डाला जा रहा है ताकि वे पारंपरिक समाचार माध्यमों की तरह रीढ़ विहीन हो जाएँ और सत्ता अपना काम बिना किसी डर/विरोध/विद्रोह के करती रहे.

सोमवार, 7 मार्च 2011

महिला दिवस नहीं राष्ट्रीय शर्म दिवस मनाइए!

हर दिन होने वाले दर्ज़नों बलात्कार,तार-तार होते रिश्ते,बस से सड़क तक और घर से बाज़ार तक महिला की इज्ज़त से होता खिलवाड़,बढ़ती छेड़छाड़,दहेज के नाम पर प्रताड़ना,प्रेम के नाम पर यौन शोषण,अपनी नाक की खातिर माँ-बहन-बेटी की हत्या,कन्या जन्म के नाम पर पूरे परिवार में मातम और बूढी माँ को दर-दर की ठोकरे खाने के लिए छोड़ देना और यहाँ तक की आम बोलचाल में भी बात-बात पर महिलाओं के अंगों की लानत-मलानत हमारे रोजमर्रा के व्यवहार का हिस्सा है तो फिर एक दिन के लिए महिला दिवस मनाकर महिलाओं के प्रति आदर का दिखावा क्यों?इसे अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस कहने की बजाए ‘राष्ट्रीय शर्म दिवस’ कहना ज़्यादा उचित होगा....क्योंकि हमें इस दिन को गर्व की बजाए “राष्ट्रीय शर्म” दिवस के रूप में मनाना चाहिए.आखिर हम गर्व किस बात पर करें?
क्या यह गर्व की बात है कि हमारे देश में आज भी 56 फीसदी लड़कियों में खून की कमी है और वे एनीमिया की शिकार हैं.इस मामले में हम दुनिया के सबसे पिछड़े देशों मसलन कांगो,बुर्किना फासो और गुएना के बराबर हैं.हमारे मुल्क में 15-19 साल की उम्र वाली 47 फीसदी लड़कियां औसत से कम वजन की हैं और इस मामले में हम दुनिया भर में सबसे निचले पायदान पर हैं.देश में 43 फीसदी लड़कियां विवाह के लिए सरकार द्वारा निर्धारित 18 बरस की आयु पूरी करने के पहले ही ब्याह दी जाती हैं और इनमें से 22 फीसदी तो इस उम्र में माँ तक बन जाती हैं.क्या यह गर्व की बात है?इस मामले में हम से बेहतर तो पाकिस्तान और बंगलादेश हैं जहाँ व्याप्त कुरीतियों को हम पानी पी-पीकर कोसते हैं.महिलाओं की सेहत के प्रति हमारी सजगता का अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि आज भी 6000 महिलाएं हर साल बच्चे को जन्म देने के साथ ही मर जाती हैं.
क्या हम इस बात पर गर्व करे कि देश की 86 प्रतिशत बेटियां प्राइमरी स्तर पर ही स्कूल छोड़ देती हैं और 64 फीसदी सेकेण्डरी से आगे की पढ़ाई तक पूरी नहीं कर पाती.आधी आबादी कही जाने के बाद भी 77 फीसदी महिलाएं साक्षर हैं और मात्र 23 प्रतिशत को रोज़गार मिल पाया है.राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक देश में हर 30 मिनट में एक महिला बलात्कार का शिकार बन रही है,हर घंटे 18 महिलाएं यौन हिंसा का सामना कर रही हैं और बलात्कार के मामलों में अब तक 678 प्रतिशत का इजाफा हो चुका है.देश में आज भी महिलाओं को डायन और चुड़ैल बताकर पत्थरों से मार डाला जाता है.उन्हें ज़िंदा जलाकर ‘सती’ के नाम पर महिमा मंडित किया जाता हो,फिर भी यदि हम महिला दिवस मनाकर ये साबित करना चाहते हैं कि हम महिलाओं का बड़ा आदर करते हैं तो यह दिखावा ही होगा.
अब तो यह लगने लगा है कि साल में एक बार मनाए जाने वाले आधुनिक त्योहारों की श्रृंखला में अब महिला दिवस भी शामिल हो गया है.भारत की प्रेममयी और समरसता भरी संस्कृति के बाद भी साल में एक बार प्रेम दिवस यानि वैलेंटाइन्स डे तो हम धूमधाम से मना ही रहे हैं.इसीतरह रक्षा बंधन एवं भाईदूज की जगह मदर डे,फादर डे,सिस्टर-ब्रदर डे जैसे तमाम विदेशी सांचे में ढले पर्व हमारे समाज में जगह बनाने लगे हैं...और हम भी यही सोचकर इन्हें अपनाते जा रहे हैं कि चलो इसी बहाने रिश्तों का एक दिन तो सम्मान कर ले.इस सम्मान के नाम पर हम करते भी क्या है-उस रिश्ते के नाम एक बुके या ग्रीटिंग कार्ड देकर होटल में जाकर खाना खा लेते हैं और फिर दूसरे दिन से सब भूलकर बहन-बेटिओं को छेड़ने में जुट जाते हैं या इसीतरह फिर किसी नए ज़माने के त्यौहार की भावनात्मक की बजाय औपचारिक तैयारी करने लगते हैं ....बीते कुछ सालों से हम ऐसा ही करते आ रहे हैं और धीमे-धीमे रिश्तों का यह दिखावा हमारी वर्षों पुरानी और ह्रदय से जुडी परम्पराओं का स्थान लेता जा रहा है.फिर भी हम रिश्तों के नाम पर गर्व करने में पीछे नहीं हैं!





मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

ब्लागिंग में गुटबाजी उचित नहीं:ब्लागर


वैलेंटाइन-डे के मौके पर   लक्ष्मीनगर में कई ब्लागर्स एकत्र हुए. इस दिन का सदुपयोग करते हुए सभी ब्लागर्स ने एक दूसरे को प्रेम-दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं देते हुए इस दिन की सार्थकता पर चर्चा की. चर्चा के दौरान हिंदी ब्लाग जगत में फ़ैल रही गुटबाजी जैसी समस्याओं पर चिंता ज़ाहिर की गई. सभी ने एकमत से यह राय जाहिर की, कि ब्लागर समाज की समस्याओं को सामने लाते हैं, इसलिए उन्हें किसी गुट में शामिल न होकर हिंदी के प्रचार-प्रसार की मूल भावना के लिए काम करना चाहिए. आज वेलेंटाइन डे पर कई जगह प्रेम का विरोध करने वालों द्वारा अपनाए जा रहे हिंसक और असामाजिक तौर-तरीकों को ब्लागरों ने गलत ठहराया. ब्लागर्स का कहना है कि प्रेम में बढती उच्चश्रृंखलता का विरोध भी प्रेम से ही करना चाहिए. सभी ब्लागर्स ने निश्चय किया कि वे संत वेलेंटाइन के प्रेम के सन्देश को हिंदी ब्लागिंग के ज़रिये देशभर में फैलाएंगे. ताकि सभी जन आपस के भेदभाव भुलाकर विश्वबंधुत्व की ओर अग्रसर हों. बैठक में यह भी तय किया गया कि इन मुद्दों पर विस्तार से विचार-विमर्श के लिए ब्लागर साथियों की एक बड़ी बैठक जल्द बुलाई जायेगी. इस मौके पर एड़ी-चोटी के उपदेश सक्सेना, जुगाली के संजीव शर्मा, सुमित के तड़के वाले सुमित प्रताप सिंह, सुनील वाणी के सुनील कुमार, मगध एक्सप्रेस के अजीत झा, हरियाणा मेल के सतीश कुमार सहित कई पत्रकार और ब्लागिंग जगत में रूचि रखने वाले लोग मौज़ूद थे.



शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

पपी लव या लव,सेक्स और धोखा.....


अब इसे प्रेम का बाज़ार कहें या बाज़ार का प्रेम या फिर ‘लव,सेक्स और धोखा’ क्योंकि आज के दौर के प्रेम ने तो प्यार को दिनों में बाँट दिया है.तभी तो वेलेन्टाइन डे के दौरान फ़रवरी माह की 7 तारीख को रोज डे, 8 को प्रपोस डे, 9 को चाकलेट डे,10 को टेडी डे,11 को प्रोमिस डे,12 को हग डे,13 को किस डे और फिर 14 को वेलेन्टाइन डे....यानि पूरे पखवाड़े भर का इंतजाम.वैसे अब कही-कहीं तो इसके बाद ‘ब्रेक-अप डे’ भी सेलिब्रेट होने लगा है क्योंकि आज की पीढ़ी अपने साथी को इससे ज़्यादा बर्दाश्त ही नहीं कर सकती? रही बाकी “डे” (दिनों) की बात तो उनके लिए बाजार ने भरपूर इंतजाम कर दिए हैं बस आपकी जेब में पैसा होना चाहिए फिर माशूक या माशूका तो अपने आप चली आएगी.अब प्रेम दिल से नहीं दौलत से होता है अर्थात जितनी भारी जेब होगी उतना ही ‘स्ट्रोंग’ प्यार होगा और वह भी एक से नहीं दो-चार से एक साथ. खास बात यह है कि सभी साथ जीने-मरने की कसमें खायेंगे.यह बात अलग है कि प्यार(दौलत) खत्म होते ही बिना किसी गिले-शिकवे के अलग भी हो जायेंगे.यही तो नई पीढ़ी का प्यार है.
मैंने कुछ दिन पहले एक कविता पढ़ी थी उसकी चन्द पंकितयां इसप्रकार हैं:
“स्कूल-कालेज से शुरू होता है
पार्क-लाईब्रेरी में पलता है
मैकडी-पिज्ज़ा हट में बढ़ता है
वेलेन्टाइन डे तक चलता है
ब्रेक-अप पर खत्म होता है
नई पीढ़ी पर इसी का खुमार है
दोस्तों यह नई पीढ़ी का प्यार है”
इस प्यार को आजकल की भाषा में “पपी लव” कहा जाता है.हालाँकि आम बोलचाल की भाषा में ‘पपी’ का मतलब ‘कुत्ते का बच्चा’ होता है तो फिर ‘पपी लव’ का मतलब यही हुआ न कि ‘कुत्ते के बच्चे के बच्चे रहने तक का प्यार’ और जैसे ही बच्चे बड़े हो जाये उन्हें भूलकर फिर दूसरे बच्चे तलाश करो और फिर उनसे प्यार करो मतलब किसी के साथ भी ज़्यादा वक्त बिताने की ज़रूरत नहीं है.आजकल हो भी तो यही रहा है! यदि कामदेव आज होते तो शायद घबराकर आत्महत्या कर लेते क्योंकि अब तो गली-गली में कामदेव हैं और वे भी किस्म-किस्म के जैसे लिव-इन वाले कामदेव,सिक्स पैक वाले कामदेव,मर्सीडीज़-बीएमडब्ल्यू वाले कामदेव,हायबुसा वाले कामदेव,रोमिओ टाइप कामदेव और सबसे अंत में मुफ़्तखोर कामदेव.ये वही कामदेव हैं जो प्यार में अश्लील एसएमएस भेजते हैं,अपनी माशूका के इश्क की सबके बीच बयानबाज़ी से नहीं चूकते और प्यार करते हुए न केवल एमएमएस बनाते हैं बल्कि खुद ही उसे बांटते/बेचते तक हैं.एक दूसरे को समझने के लिए लिव-इन को ज़िन्दगी का फलसफा बनाते हैं पर शादी का ज़िक्र आते ही सम्बन्ध तोड़ने में ज़रा सी देर भी नहीं लगाते.
इन्हीं कामदेवों में कुछ ऐसे भी हैं जो अपने घरों-गांव-शहरों से आते तो कलेक्टर/एसपी बनने के लिए हैं लेकिन महानगरों की संस्कृति की हवा में बहने में भी देर नहीं करते.यह हवा उन्हें एकतरफा प्यार करने के लिए मज़बूर कर देती है और फिर अपनी नाकामी को छिपाने के लिए प्रेमिका की जान लेने में भी पीछे नहीं रहते.परिणामस्वरूप बेचारे माँ-बाप जेल में बंद या फरार बच्चे को बचाने/तलाशने के लिए उस पूँजी को लुटाने पर मज़बूर हो जाते हैं जो उन्होंने उसी बच्चे को आईएएस-आईपीएस बनाने के लिए जोड़कर रखी थी.क्या यही प्यार है?एक बात मैं यहाँ स्पष्ट करना चाहता हूँ कि न तो मैं प्यार के खिलाफ़ हूँ और न ही नई पीढ़ी के प्रेमियों की आलोचना करना मेरा मकसद है.बस में प्यार के फर्जीवाड़े को उजागर करना चाहता हूँ क्योंकि प्यार जात-पात,धर्म,धन-दौलत,रूप-रंग और बाज़ार से परे बिल्कुल आध्यात्मिक एवं भावनात्मक अनुभूति है.प्यार हमारी वासना,नफ़रत,ईर्ष्या,धोखा जैसी बुराइयों को दूरकर ऐसी दुनिया में ले जाता है जहाँ इन बुराइयों के लिए कोई जगह ही नहीं है इसलिए तमाम आगा-पीछा भूलकर सभी को भरपूर प्यार बांटिये और दिल से प्यार करिये क्योंकि प्यार है तभी तक यह दुनिया है वरना इंसान और जानवर के बीच का फर्क ही खत्म हो जायेगा.जानी-मानी शायरा लता‘हया’ ने बिल्कुल ठीक फ़रमाया है:
"हैं जिनके पास अपने तो वो अपनों से झगड़ते हैं
नहीं जिनका कोई अपना वो अपनों को तरसते हैं
मगर ऐसे भी हैं कुछ पाक और बेग़रज़ से रिश्ते
जिन्हें तुमसे समझते हैं जिन्हें हमसे समझते हैं "





गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

काश हम सब भी गब्बर ही होते...

हम सब शोले के खलनायक गब्बर सिंह को एक दुर्दान्त,क्रूर,वहशी दरिंदे के रूप में जानते हैं बिलकुल वैसे ही जैसे रामचरित्र मानस में रावण,जबकि असलियत में रावण कुछ ओर ही था.ऐसे ही हमारे एक विद्वान साथी ने गब्बर सिंह पर नए अंदाज़ में प्रकाश डाला है.आइये आप सब भी गब्बर पुराण में शराबोर हो जाइये...
1. सादा जीवन, उच्च विचार: उसके जीने का ढंग बड़ा सरल था. पुराने और मैले
कपड़े, बढ़ी हुई दाढ़ी, महीनों से जंग खाते दांत और पहाड़ों पर खानाबदोश
जीवन. जैसे मध्यकालीन भारत का फकीर हो. जीवन में अपने लक्ष्य की ओर इतना
समर्पित कि ऐशो-आराम और विलासिता के लिए एक पल की भी फुर्सत नहीं और
विचारों में उत्कृष्टता के क्या कहने! “जो डर गया, सो मर गया” जैसे
संवादों से उसने जीवन की क्षणभंगुरता पर प्रकाश डाला था.
२. दयालु प्रवृत्ति: ठाकुर ने उसे अपने हाथों से पकड़ा था. इसलिए उसने
ठाकुर के सिर्फ हाथों को सज़ा दी. अगर वो चाहता तो गर्दन भी काट सकता था.
पर उसके ममतापूर्ण और करुणामय ह्रदय ने उसे ऐसा करने से रोक दिया.
3. नृत्य-संगीत का शौकीन: 'महबूबा-महबूबा' गीत के समय उसके कलाकार
ह्रदय का परिचय मिलता है. अन्य डाकुओं की तरह उसका ह्रदय शुष्क नहीं था.
वह जीवन में नृत्य-संगीत एवं कला के महत्त्व को समझता था. बसन्ती को
पकड़ने के बाद उसके मन का नृत्यप्रेमी फिर से जाग उठा था. उसने बसन्ती के
अन्दर छुपी नर्तकी को एक पल में पहचान लिया था. गौरतलब यह कि कला के
प्रति अपने प्रेम को अभिव्यक्त करने का वह कोई अवसर नहीं छोड़ता था.
4. अनुशासनप्रिय नायक: जब कालिया और उसके दोस्त अपने प्रोजेक्ट से नाकाम
होकर लौटे तो उसने कतई ढिलाई नहीं बरती. अनुशासन के प्रति अपने अगाध
समर्पण को दर्शाते हुए उसने उन्हें तुरंत सज़ा दी.
5. हास्य-रस का प्रेमी: उसमें गज़ब का सेन्स ऑफ ह्यूमर था. कालिया और
उसके दो दोस्तों को मारने से पहले उसने उन तीनों को खूब हंसाया था. ताकि
वो हंसते-हंसते दुनिया को अलविदा कह सकें. वह आधुनिक युग का 'लाफिंग
बुद्धा' था.
6. नारी के प्रति सम्मान: बसन्ती जैसी सुन्दर नारी का अपहरण करने के बाद
उसने उससे एक नृत्य का निवेदन किया. आज-कल का खलनायक होता तो शायद कुछ और करता
7. भिक्षुक जीवन: उसने हिन्दू धर्म और महात्मा बुद्ध द्वारा दिखाए गए
भिक्षुक जीवन के रास्ते को अपनाया था. रामपुर और अन्य गाँवों से उसे जो
भी सूखा-कच्चा अनाज मिलता था, वो उसी से अपनी गुजर-बसर करता था. सोना,
चांदी, बिरयानी,चिकन या मलाई टिक्का की उसने कभी इच्छा ज़ाहिर नहीं की.
(यह सामग्री मुझे मेरे करीबी मित्र गीत दीक्षित ने भेजी थी.इसके असली रचनाकार कौन हैं मुझे नहीं पता पर इसमें गब्बर का चरित्र चित्रण इतने अनूठे अंदाज़ में किया गया है की मैं इसे आप सबके साथ साझा करने से आपने आपको नहीं रोक पाया.गब्बर को नए अंदाज़ रूप में सामने लाने के लिए लेखक को साधुवाद)

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

आप ब्लागर हैं..तो बन सकते हैं मंत्री-प्रधानमंत्री


सलीम अमामाऊ
 यदि आप शौकिया तौर पर ब्लागिंग करते हैं तो अब गंभीर हो जाइये और चलताऊ विषयों की बजाय ज्वलंत मुद्दों पर लिखना शुरू कर दीजिए क्योंकि ब्लागिंग से अब आप न केवल भरपूर पैसा और नाम कमा सकते हैं बल्कि मंत्री तथा प्रधानमंत्री जैसे पदों पर भी पहुँच सकते हैं. मुझे पता है आपको यह ‘मंत्री’ बनने की बात हजम नहीं हो रही होगी और मेरी कपोल-कल्पना लग रही होगी ,पर यह वास्तविकता है और चौबीस कैरेट सोने सी खरी है. हमारे एक ब्लागर भाई तो मंत्री पद तक पहुँच भी गए हैं.
हालाँकि हो सकता है आप में से कई लोग ऐसे उदाहरण देने लगे जो उन लोगों के हों जो मंत्री पद के साथ-साथ ब्लागिंग भी कर रहे हैं. मैं खुद भी लालकृष्ण आडवाणी,लालू प्रसाद जैसे तमाम नाम बता सकता हूँ जिन्होंने सरकारी उत्तरदायित्व सँभालते हुए भी ब्लागिंग की लेकिन ये लोग नेता/मंत्री/प्रभावशाली पहले थे और बाद में ब्लागर बने.मैं जिस व्यक्ति का उल्लेख कर रहा हूँ वह पहले आम ब्लागर था फिर मंत्री बना और भविष्य में शायद प्रधानमंत्री भी बन सकता है और अभी भी नियमित रूप से ब्लागिंग कर रहा है. इस शख्स का नाम है-सलीम अमामाऊ...सलीम ट्यूनीशिया के नागरिक हैं और हाल ही में इन्हें इस देश का युवा और खेल मंत्री बनाया गया है.ऐसा नहीं है कि सलीम को यह पद सरकार की चापलूसी से मिल गया है बल्कि उन्होंने खुलेआम सरकार से लोहा लिया.सलीम के आग उगलते लेखों के कारण ट्यूनीशिया में सरकार के खिलाफ विद्रोह का माहौल बन गया. इसके लिए सलीम को जेल जाना पड़ा,पुलिसिया यातनाएं सहनी पड़ी और वे तमाम कष्ट उठाने पड़े जो किसी भी देश में सरकार की गलत नीतियों का विरोध करने वालों को उठाने पड़ते हैं. पर धीरे-धीरे सलीम के साथ अन्य ब्लागर भी जुड़ते गए.फिर ट्विटर और फेसबुक जैसी लोकप्रिय सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों ने भी उनका भरपूर साथ दिया.स्थिति यह बन गई कि यहाँ की सरकार के मुखिया को देश छोड़कर भागना पड़ा और ट्यूनीशिया में अंतरिम सरकार का गठन हुआ जिसमें सलीम अमामाऊ को भी शामिल कर मंत्री बनाया गया.अब यह अंतरिम सरकार चुनाव कराकर नई सरकार का गठन करेगी.सलीम की ट्यूनीशिया में लोकप्रियता को देखकर लगता है कि वे भविष्य में यदि यहाँ के प्रधानमंत्री बन जाये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी. खास बात यह है कि सलीम अमामाऊ ने अभी भी ब्लागिंग बंद नहीं की है.उनका कहना है कि वे सरकार में रहकर भी ब्लागिंग के जरिये सरकार की कमज़ोरियों को आम लोगों के बीच ले जाते रहेंगे.
सलीम अमामाऊ को ब्लागरों के लिए आदर्श माना जा सकता है क्योंकि उनसे प्रेरणा लेकर ट्यूनीशिया के पड़ोसी मुल्क मिश्र सहित कई अन्य देशों के ब्लागर भी तानाशाह सरकारों के खिलाफ आवाज़ उठाने लगे हैं और वहाँ भी सत्ता परिवर्तन की आहट सुनाई दे रही है....तो फिर देर किस बात की है....आप भी उठाइए कलम/चलाइए कीबोर्ड पर अंगुलियां और बता दीजिए देश को अपनी बात, इससे आप भले ही मंत्री-प्रधानमंत्री न बन पाए कम से कम ब्लागर जगत को तो एक और संजीदा ब्लागर मिल जायेगा.

सोमवार, 24 जनवरी 2011

एक हत्यारी माँ का बेटी के नाम पत्र

प्रिय बेटी,
आज जब से मैंने यह समाचार पढ़ा है कि ‘देश में हर साल सात लाख लड़कियां गर्भ में ही माता-पिता द्वारा मार दी जाती हैं’,मेरा मन अत्यधिक व्याकुल है. मैं चाह कर भी अपने आप को रोक नहीं पा रही हूँ इसलिए यह खत लिख रही हूँ ताकि अपने मन की पीड़ा को कुछ हद तक शांत कर सकूँ.....बस मेरी तुमसे एक गुज़ारिश है कि मेरा पत्र पढकर नाराज़ नहीं होना. लगता है कि जैसे मैं बौरा गई हूँ तभी तो यह कह बैठी कि पत्र पढकर मुझसे नाराज़ नहीं होना?हकीकत तो यह है कि मैंने तुमसे इस पत्र को पढ़ने तक का अधिकार छीन लिया है. मैं चाहती तो पत्र की शुरुआत में तुम्हें मुनिया,चंदा,गरिमा या फिर मेरे दिल के टुकड़े के नाम से भी संबोधित कर सकती थी परन्तु मैंने तो नाम रखने का अधिकार तक गवां दिया.बेटा मैं भी उन अभागन माँओं में से एक हूँ जिन्होंने अपनी लाडली को अपने पति और परिवार के ‘पुत्र मोह’ में असमय ही ‘सजा-ए-मौत’ दे दी.तुम्हारे कोख में आते ही मेरा दिल उछाले मारने लगा था और मुझे भी माँ होने पर गर्व का अहसास हुआ था.पहली बार तुमने ही मुझे यह मधुर अहसास और गर्व की अनुभूति कराई थी परन्तु मुझे क्या पता था कि यही गर्व मेरे लिए अभिशाप बन जायेगा और मैं भविष्य में तुम्हें, तुम्हारे नाम से भी पुकारने का अधिकार खो दूंगी.जैसे ही डॉक्टर मैडम ने तुम्हारे होने की सूचना दी और मैंने तुम्हारे भविष्य के सपने बुनने शुरू कर दिए.मैं तुम्हें कल्पना चावला,मदर टेरेसा,इंदिरा गाँधी जैसा कुछ बनाना चाहती थी पर यदि तुम ऐश्वर्य राय,प्रियंका चोपड़ा या सानिया/सायना जैसी भी बनाना चाहती तो भी मुझे कोई आपत्ति नहीं होती क्योंकि इनके जरिये भी कम से कम तुम मेरे दबे कुचले अरमानों को पूरा करती.तब तक मुझे नहीं पता था कि तुम्हारे लिए बुने जा रहे मेरे ये ख़्वाब बस सपने ही बनकर रह जायेंगे और तुम्हारे दादा-दादी और पापा के मान की खातिर मुझे तुम्हारा चेहरा देखना तक नसीब नहीं होगा.हाँ, मैं इतना दावा तो कर ही सकती हूँ कि तुम बिलकुल मेरी परछाईं होती-मेरी तरह ही बेहद खूबसूरत.वैसे तुम पिता का अक्स होती तब भी काफी सुंदर लगती. दरअसल लंबे-चौड़े कारोबार के कारण पिता और दादा वारिस चाहते थे और हमारे समाज में आज तक बेटी को वारिस नहीं माना जाता.परंपरा की मारी दादी भी उनके साथ खड़ी नज़र आई तो मेरा रहा-सहा मनोबल भी टूट गया.आखिर कम पढ़ी-लिखी और गरीब परिवार से अमीरों में ब्याहकर आई तुम्हारी माँ न तो घर छोड़ने का साहस दिखा सकती थी और न अपने गरीब माँ-बाप पर बुढ़ापे में बोझ बन सकती थी.अन्तः वही हुआ जो घर के सभी सदस्य (तब बहू को सदस्य नहीं माना जाता था) चाहते थे और तुम अजन्मी ही रह गई.आज जब सात लाख बेटिओं को मार डालने का समाचार पढ़ा तो मेरा दिल जार-जार रोने लगा क्योंकि मैं भी तो इन हत्यारी माँओं में से एक हूँ. आज इतनी हिम्मत जुटाकर यह पत्र इसलिए लिख रही हूँ कि मैं तो शायद चाहकर भी तुम्हें न बचा पाई पर इस पत्र के माध्यम से अपनी जैसी माँओं के दिल का हाल सबके सामने ला सकूँ और उनके परिवारों को शर्मिन्दिगी का अहसास कराकर तुम जैसी कुछ बेटिओं को जीने का अधिकार दिला सकूँ ताकि भविष्य में और कोई कल्पना/प्रियंका/इंदिरा उम्मीदों पर खरी उतरने और आसमान में अपने हिस्से की उड़ान पूरी करने के पहले ही विदा न हो सके...

                                                                                                                      तुम्हारी हत्यारी/अभागन माँ

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...