शनिवार, 23 सितंबर 2017

महालया पर सभी ने पूरी कर ली अपनी मुराद

 सिलचर में मानो जनसैलाब उमड़ आया । जनसैलाब शब्द भी बराक नदी के किनारे उमड़ी भीड़ के लिए छोटा प्रतीत होता है । यदि इससे भी बड़ा कोई शब्द इस्तेमाल किया जाए तो अतिसयोक्ति नहीं होगी । चारों ओर बस सिर ही सिर नजर आ रहे थे । सभी ओर बस जनसमूह था- पुल पर,सड़कों पर, नदी की ओर आने वाले रास्तों पर । ऐसा लग रहा था जैसे आज शहर की सारे मार्ग एक ही दिशा में मोड़ दिए गए हों। बूढ़े, बच्चे, महिलाएं और मोबाइल कैमरों से लैस नयी पीढ़ी, परिवार के परिवार चले आ रहे थे । सुबह चार बजे से शुरू हुआ यह सिलसिला कई घंटों तक जारी रहा । इस तरह की भीड़ मैंने तब देखी थी जब वर्षों के इंतज़ार के बाद पहली ब्राडगेज ट्रेन ने यहाँ का रुख किया था या फिर महालया पर।
विभिन्न उम्र,जाति और धर्मों के लोग खास बंगाली वेश-भूषा में गाजे-बाजे के साथ बराक घाटी में देवी दुर्गा के स्वागत के लिए एकत्रित हुए। बराक नदी की ओर जाने वाली सड़कें खचाखच भरी हुई थीं और लोग ढोल-ढमाके के बीच देवी की आराधना में जुटे थे।इस दिन का सबसे बड़ा आकर्षण आकाशवाणी से सुप्रसिद्ध गायक बीरेंद्र कृष्ण भद्र के चंडी पाठ का विशेष प्रसारण भी है। आकाशवाणी सिलचर द्वारा अपनी स्थापना के समय से ही महालया के दिन इसका प्रसारण किया जा रहा है। सुबह 4 बजे से प्रसारित यह स्तुतिगान आज भी लोगों को भाव-विभोर कर देता है।स्थानीय लोगों के मुताबिक महालया पर रेडियो पर बजने वाला चंडी पाठ उनकी सुबह का अनिवार्य हिस्सा है और वे इसके बिना महालया की कल्पना ही नहीं कर सकते। बताया जाता है कि कोलकाता (तब कलकत्ता) में 80 के दशक में एक बार महालया पर इस पारंपरिक चंडी पाठ के स्थान पर कुछ ओर प्रसारित करने की कोशिश हुई थी तो लोगों ने आकाशवाणी भवन पर पथराव कर दिया था।  
वैसे बराक घाटी ही नहीं,असम के कई शहरों , पश्चिम बंगाल,ओडिशा सहित कई राज्यों में आज के दिन का खास महत्व है परन्तु असम की बंगाली बहुल बराक घाटी में महालया के परंपरागत उत्साह और गरिमा की बात ही अलग है । वैसे उत्तर भारत के किसी शहर में यहाँ बताया जाए कि लोग सुबह चार बजे से नहा-धोकर नदियों के तट पर हजारों की संख्या में जमा हो जाते है तो शायद वहां लोग इस बात पर भरोसा न करें क्योंकि उनके लिए तो सुबह के चार यानी आधी रात है। अब यह बात अलग है कि पूर्वोत्तर पर भगवान भास्कर खुद मेहरबान है तभी तो यहाँ समूचे देश की तुलना में तक़रीबन घंटे भर पहले सूर्य के दर्शन हो जाते हैं इसलिए यहाँ सुबह के चार भोपाल,लखनऊ या दिल्ली के चार से काफी अलग हैं।
सिलचर में बराक नदी के घाट पर उमड़ी भीड़ को देखते हुए एक ओर जहाँ सामान्य व्यवस्था बनाने के लिए सुरक्षा कर्मी मशक्कत कर रहे थे तो वहीँ, दूसरी ओर राज्य आपदा प्रबंधन बल के जवान भी पूरीतरह मुस्तैद थे। स्वयं डिप्टी कमिश्नर और पुलिस अधीक्षक साडी गतिविधियों पर नजर रखे थे।इसका अहम् कारण बराक पर बने सदर घाट पुल का जर्जर हो जाना है। प्रशासन इस बात से डरा हुआ था कि पुल पर बढ़ती भीड़ के वजन से कहीं कोई अनहोनी न हो जाए और त्योहारों का रंग फीका पड़ जाए। डिप्टी कमिश्नर एस लक्ष्मणन ने तो लोगों से अपील भी की कि महालया के जोश में होश न खोएं, लेकिन इन सबसे बेपरवाह आम लोगों के लिए तो यह पिकनिक का दिन था इसलिए शहर में सुबह से सजी खानपान की दुकानों पर भी लोगों का ताँता लगा रहा । कहीं गरमागरम जलेबियाँ लोगों को ललचा रहीं थी तो कहीं सिंघाड़े(समोसे) की खुशबू मुंह में पानी ला रही थी। बच्चों के लिए खिलौनों की दुकाने तो युवाओं के लिए दिल के आकार के गुब्बारे। महालया के बहाने कई युवा जोड़ों को साथ साथ समय बिताने और हाल-ऐ-दिल सुनाने का मौका भी हाथ लग गया। सड़क पर लक्ष्यहीन भागती मोटरसाइकल और इत्र से महकते युवाओं की तलाशती नजरें महालया को कुछ और ही रंग देने के लिए काफी थीं।
महालया दरअसल में एक संस्कृत शब्द है जिसमें महा का अर्थ होता है महान और आल्या का अर्थ है निवास । महालया नवरात्र की शुरुआत को दर्शाता है । महालया के दिन मां दुर्गा की पूजा की जाती है और उनसे प्रार्थना की जाती है कि वो धरती पर आएं और अपने भक्तों को आशीर्वाद दें । पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन मां दुर्गा धरती पर आकर असुर शक्तियों से अपने बच्चों की रक्षा करती हैं । ये देवी पक्ष की शुरूआत के साथ पितृ पक्ष का अंत भी माना जाता है ।
एक अन्य मान्यता के अनुसार मां दुर्गा का भगवान शिव से विवाह होने के बाद जब वह अपने मायके लौटी थीं और उनके आगमन के लिए खास तैयारी की गई थी । इस आगमन को ही अब महालया के रूप में मनाया जाता है । वहीँ, बांग्ला मान्यता के अनुसार महालया के दिन मां दुर्गा की मूर्ति बनाने वाले मूर्तिकार उनकी आंखे बनाते हैं इसे चक्षुदान के नाम से भी जाना जाता है । महालया के अगले दिन से मां दुर्गा की नौ दिवसीय पूजा के लिए कलश स्थापना की जाती है ।

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शनिवार, 16 सितंबर 2017

कड़क चाय नहीं, सफ़ेद चाय पीजिए जनाब !!




सफ़ेद चाय...और कीमत तक़रीबन 12 हजार रुपए किलो !!! हाल ही में  अरुणाचल प्रदेश के पूर्व सियांग जिले में स्थित डोनी पोलो चाय बागान की  सफेद चाय को 12,001 रुपये प्रति किग्रा कीमत मिली। यह तमाम प्रकार की  चायों के लिए सबसे ज्यादा कीमत है। असम के गुवाहाटी  स्थित टी नीलामी केंद्र (जीटीएसी) में पहली बार शुरू हुई सफेद चाय की नीलामी  में इस नई नवेली चाय ने सबसे ज्यादा कीमत हासिल कर यहां के सभी पुराने रिकॉर्ड तोड़ दिए। मजे की बात तो यह है कि डोनी पोलो उद्यान  के पास भी बिक्री के लिए केवल 5.7किलोग्राम चाय थी और वह भी हाथों हाथ बिक गयी। वह भी तब, जब भारत में सफेद चाय बनाने वाले सबसे अच्छे उद्यान दार्जिलिंग के माने जाते  हैं।
हम यहाँ  ज्यादा दूध और कम पत्ती डालकर बनायीं गयी सफ़ेद चाय की बात नहीं कर रहें है बल्कि हम उस चाय की बात कर रहे हैं जो उत्पादन के स्तर पर ही सफ़ेद चाय कहलाती है । मेरी तरह ही बहुत लोगों कोसफ़ेद चाय सुनकर आश्चर्य होगा। वैसे चाय हमारे देश में किसी पहचान की मोहताज की नहीं है बल्कि यह तोघर-घर की पहचान है मसलन दूध वाली चाय,अदरक-इलायची वाली चाय, मसाला चाय,कट चाय और यदिआप पूर्वोत्तर में हैं तो यहाँ की लोकप्रिय लाल चाय, लिम्बू चाय( नींबू वाली चाय) और इसीतरह की तमामअन्य किस्मों/स्वादों वाली चाय।तो फिर ये जानना लाज़मी है कि आखिर ये सफ़ेद चाय है क्या बला?
सफेद चाय दरअसल में चाय की कई शैलियों में से एक है, जिन्हें हम ताज़ा या कम प्रसंस्कृत पत्तियां कह सकते है। ऐसा माना जाता है कि चाय की कलियों और नई पत्तियों के आसपास सफ़ेद रोएं/रेशे जैसी संरचनाएं होती हैं जो इस चाय के उत्पादन में अहम् भूमिका निभाती हैं इसलिए इसका नाम सफ़ेद चाय पड़ गया।
सफेद चाय को लेकर दुनिया में कोई एक राय या सर्वमान्य परिभाषा अब तक तय नहीं हुई है ।कुछ जगह इसे कम प्रसंस्करण के साथ सुखाई गईं पत्तियां माना जाता है तो कहीं कलियों से बनाई गई चाय और कहीं अपरिपक्व चाय की पत्तियों से कुछ तैयार चाय।
हाँ,इस बात से सभी सहमत हैं कि सफेद चाय का न तो ऑक्सीकरण किया जाता है और न ही इसकी पत्तियों को कूटा-पीटा जाता है इसके परिणामस्वरूप इस चाय का स्वाद और रंग-रूप अपनी बिरादरी की हरी या पारंपरिक काली चाय की तुलना में  हल्का होता है ।
‘गूगल गुरु’ पर छानबीन के दौरान पता चला कि चीन में सोंग वंश (960-1279 एडी) के शासन के दौरान सफेद चाय की खोज की गई और इसे सबसे नाजुक चाय किस्मों में से एक माना जाता है क्योंकि यह कम से कम प्रसंस्कृत होती है। वहां पौधों के पत्तों को पूरी तरह से सफेद बाल द्वारा कवर की गई ताज़ा कली के साथ पूरी तरह से फूलने से पहले  काट लिया जाता था । उस समयआम लोगों को सफेद चाय पीने की इजाजत नहीं थी क्योंकि यह विशेष रूप से सम्राट और उनके दरबारियों के लिए तैयार की जाती थी। वैसे इस चाय की कीमत को देखते हुए आज भी आम लोग इसे पीने के बारे में सोच भी नहीं सकते  
वहीं,कुछ दस्तावेजों में सफ़ेद चाय का उल्लेख 18 वीं सदी के दरम्यान मिलता है लेकिन तब इसे आज के नाम और खूबियों से नहीं जाना जाता था। यह खास चाय मुख्य रूप से चीन के फ़ुज़ियान प्रांत में पैदा होती है, लेकिन अब भारत, ताइवान, थाईलैंड, श्रीलंका और नेपाल में भी इसका उत्पादन शुरू हो गया है।
फिर सवाल वही उठता है कि आखिर ऐसा क्या है इस सफ़ेद चाय में जिसने इसे चाय की महारानी बना दिया है ? इस चाय की अंधाधुंध कीमत का राज़ इसकी खूबियों में ही छिपा है। हम इसे ‘संजीवनी चाय’ या हर मर्ज का इलाज़ भी कह सकते हैं। सफ़ेद चाय हर स्थिति में लाभकारी है चाहे फिर बात वजन घटाने की हो या फिर फिर चेहरे से मेरी उम्र का पता ही नहीं चलता जैसी इच्छा की। यह कैंसर,मधुमेह, रक्तचाप,समय से पहले बुढ़ापे की रोकथाम,पाचन तंत्र को मजबूत करने,दांत-त्वचा को चमकदार बनाने ,वजन घटाने सहित कई मामलों में रामबाण मानी जाती है। मतलब बस एक कप सफ़ेद चाय और सभी शारीरिक परेशानियों की छुट्टी 
@assamtea  @tea  @whitetea  @google @china 

शनिवार, 3 जून 2017

बिना पंखों के शिखर छूती प्रतिभाएं

प्रतिभाएं कभी सुविधाओं की मोहताज नहीं होती बल्कि वे अवसरों का इंतज़ार करती हैं ताकि वक्त की कसौटी पर स्वयं को कस सकें. असम बोर्ड की इस बार की परीक्षाओं में कई ऐसे मेधावी छात्रों ने अपने परिश्रम का लोहा मनवाया है जिनके घर में पढाई का खर्च निकालना तो दूर, दो वक्त के खाने के भी लाले पड़े रहते हैं. 

सिलचर के राज सरकार के पास रंग और ब्रश खरीदने के पैसे नहीं हैं फिर भी उसने फाइन आर्ट्स में पूरे राज्य में अव्वल स्थान हासिल किया है. राज को 100 में से 100 अंक मिले हैं. आलम यह है कि उसके स्कूल में इस विषय को पढ़ाने-सिखाने वाले शिक्षक तक नहीं है और उसके माता-पिता भी दैनिक मजदूर हैं इसलिए घर में इस कला को समझने वाला कोई नहीं है लेकिन एकलव्य की तरह साधना करते हुए राज ने अपने परिश्रम से ऐसा मुकाम हासिल कर लिया है अब राज्य सरकार से लेकर कई स्थानीय संस्थाएं भी उसकी मदद को आगे आ रही हैं.

राजदीप दास की कहानी तो और भी पीड़ादायक है. बचपन से ही पोलियो के कारण वह चल फिर नहीं सकता था लेकिन पढाई के प्रति लगन देखकर उसके पिता प्रतिदिन गोद में लेकर स्कूल आते थे. ऐन परीक्षा के पहले उसके दाहिने हाथ ने भी काम करना बंद कर दिया. रिक्शा चालक पिता की हैसियत इतनी नहीं थी कि तुरंत इलाज करा सकें. तमाम विपरीत परिस्थितियों के बाद भी राजदीप ने पढाई नहीं छोड़ी और उसने बोर्ड परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास कर परिवार और स्कूल का नाम रोशन कर दिया. अनपढ़ माता पिता के लिए तो अपने दिव्यांग बेटे की यह सफलता मेरिट लिस्ट में पहला स्थान पाने जैसी है. अब राजदीप प्रतियोगी परीक्षाओं के जरिए बड़ा अधिकारी बनकर न केवल अपने परिवार के आर्थिक संकट को दूर करना चाहता है बल्कि अन्य बच्चों के लिए भी आदर्श बनना चाहता है.  

मजदूर परिवार की दायिता पुष्पा की कहानी तो और भी अनूठी है. असम बोर्ड के 12वीं के नतीजों में उसे फेल दिखाया गया था। छात्रा और उसके स्कूल ने जब बोर्ड से इस संबंध में बात की तो पता चला कि वह फेल नहीं, बल्कि उसने टॉप टेन में शामिल है।

दरअसल बोर्ड की गफलत के चलते दायिता को एक विषय में अनुपस्थित मानकर फेल कर दिया गया । जांच में पता चला कि छात्रा अनुपस्थित नहीं थी बल्कि गलती से उसके अंक जुड़ नहीं पाए थे। बोर्ड ने अपनी गलती मानते हुए तत्काल ही उसका संशोधित रिजल्ट घोषित करते हुए बताया कि दायिता पुष्पा ने टॉप टेन में सातवां स्थान हासिल किया है। उसे कुल 500 में 471 अंक मिले हैं।


लिंटन नामसुद्र, अमन कुर्मी,विक्रम सूत्रधार जैसे कई नाम हैं जिन्होंने इस वर्ष गरीबी, स्कूल से दूरी, संसाधनों का अभाव जैसी तमाम प्रतिकूल स्थितियों में भी अपनी मेहनत से साबित कर दिया है कि यदि किसी भी काम को करने की लगन और उत्साह हो तो सफलता की राह कोई नहीं रोक सकता. 

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रविवार, 12 मार्च 2017

अब नहीं सुनाई देगी ‘बाउल’ के बाज़ीगर की मखमली आवाज़

ढपली, ढोलक और डुगडुगी जैसे वाद्ययंत्र तो बंगाल की प्रसिद्ध लोकशैली ‘बाउल’ में अब भी अपनी मौजूदगी उतनी ही शिद्दत से दर्ज कराएँगे लेकिन शायद उनमें वो चिर-परिचित तान/खनक और जोश नहीं होगा क्योंकि लोक संगीत ‘बाउल’ के बाज़ीगर कालिका प्रसाद भट्टाचार्य की मखमली आवाज़ जो अब हमारे बीच नहीं होगी।
बंगाल के मशहूर लोक गीत गायक कालिका प्रसाद भट्टाचार्य का 7 मार्च 2017 को पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर एक्सप्रेस वे पर एक सड़क हादसे में निधन हो गया था। वे अपने बैंड "दोहार" के सदस्यों के साथ एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में पेश करने जा रहे थे। कालिका प्रसाद की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में उनका अंतिम संस्कार पूरे राजकीय सम्मान के साथ किया गया था।
गायक एवं संगीतकार शांतनु मोइत्रा ने भट्टाचार्य के निधन पर दुख व्यक्त करते हुए कहा था, ‘‘ मैं चाहता हूं कि यह खबर गलत हो।'' वहीँ,संगीतकार देबोज्योति मिश्रा ने कहा, ‘‘ बंगाली संगीत में नए लोक तत्वों को शामिल करने का श्रेय उन्हें ही जाता है और जब भी मैं उनसे मिलता था उनकी रचनात्मक सोच मुझे स्तब्ध कर देती थी।''
ऐसा नहीं है कि असम के सिलचर में जन्मे कालिका प्रसाद से पहले बाउल लोकप्रिय नहीं था या अब इसे गाने वाले नहीं बचे हैं लेकिन बाउल को जीने वाले और लोक संगीत को अपनी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा बनाने वाला जरुर चला गया है। कालिका प्रसाद ने हमेशा ही लोक संगीत के साथ अद्भुत प्रयोग किए हैं। उन्होंने फ्यूजन से लेकर गुमनाम वाद्य यंत्रों को खोज निकालने और फिर उनका बाउल में बखूबी इस्तेमाल करने जैसे अनेक अविस्मरणीय काम किए हैं। यही कारण है कि उनकी टीम ‘दोहार’ के प्रदर्शन का लोगों को इंतज़ार रहता था और कालिका प्रसाद भी अपने चाहने वालों को विविधता के मामले में कभी निराशा नहीं करते थे इसलिए नागालैंड के ‘ताती’ से लेकर मिज़ोरम के ‘खुआंग’ तक और त्रिपुरा के ‘सारिन्दा’ से लेकर मणिपुर के ‘पेना’ जैसे वाद्य यंत्र तक उनके इशारों पर नाचते थे। जब वे तल्लीन होकर बाउल में खो जाते थे तो उनके साथ दर्शक भी लय-ताल मिलाने लगते थे।  
कालिका प्रसाद दरअसल ‘अध्येता-गायक’ थे। वे केवल लोकगीत नहीं ढूंढते थे बल्कि उसकी उत्पत्ति, उसमें शुमार शब्दों के अर्थ और लोक संस्कृति में उस गीत के महत्व तक का अध्ययन करते थे। तभी तो उन्हें बंगाली लोक संगीत का ‘एनसाइक्लोपीडिया’ कहा जाता है। टीवी चैनलों पर आने वाले संगीत कार्यक्रमों में उनके इस लोक-ज्ञान से आए दिन नए गायकों और आयोजकों को रूबरू होने का अवसर मिलता रहता था। कालिका प्रसाद के पास भारत से लेकर बंगलादेश देश तक की स्थानीय जीवन शैली से जुड़े 6000 से ज्यादा गीतों का शोधपरक संग्रह था। उन्होंने जत्तीश्वर' (2014), ‘मोनोर मानूष' (2010) और बहुबन माझी' (2017) जैसी फिल्मों में न केवल गीत गाए हैं बल्कि अभिनय भी किया है।
 उनके करीबी लोग जानते हैं कि ‘दोहार’ कलिका प्रसाद के लिए एक लोक गायन समूह भर नहीं था बल्कि उनका सपना था जहाँ वे लोक संगीत की अपनी अलग दुनिया रचते थे और फिर उसमें संगीत रसिकों को शामिल कर उन्हें भाव-विभोर कर देते थे। बांग्ला भाषा के शब्द ‘दोहार’ का मतलब होता है दोहराना जैसे भजन मण्डली में समूह के अन्य सदस्य अपने मुख्य गायक की लाइन दोहराते हैं। जब सड़क दुर्घटना हुई तो उनके साथ ‘दोहार’ के बाकी सदस्य भी थे और बिल्कुल इस ग्रुप की गायन शैली के अंदाज़ में उन सभी ने इस दुर्घटना का एक साथ सामना किया। कालिका तो नहीं रहे परन्तु उनके अन्य साथियों की हालत भी गंभीर हैं जैसे कह रहे हैं कि कालिका तुम जो करोगे हम भी उसका अनुशरण करेंगे। 
कालिका प्रसाद का एक लोकप्रिय गीत है-“तोरे रीत माझारे राखवो छेड़े देवो न..”, इसका तात्पर्य है कि ‘मैं तुम्हें सदैव अपने दिल में रखूँगा कभी भूलूंगा नहीं’, परन्तु कालिका के चाहने वालों को शायद यह पता नहीं था कि यह केवल गीत नहीं बल्कि हक़ीकत है। अब उन्हें कालिका को अपने दिल में सहेज कर रखना होगा और उनके गीतों में जिंदा रखना होगा क्योंकि वे तो अपना वादा तोड़कर चले गए-सबसे दूर..बहुत दूर।   



शुक्रवार, 10 मार्च 2017

किगाली से सीखिए सफाई क्या होती है..!!!

My visit to Rwanda-Uganda with Vice President: Three 
हमारे देश में भले ही आज भी एक बड़ा वर्ग सरकार के स्वच्छता अभियान को बेमन से स्वीकार कर सफाई के नाम पर ढकोसला कर रहा हो लेकिन पूर्वी अफ़्रीकी देश रवांडा में सफाई ढकोसला नहीं दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा है और हर महीने के आखिरी शनिवार को यह साफ़ नजर भी आता है जब पूरा देश अनिवार्य रूप से साफ़-सफाई में जुट जाता है. रवांडा में 18 साल से लेकर 65 साल तक के हर महिला-पुरुष को सफाई अभियान में शामिल होना अनिवार्य है वरना उसे कठोर सज़ा का सामना करना पड़ता है. यहाँ तक की रवांडा के राष्ट्रपति से लेकर हर आम-ओ-खास को स्वच्छता अभियान में अनिवार्य रूप से शामिल होना पड़ता है तथा वह भी तस्वीर भर खिंचाने के लिए नहीं बल्कि वास्तविक सफाई के लिए और यह रवांडा के हर गली-कूंचे की सफाई को देखकर समझा जा सकता है. यही वजह है कि रवांडा की राजधानी किगाली को अफ्रीका के सबसे साफ़-सुथरे और सुरक्षित शहर का तमगा हासिल है
एक और बात, यहाँ 2008 से किसी भी तरह के प्लास्टिक बैग के इस्तेमाल पर प्रतिबन्ध है और यह कोई दिखावटी प्रतिबन्ध नहीं है बल्कि इस पर कड़ाई से अमल होता है. नियम तोड़ने वालों के लिए 150 डालर तक का जुर्माना है. रवांडा की मुद्रा यानि रवांडन फ्रेंक में यह राशि करीब 1 लाख 24 हजार फ्रेंक होती है. यह जुर्माना तो प्लास्टिक का इस्तेमाल करने वालों के लिए है लेकिन यदि किसी दुकानदार ने आपको प्लास्टिक के बैग में सामान दे दिया तो समझो वह गया 6 माह से लेकर एक साल तक के लिए जेल. यही कारण है कि यहाँ माल से लेकर मामूली दुकान तक प्लास्टिक का कोई नामलेवा नहीं मिलता और बाहर से आने वाले हम जैसे पर्यटकों को गाइड या होटल संचालक पहले ही आगाह कर देते हैं कि आप अपने साथ लाये प्लास्टिक के बैग बाहर लेकर मत निकलिए.
शायद यही कारण है कि कभी दुनिया के सबसे बड़े नरसंहार (Rwandan Genocide) के लिए बदनाम यह देश आज ‘हंड्रेड्स आफ माउन्टेन्स एंड मिलियंस आफ स्माइल’ अर्थात सैकड़ों पर्वतों और लाखों मुस्कराहटों वाला देश कहलाता है.....शायद हम रवांडा से कुछ सीख पाएं!!!


अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...