बुधवार, 14 दिसंबर 2022

अब ये पैसे फिर चलन में आ रहे हैं

 

अब ये पैसे फिर चलन में आ रहे हैं.. चौंकिए मत.. वाकई,पंजी, दस्सी, चवन्नी और अठन्नी कहलाने वाली यह मुद्रा अब फिर से प्रचलन में है…..लेकिन आप इनसे कुछ खरीद नहीं सकते बल्कि अब इन्हें हासिल करने के लिए आपको मौजूदा दौर में चलने वाली मुद्रा खर्च करनी पड़ेगी। दरअसल,अब ये मुद्राएं 'एंटीक ज्वैलरी' में बदल रही हैं और महिलाओं के नाक, कान और गले के सौंदर्य की शोभा बढ़ाती नजर आने लगी है मतलब पहले पैसे से सौंदर्य सामग्री खरीदी जाती थी और अब पैसा खुद सौंदर्य सामग्री बन रहा है।

पंजी, दस्सी, चवन्नी और अठन्नी..हो सकता है नए दौर के बच्चों को यह रैप या रिमिक्स जैसा कोई प्रयोग लगे लेकिन हमारे दौर में इनकी अहमियत आज के पांच और दस रुपए के बराबर थी..इन्हें हम पंजी यानि पांच पैसे, दस्सी दस पैसे, चवन्नी पच्चीस पैसे और अठन्नी को पचास पैसे के तौर पर जानते थे। चवन्नी और अठन्नी तो हाल के कुछ वर्षों तक प्रचलन में थीं।
इस तस्वीर में ध्यान से देखे तो इसमें एक,दो और तीन पैसे भी नज़र आ सकते हैं। कभी एक पैसा आज के एक रुपए जैसी हैसियत रखता था। हमसे से पहले की पीढ़ी इकन्नी, दुअन्नी से भी परिचित रही है पर हमें ये कुछ अलग लगते थे। वही हाल आज की पीढ़ी का है क्योंकि उनके लिए हमारे दौर की ये अहम मुद्राएं आज महत्वहीन है और इसी क्रम में हो सकता है आज के पांच और दस रुपए भविष्य में अबूझ पहेली बन जाएं। हालांकि कागज़ के नोटों के डिजिटल मुद्रा में बदलने और तमाम पेमेंट चैनल के कारण हो सकता है कि भविष्य में हम खुद भी रुपए पैसे को उनके रंग रूप से नहीं,बल्कि बस संख्या से पहचाने।

तेरा ज़िक्र है या इत्र है...महकता हूँ,बहकता हूँ...!!

इन दिनों, रात में आप यदि भोपाल की वीआईपी रोड, मुख्यमंत्री निवास से पॉलिटेक्निक कालेज या फिर तमाम नई बनी कालोनियों के आसपास की सड़कों से गुजरें तो एक भीनी भीनी और मादक सी सुगंध बरबस ध्यान खींचती है। ऐसा लगता है जैसे किसी ने सड़क पर रूम स्प्रे कर दिया है..वाकई,यह रूम स्प्रे ही है लेकिन प्रकृति का। जैसे आम की बौर या मधुमलिती की बेल आसपास के इलाके को महका देती है बिल्कुल उसी तरह इस खास पेड़ की खुशबू हवा में घुलकर मन मोह लेती है..और इन दिनों भोपाल ही नहीं,शायद देश के किसी भी व्यवस्थित शहर में यह इत्र अपनी सुगंध से लोगों का ध्यान खींच रहा होगा। शायद,शीत ऋतु के स्वागत का प्रकृति का यह अपना खास अंदाज़ है।

अपूर्व सुंगध के साथ अपने आकार प्रकार में भी आकर्षक इस पेड़ को सप्तपर्णी कहा जाता है। सप्तपर्णी का अर्थ है सात पत्तियों वाला..इस पेड़ की लंबी पत्तियां सात की संख्या में परस्पर साथ होती है और यही इस पेड़ की सुंदरता का सबसे बड़ा कारण है। जहां तक,विशिष्ट सुगंध की बात है तो इन दिनों मतलब अक्तूबर नवंबर से जनवरी फरवरी तक सप्तपर्णी में विशेष प्रकार के छोटे छोटे सफेद फूल आते हैं जो अपनी महक से पूरे इलाक़े को महका देते हैं। सप्तपर्णी मूल रूप से अपना पेड़ है यानि यह दक्षिण-पूर्वी एशियाई देश और भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जाता है। हालांकि इसे चीन, अफ्रीकी देशों और ऑस्ट्रेलिया में भी देखा गया है। यह पश्चिम बंगाल का राजकीय पेड़ भी है।
सप्तपर्णी को डेविल्स ट्री, स्कॉलर ट्री, डीटा बार्क, ब्लैकबोर्ड ट्री, मिल्कवुड, सप्तपर्णा, सप्तचद, छत्रपर्ण, शारद, सातवीण, छितवन और छातिम जैसे तमाम नामों से भी जाना जाता है। वैसे वैज्ञानिक तौर पर इसे 'एल्स्टोनिया स्कोलैरिस' कहा जाता है। बताया जाता है कि वनस्पति विज्ञानी प्रोफ़ेसर सी. एल्स्टन ने सबसे पहले इस पर शोध किया था और इसलिए इसका वैज्ञानिक नाम एल्स्टोनिया स्कोलैरिस पड़ गया। एक और मजेदार बात यह है कि यह पेड़ केवल खुशबू ही नहीं बिखेरता बल्कि शिक्षा का जरिया भी है। दरअसल, सप्तपर्णी की लकड़ी से स्कूल कालेज में इस्तेमाल होने वाले ब्लैकबोर्ड भी बनते हैं। बच्चों की स्लेट बनाने में भी इसका भरपूर उपयोग होता है इसलिए इसे ‘ब्लैकबोर्ड ट्री’ भी कहा जाता है ।
दिलचस्प बात यह है कि सप्तपर्णी की अनूठी खुशबू ही इसकी जान की दुश्मन बन गई है …अपनी इसी अलग और मादक सुगंध के कारण कई लोग इस पेड़ को अशुभ और शैतान का रहवास भी कहते हैं इसलिए इसे डेविल्स ट्री के नाम से भी जाना जाता है। वे इसे दमा/अस्थमा और सांस की तमाम बीमारियों की जड़ भी मानते हैं। अखबारों की खबरों के मुताबिक़ इन्हीं बातों पर विश्वास करने की वजह से कई शहरों में लोग इसे कटवाने तक लगे हैं।
वास्तव में सप्तपर्णी एक ऐसा सदाबहार वृक्ष है जिसका उपयोग आयुर्वेदिक, सिद्ध और यूनानी चिकित्सा जैसी तमाम देशी उपचार पद्धतियों में दुर्बलता, पीलिया और घाव ठीक करने सहित कई बीमारियों के इलाज में किया जाता है। इसीतरह दाद, खाज और खुजली जैसे चर्म रोगों और मलेरिया के उपचार तक में यह उपयोगी है। बुखार,दस्त और दांत दर्द में भी यह बहुत कारगर है।
और अंत में सबसे खास बात.... सप्तपर्णी मेरी 'बैटर हाफ' का भी सबसे पसंदीदा पेड़ है इस लिहाज से यह हमारा पारिवारिक पेड़ हुआ। अब दुनिया इसे जिस भी नज़र से देखे, अपने लिए तो यह पेड़,इसकी खुशबू और इसका सौंदर्य सबसे प्रिय है। मुझे तो लगता है संजय लीला भंसाली की फिल्म 'गुज़ारिश' में गीतकार ए.एम.तुराज़ भी शायद कभी सप्तपर्णी के इस पेड़ के आसपास से गुज़रे होंगे तभी तो उन्होंने लिखा था:
के तेरा ज़िक्र है या इत्र है
जब-जब करता हूँ
महकता हूँ, बहकता हूँ, चहकता हूँ
शोलों की तरह
खुशबुओं में दहकता हूँ
बहकता हूँ, महकता हूँ
इसलिए, सप्तपर्णी को लेकर फैली अच्छी बुरी बातों को छोड़िए,बस इसकी भीनी भीनी खुशबू में मस्त हो जाइए क्योंकि ये समय निकल गया तो फिर अगले साल ही मदहोश होने का मौका मिल पाएगा।

मंगलवार, 1 मार्च 2022

किसको फुर्सत मुड़कर देखे बौर आम पर कब आता है..


 मौसम में धीरे-धीरे गर्माहट बढ़ने लगी है और इसके साथ ही बढ़ने लगी है आम की मंजरियों की मादक खुशबू...हमारे आकाशवाणी परिसर में वर्षों से रेडियो प्रसारण के साक्षी आम के पेड़ों में इस बार भरपूर बौर/मंजरी/अमराई/मोंजर/Blossoms of Mango दिख रही है और पूरा परिसर इनकी मादक गंध से अलमस्त है....ऐसा लग रहा है  जैसे धरती और आकाश ने इन पेड़ों से हरी पत्तियां लेकर बदले में सुनहरे मोतियों से श्रृंगार किया है और फिर बरसात की बूंदों से ऐसी अनूठी खुशबू रच दी है जो हम इंसानों के वश में नहीं है। चाँदनी रात में अमराई की सुनहरी चमक और ग़मक वाक़ई अद्भुत दिखाई पड़ रही है।  अगर प्रकृति और इन्सान की मेहरबानी रही तो ये पेड़ बौर की ही तरह ही आम के हरे-पीले फलों से भी लदे नज़र आएंगे.....परन्तु आमतौर पर सार्वजनिक स्थानों पर लगे फलदार वृक्ष अपने फल नहीं बचा पाते क्योंकि फल बनने से पकने की प्रक्रिया के बीच ही वे फलविहीन कर दिए जाते हैं....खैर,प्रकृति ने भी तो आम को इतनी अलग अलग सुगंधों से सराबोर कर रखा है कि मन तो ललचाएगा ही..महसूस कीजिए कैसे स्वर्णिम मंजरी की मादकता चुलबुली ‘कैरी’ बनते ही भीनी भीनी खुशबू से मन को लुभाने लगती है और फिर आम के पकने के साथ ही उसकी मीठी-मीठी सुगंध...अहा... मधुमेह से परेशान लोगों के मुंह में भी पानी ला देती है ।

आम की मंजरियों की सुंदरता और मादकता ने हमेशा ही कवियों-लेखकों का मन मोहा है। तभी तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है -“कालिदास ने आम्र कोरकों को बसंत काल का 'जीवितसर्वस्वक' कहा था। उन दिनों भारतीय लोगों का हृदय अधिक संवेदनशील था। वे सुंदर का सम्मान करना जानते थे। गृहदेवियाँ इस लाल हरे पीले आम्र कोरक में देखकर आनंद विह्वल हो जाती थी। वे इस 'ऋतुमंगल' पुष्प  को श्रद्धा और प्रीति की दृष्टि से देखती थीं। आज हमारा संवेदन भोथा हो गया है। पुरानी बातें पढ़ने से ऐसा मालूम होता है जैसे कोई अधभूला पुराना सपना है। रस मिलता है, पर प्रतीति नहीं होती।‘

वहीं,आम की मंजरियों की मादकता पर क़लम चलाने से जाने माने लेखक विद्यानिवास मिश्र भी खुद को नहीं रोक पाए। उनके शब्दों में - 'आम वसंत का अपना सगा है, क्योंकि उसके बौर की पराग-धूलि से वसंत की कोकिला का कविकंठ कषायित होकर और मादक हो जाता है. आम की बौर, नये पल्लव और नये कर्ले और अंखुए कामदेव के बाण बन जाते हैं।'

आम तो वैसे भी फलों का राजा माना जाता है इसलिए राजा साहब की शान में कशीदे काढ़ने से भला कौन रुक सकता है...लेकिन यदि हम 'आम राजा' की तारीफों में डूब गए तो शब्द कम पड़ जाएंगे इसलिए पीले/रसीले/मीठे आम पर बात फिर कभी..फ़िलहाल अपन तो बौर की मादक गंध में अलमस्त हैं और  अपनी बात का समापन कुमार रवींद्र की कविता की उन पंक्तियों से करते हैं, जो  इस मादकता से हमें झंझोड़ कर उठाते हुए आम और आज से जुड़ी वास्तविकता से रूबरू कराती है। वे लिखते हैं:

'अरे बावरे

गीत न बाँचो अमराई का

महानगर में

किसको फुर्सत

मुड़कर देखे

बौर आम पर कब आता है।'


#आम #अमराई #मंजरी #mango #blossom #blossombeauty  #कैरी

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...