बुधवार, 14 दिसंबर 2022

है न, सब कुछ असाधारण, अविस्मरणीय और अविश्वसनीय..!!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उज्जैन में भगवान महाकालेश्वर मंदिर परिसर के महाकाल लोक का लोकार्पण करते हुए कहा था- ‘महाकाल लोक’ में लौकिक कुछ भी नहीं है। शंकर के सानिध्य में साधारण कुछ भी नहीं है। सब कुछ अलौकिक है, असाधारण है, अविस्मरणीय है, अविश्वसनीय है….और, महाकाल का आशीर्वाद जब मिलता हैं तो काल की रेखाएँ मिट जाती हैं, समय की सीमाएं सिमट जाती हैं, और अनंत के अवसर प्रस्फुटित हो जाते हैं।"....हो सकता है किसी को ये अतिसंयोक्ति लगे, परन्तु हम ने तो महाकाल लोक के शुभारंभ के अगले ही दिन यह महसूस कर लिया कि उज्जैन के राजाधिराज की इच्छा से बाहर कुछ भी नहीं है।

किस्सा कुछ इस तरह से है कि, इस कार्यक्रम के कवरेज के लिए हम भी एक दिन पहले उज्जैन में जम गए थे और 11 अक्टूबर को कवरेज के तत्काल बाद भोपाल लौटने की मनःस्थिति बना चुके थे। वैसे भी वीवीआईपी के कार्यक्रम मिनट टू मिनट तय होते हैं और मोदी जी के कार्यक्रमों में तो यह बात सौ फीसदी सच होती है इसलिए अपन ने भी अपनी वापसी यात्रा तय कर ली थी।
प्रधानमंत्री को लोकार्पण और कार्तिक मेला मैदान पर सभा के बाद 8 बजे उज्जैन से इंदौर और फिर वहां से दिल्ली रवाना होना था। हमने सोचा सभा के साथ साथ ही खबर बन जाएगी और नौ बजे भी निकले तो रात 12-12.30 तक भोपाल पहुंच ही जाएंगे लेकिन महाकाल को तो कुछ और ही मंजूर था। प्रधानमंत्री की सभा करीब एक घंटे देरी से खत्म हुई, फिर सभास्थल पर नेटवर्क के लाले पड़ गए और सभास्थल से सबसे पहले निकलने के बाद भी सड़कों पर जमा सैकड़ों लोगों और उनकी आवाजाही के कारण हमारी कार रफ्तार में बैलगाड़ी से भी मात खाने लगी..फिर क्या था, खिसियाते झुंझलाते क़रीब साढ़े दस बजे नेटवर्क जोन में पहुंचे, फटाफट स्टोरी बनाकर भेजी और निकलने का मन बना ही रहे थे कि पेट ने अपनी पूजा के बिना आगे बढ़ने से इंकार कर दिया । उज्जैन के मारवाड़ी भोजनालय में कुरकुरी रोटियों के साथ घर जैसी स्वादिष्ट सब्जियों के साथ छककर भोजन हुए। पर लज़ीज़ खाने के कारण हमारे सारथी पर नींद की खुमारी छा गई और ऐसे में जान जोखिम में कौन डालता। आप कह सकते हैं कि इसमें असामान्य क्या है,ये तो आमतौर पर होता है.. असामान्य बात यह थी कि हमारे ड्राइवर महाशय रात की यात्राओं के मुरीद हैं और वे दिन की बजाए रात में चलने के लिए हुलस पड़ते हैं,पर इस बार वे ही राजी नहीं हुए और रात्रि विश्राम उज्जैन के नाम हो गया।
बात,इससे आगे भी है..दूसरे दिन सुबह सुबह निकलने का तय हुआ था जो चाय नाश्ते के साथ करीब दस बजे शुरू हो पाया। भोपाल रवानगी के पहले, चलते चलते, मन में आया कि रात की चमक दमक के बाद और मोदी जी की अपील के बाद ऊपर सड़क से ही देखें कि महाकाल लोक की क्या स्थिति है। बस,फिर क्या था.. कार us सड़क पर मुड़ गई और हमने पुल पर से ही महाकाल लोक को मोबाइल कैमरे में समेट लिया। तभी हमारे उज्जैन के साथी हेमेंद्र तिवारी जी ने सलाह दी कि कार से एक बाहरी चक्कर भी लगा सकते हैं । उनकी सलाह मानकर जब रामघाट तक का यह चक्कर पूरा कर महाकाल लोक के नए बने मुख्य द्वार पर पहुंचे तो थोड़ा और लालच बढ़ा कि बस रूद्रसागर तक जाकर अंदर का जायज़ा भी ले लिया जाए। महाकाल की इच्छा को कौन टाल सकता है और हम तीखी हो चली धूप में भी मूर्ति दर मूर्ति निहारते आगे बढ़ते गए और नंदी द्वार, गणेश,शिव बारात,शिव श्रृंगार जैसी दर्जनों विशालकाय मूर्तियों को अपलक ताकते हुए जब वापस लौटने के लिए पलटे तो सामने महाकालेश्वर मंदिर का नवनिर्मित प्रवेश द्वार था…पर दिक्कत यह थी कि बिना स्नान किए महाकाल के दर्शन.. ज़मीर नहीं मान रहा था पर हेमेंद्र अपने शास्त्रों के ज्ञान से रास्ता निकाल लाए और हम मंत्रमुग्ध से ऐसे आगे बढ़ते गए जैसे कोई अदृश्य शक्ति हमारा हाथ थामकर ले जा रही हो..अंदर देखा तो देश विदेश के फूलों से सजे मंदिर की छटा ही निराली थी और सबसे अचंभित करने वाली बात यह कि बाहर नज़र आ रही भीड़ मंदिर के अंदर उतनी तादाद में नहीं दिखाई दी। कुछ मिनट के अंतराल में हम बिल्कुल महाकाल के सामने थे और आमतौर पर सेकेंडों में श्रद्धालुओं को महाकाल के सामने से जबरिया ढकेलने वाले सुरक्षा कर्मियों ने हमसे खुद कहा- 'आरती का समय हो रहा है और हमें पता है कि आप आरती के पहले यहां से जाएंगे नहीं, इसलिए आराम से जगह पर खड़े रहिए'…जबकि उस समय तक हमें सच में नहीं पता था कि यह आरती का समय है। अब महाकाल के आदेश को कौन टाल सकता है..हम रुके और आराम से पूरी आरती की,प्रसाद ग्रहण किया और साक्षी गोपाल के दर्शन कर उनकी गवाही भी दर्ज करा ली.. महाकाल ने जब दर्शन देने का ठान लिया था तो फिर सामान्य कतार में होने के बाद भी महज 10 मिनट में इतने सुकून,शांति,भक्ति और शक्ति से परिपूर्ण दर्शन हुए कि दिन बन गया जबकि पिछली दफा वीआईपी पास के बाद भी ऐसा अवसर नसीब नहीं हो पाया था.. देवाधिदेव भोलेनाथ की कृपा से भीगे तन मन के साथ फिर हमारी कार भोपाल के रास्ते पर फर्राटा दौड़ने लगी…है न सब कुछ अलौकिक, असाधारण, अविस्मरणीय और अविश्वसनीय।
Shariq Noor, Mithlesh Kumar Pandey and 119 others
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बापू की कहानी,पत्थरों की जुबानी..!!

आपके पास महज एक दिन का वक्त है, पता नहीं फिर ये मौका कब नसीब होगा…मेले,ठेले, शापिंग फेस्टिवल, मॉल और हाट बाजारों की रौनक तो हम अक्सर देखते हैं लेकिन यहां कुछ अलग तरह का हुनर है…यहां पत्थर बोल उठे हैं,अपने अलग अलग रंग, आकार प्रकार और पहचान के बाद भी ये एकरूप होकर दुनिया के सबसे बड़े महामानव के आम इंसान से अहिंसा के पुजारी बनने की गाथा गुनगुना रहे हैं। हम बात कर रहे हैं - भोपाल के स्वराज भवन में 14 से 16 अक्टूबर के बीच आयोजित Anita Dubey की प्रस्तर प्रदर्शनी यानि पत्थरों पर जादूगरी की।

अब तक, हम-आपने महात्मा गांधी को विविध कैनवासों और तस्वीरों में देखा है लेकिन इस प्रस्तर प्रदर्शनी में बापू अलग ही रूप में नजर आते हैं। युवा गांधी, बैरिस्टर गांधी,असहयोग करते,चरखा चलाते, बा के साथ, गोलमेज सम्मेलन में, दांडी यात्रा करते और न जाने कितने रूपों में छोटे बड़े पत्थरों के जरिए प्रतिबिंबित होते गांधी। 45 फ्रेम्स और 15 कोटेशन में अनीता दुबे ने साबरमती आश्रम से लेकर चंपारण तक और गांधी टोपी से लेकर उनके तीन बंदरों और बकरी निर्मला तक महात्मा गांधी से जुड़े हर अहम किस्से को अपने पत्थरों से साकार कर दिया है। खास बात यह है कि अनीता जी पत्थरों को बिना तरासे उनके प्राकृतिक रूप में ही इस्तेमाल करती हैं और इसके लिए वे 30 साल से साधना/तपस्या कर रही हैं । अनीता दुबे ने बताया कि गांधीजी पर केंद्रित इस प्रदर्शनी के लिए वे तीन साल से दिनरात एक किए थीं तब जाकर पत्थरों ने बोलना शुरू किया और अब तो वे पूरा गांधीवाद बयान कर रहे हैं।
गांधीजी को एक अलग नजरिए से, नए रूप में और अनूठे अंदाज में देखने का यह अवसर छोड़िए मत..जरूर देखिए क्योंकि ऐसे कलाकारों के हुनर को हमारा समर्थन बहुत जरूरी है ।

अब ये पैसे फिर चलन में आ रहे हैं

 

अब ये पैसे फिर चलन में आ रहे हैं.. चौंकिए मत.. वाकई,पंजी, दस्सी, चवन्नी और अठन्नी कहलाने वाली यह मुद्रा अब फिर से प्रचलन में है…..लेकिन आप इनसे कुछ खरीद नहीं सकते बल्कि अब इन्हें हासिल करने के लिए आपको मौजूदा दौर में चलने वाली मुद्रा खर्च करनी पड़ेगी। दरअसल,अब ये मुद्राएं 'एंटीक ज्वैलरी' में बदल रही हैं और महिलाओं के नाक, कान और गले के सौंदर्य की शोभा बढ़ाती नजर आने लगी है मतलब पहले पैसे से सौंदर्य सामग्री खरीदी जाती थी और अब पैसा खुद सौंदर्य सामग्री बन रहा है।

पंजी, दस्सी, चवन्नी और अठन्नी..हो सकता है नए दौर के बच्चों को यह रैप या रिमिक्स जैसा कोई प्रयोग लगे लेकिन हमारे दौर में इनकी अहमियत आज के पांच और दस रुपए के बराबर थी..इन्हें हम पंजी यानि पांच पैसे, दस्सी दस पैसे, चवन्नी पच्चीस पैसे और अठन्नी को पचास पैसे के तौर पर जानते थे। चवन्नी और अठन्नी तो हाल के कुछ वर्षों तक प्रचलन में थीं।
इस तस्वीर में ध्यान से देखे तो इसमें एक,दो और तीन पैसे भी नज़र आ सकते हैं। कभी एक पैसा आज के एक रुपए जैसी हैसियत रखता था। हमसे से पहले की पीढ़ी इकन्नी, दुअन्नी से भी परिचित रही है पर हमें ये कुछ अलग लगते थे। वही हाल आज की पीढ़ी का है क्योंकि उनके लिए हमारे दौर की ये अहम मुद्राएं आज महत्वहीन है और इसी क्रम में हो सकता है आज के पांच और दस रुपए भविष्य में अबूझ पहेली बन जाएं। हालांकि कागज़ के नोटों के डिजिटल मुद्रा में बदलने और तमाम पेमेंट चैनल के कारण हो सकता है कि भविष्य में हम खुद भी रुपए पैसे को उनके रंग रूप से नहीं,बल्कि बस संख्या से पहचाने।

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...