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बिटिया की कविता मम्मी पापा के नाम..!!

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अब इसे मम्मी-पापा से एक हजार किमी से ज्यादा की दूरी कहें या फिर पत्रकार पिता और लेखक मां के संस्कार का असर...बिटिया,पहले ब्लॉगर बनी और अब उसने लिखी पहली कविता (काव्य अभिव्यक्ति  या आधुनिक कविता कहना ज्यादा उचित है)...हो सकता है कविता की कसौटी पर यह कच्ची हो लेकिन भावनाओं के लिहाज से पूरी पक्की है । कविता के शब्द जहां आत्मविश्वास का अहसास कराते हैं, वहीं दिल से आंखों की दूरी को पलभर में पाट देते हैं। हम इसे "बिटिया की कविता मम्मी-पापा के नाम" जैसा अच्छा सा शीर्षक भी दे सकते हैं...पढ़िए, तकनीकी से ज्यादा भाव से,शब्द नहीं मनोभाव से और  कुल मिलाकर ♥️ से। 'अब मैं जीना सीख गई हूं' मम्मी-पापा, आपकी ये नन्हीं सी जान अब सचमुच बड़ी हो गई है। अब जिंदगी जीना  सीख गई हूं मैं।  दुनिया न  बहुत बुरी है..!  बचपन से  यही बताते थे न...? सच कहते हो आप  ये दुनिया  सच में बहुत बुरी है,  पर मैंने भी न,  दुनिया से डील करना  सीख ही लिया है।  अब न ,अँधेरे से  डर नहीं लगता  रात को अचानक  नींद खुलने पर अब  सहम नहीं  जाती हूं ...

बोझ से कराहते पहाड़ों को चाहिए राहत का मलहम !!

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बढ़ती भीड़ से पहाड़ कराह रहे हैं और वाहनों की बेतहाशा संख्या उनका कलेजा छलनी कर रही है। फिर भी पर्यटक बेफिक्र हैं और पहाड़ों के पहरेदार यानि प्रशासन निश्चिंत । पहाड़ लगातार इशारा कर रहे हैं, खुलेआम संकेत दे रहे हैं और कई बार सीधी चेतावनी भी, फिर भी वीकेंड पर शिमला से लेकर मसूरी तक और मनाली से लेकर नैनीताल तक पर्यटकों और उनके वाहनों का जाम लगा है। एक घंटे का सफर 6 से 8 घंटों में हो रहा है। इसके बाद भी, पहाड़ों पर जाने वालों की संख्या घटने की बजाए लगातार बढ़ ही रही है। यह स्थिति किसी एक पहाड़ी शहर या राज्य की नहीं है बल्कि देश के तमाम पर्वतीय राज्य लोगों और वाहनों की बेलगाम भीड़ से घायल हो रहे हैं। धूल, धुआं,कचरा,शोर और भीड़ का दबाव पहाड़ों का सीना घायल कर रहे हैं। वैसे, तो कमोवेश सभी पर्वतीय इलाकों का एक जैसा हाल है लेकिन शिमला जैसे शहर तो बर्बादी की कगार पर हैं। शिमला के हिमाचल प्रदेश की राजधानी और एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल होने के कारण, पिछले कुछ दशकों में वाहनों की संख्या में तेजी से वृद्धि देखी गई है। इससे न केवल पर्यावरणीय संतुलन पर असर पड़ रहा है, बल्कि पहाड़ों की भौगोलिक संरचना और ...

‘अब मैं बोलूंगी’... एक पठनीय हकीकत!!

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जब किसी पुस्तक के पहले ही पेज पर लिखा हो कि ‘पत्रकारिता में मिले सभी दोस्तों और दुश्मनों को प्यार के साथ समर्पित..’, तो हम उस किताब के तेवरों का अंदाजा सहज ही लगा सकते हैं और जब किताब डायरी की शक्ल में हो और डायरी भी किसी खाँटी पत्रकार की हो तो सोने पर सुहागा ही समझो।   ‘खत का मजमून भांप लेते हैं लिफाफा देख कर’..मार्का शैली में हमने यह तो समझ ही लिया था कि जानी मानी पत्रकार स्मृति आदित्य ने यदि अपनी डायरी को ‘अब मैं बोलूंगी’ शीर्षक के साथ सार्वजनिक कर दिया है तो जाहिर है कई लोगों की, उनकी डायरी में शामिल किरदारों की और दोस्तों-दुश्मनों की खैर नहीं।     होना तो यही चाहिए था, लेकिन सुसंकृत,संस्कारी और सुलझे हुए व्यक्तित्व के कारण स्मृति बखिया तो उधेड़ती हैं लेकिन संकेतों में। किसी का नाम लेकर उसकी भद नहीं पीटती बल्कि इशारों में अंदर तक भेद देती हैं। अब जो किरदार हैं वे तो पन्ना-दर-पन्ना समझ जाते हैं कि स्मृति की बेधड़क डायरी क्या कह रही है और यही इस किताब ‘अब मैं बोलूंगी’ की सबसे अच्छी बात है कि यह पूरे सम्मान के साथ कलई खोलती है।    यह पुस्तक पत्रकारिता ही न...

रेल यात्रा: विरासत से विकास तक

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भारतीय रेल की अब तक की यात्रा विरासत और विकास के संगम को दर्शाती है। 1853 में, जब पहली ट्रेन मुंबई से ठाणे तक दौड़ी, यह केवल एक यातायात साधन नहीं, बल्कि भारत में आधुनिकता की शुरुआत थी। उन भाप इंजनों की सीटी से लेकर आज की सेमी-हाई-स्पीड वंदे भारत एक्सप्रेस तक, भारतीय रेल ने 170 वर्षों में अभूतपूर्व प्रगति की है। यह न केवल शहरों और गांवों को जोड़ती है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक विविधता को भी एक सूत्र में पिरोती है। पुराने ज़माने की स्लीपर कोच की खिड़कियों से झांकती हवाएं हों या आधुनिक ट्रेनों की वातानुकूलित सुविधाएं, हर यात्री की कहानी भारतीय रेल के साथ जुड़ी है। आज, स्वदेशी तकनीक और डिजिटल नवाचारों के साथ, भारतीय रेल आत्मनिर्भर भारत का प्रतीक बन चुकी है। डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर, हाई-स्पीड रेल प्रोजेक्ट्स, और अमृत स्टेशनों का स्मार्ट आधुनिकीकरण इसकी नई उड़ान को दर्शाते हैं। यह यात्रा केवल पटरियों पर नहीं, बल्कि भारत के सपनों और आकांक्षाओं के साथ आगे बढ़ रही है, जो विरासत को संजोते हुए विकास की नई ऊंचाइयों को छू रही है। मैने अपने इस रेल वृतांत को बंद होती मीटरगेज ट्रेन क...

मादक गंध से अलमस्त माहौल

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मौसम में धीरे-धीरे गर्माहट बढ़ने लगी है और इसके साथ ही बढ़ने लगी है आम की मंजरियों की मादक खुशबू...हमारे आकाशवाणी परिसर में वर्षों से रेडियो प्रसारण के साक्षी आम के पेड़ों में इस बार भरपूर बौर/मंजरी/अमराई/मोंजर/Blossoms of Mango दिख रही है और पूरा परिसर इनकी मादक गंध से अलमस्त है....ऐसा लग रहा है  जैसे धरती और आकाश ने इन पेड़ों से हरी पत्तियां लेकर बदले में सुनहरे मोतियों से श्रृंगार किया है और फिर बरसात की बूंदों से ऐसी अनूठी खुशबू रच दी है जो हम इंसानों के वश में नहीं है। चाँदनी रात में अमराई की सुनहरी चमक और ग़मक वाक़ई अद्भुत दिखाई पड़ रही है।  अगर प्रकृति और इन्सान की मेहरबानी रही तो ये पेड़ बौर की ही तरह ही आम के हरे-पीले फलों से भी लदे नज़र आएंगे.....परन्तु आमतौर पर सार्वजनिक स्थानों पर लगे फलदार वृक्ष अपने फल नहीं बचा पाते क्योंकि फल बनने से पकने की प्रक्रिया के बीच ही वे फलविहीन कर दिए जाते हैं....खैर,प्रकृति ने भी तो आम को इतनी अलग अलग सुगंधों से सराबोर कर रखा है कि मन तो ललचाएगा ही..महसूस कीजिए कैसे स्वर्णिम मंजरी की मादकता चुलबुली ‘कैरी’ बनते ही भीनी भीनी खुशबू से मन को लुभा...

तो हो जाए एक एक समोसा... ।।

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‘समोसा’ सुनते ही मुंह में पानी आ जाना स्वाभाविक है। यह तिकोना, मोटा और भूरा सा व्यंजन अपनी कद काठी के कारण अपनी बिरादरी में अलग ही नजर आता है। अपने रूप रंग में भले ही यह उन्नीस बैठता हो लेकिन स्वाद में पूरा बीस है और शायद यही कारण है कि तेल की कढ़ाई में घंटों उछलकूद करने वाला गरमागरम समोसा हर उम्र के लोगों की पहली पसंद है। शायद ही कोई अभागा हो, जिसे समोसा खाने का मौका न मिला हो क्योंकि यह तो हर छोटी-बड़ी पार्टी की शान है....लेकिन क्या आपको पता है कि आपके जन्मदिन की तरह आपके प्रिय समोसे का भी एक दिन है जिसे विश्व समोसा दिवस (World Samosa Day) जाता है।...शायद कम ही लोगों को यह पता होगा कि दुनिया भर में 5 सितम्बर को विश्व समोसा दिवस मनाया जाता है। हमारे-आपके प्रिय समोसे का बस यह दुर्भाग्य है कि उसका दिन ‘शिक्षक दिवस’ के साथ पड़ता है और गुरुओं को समर्पित इस दिन की गरिमा-भव्यता और दिव्यता में समोसा समर्पित शिष्य की भाँति अपने दिन को कुर्बान कर देता है।...इसलिए भले ही वह शिक्षक दिवस की हर दावत में डायनिंग टेबल पर पूरी शान और गर्व से इठलाता हो लेकिन अपना दिन खुलकर नहीं माना पाता। शिक्षक दिवस और ...

महबूब शहर भोपाल की चुटीली दास्तां है- ‘भोपाल टॉकीज_शहर की किस्सागोई’

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सत्तर के दशक की फिल्म ‘शोले’ का यह डायलॉग बहुत मशहूर हुआ था कि ‘हमारा नाम भी सूरमा भोपाली ऐसई नई है..,’ सोचिए, जब भोपाल से जुड़े एक संवाद ने देशभर में इतनी लोकप्रियता हासिल की थी तो अगर पूरे भोपाल के मिजाज़ को जानने का मौका मिल जाए तो वह कितना जबरदस्त होगा। वैसे भी, कहते हैं न कि सयाने लोग एक चावल से अंदाजा लगा लेते हैं कि बिरयानी कैसी पकी होगी। जाने माने संचार कर्मी, लेखक और व्यंग्यकार संजीव परसाई की नई किताब ‘भोपाल टॉकीज: शहर की किस्सागोई’ भी भोपाली बिरयानी की तरह लज़ीज़ है। यह हमें इस महबूब शहर के हर जायके से रूबरू कराती है। जब भी भोपाल की बात चलती है तो इस शहर को न केवल अपनी खूबसूरती के लिए बल्कि यहां के लोगों की जिंदादिली और स्वभाव की सहजता के लिए जाना जाता है।  संजीव ने इसी सरलता को केंद्र में रखकर करीने से तानाबाना बुना है। मूल भोपाली अपनी चटकारेदार भाषा,चुटीली शैली और हंसी मज़ाक में करारा व्यंग्य करने के लिए मशहूर हैं इसलिए जब आप ‘भोपाल टॉकीज: शहर की किस्सागोई’ किताब के पन्ने पलटना शुरू करते हैं तो धीरे-धीरे आप शहर की संस्कृति, किस्सागोई की परंपरा और शहर की आबोहवा में गोता ...

टोपियों की निराली परम्परा

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‘टोपी पहनाना’, ‘इसकी टोपी उसके सिर’ और ‘टोपी उछालना’ जैसे तमाम मुहावरे टोपियों की नकारात्मक छवि गढ़ने में पीछे नहीं हैं लेकिन ये बात राजनीतिक क्षेत्र की टोपियों तक ही सीमित हैं क्योंकि यदि बात हिमाचल प्रदेश की रंग बिरंगी,आकर्षक और लुभावनी टोपियों की हो तो आप भी ये तमाम मुहावरे भूलकर टोपी पहनने में पीछे नहीं रहेंगे। हिमाचल यानि देवभूमि के प्राकृतिक सौंदर्य की ही तरह यहां की टोपियां भी सबसे अलग हैं। हिमाचल प्रदेश का सौंदर्य प्रकृति, संस्कृति और शांति का एक अनुपम संगम है। हिमालय की गोद में बसा यह राज्य अपनी बर्फ से ढकी चोटियों, हरी-भरी घाटियों, झरनों, नदियों और प्राचीन मंदिरों और विविध संस्कृति के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता और सांस्कृतिक धरोहर पर्यटकों को अपनी ओर खींच लेती है। ब्यास, सतलुज, चिनाब और रावी जैसी नदियाँ यहां फिज़ाओं में संगीत घोलती हैं तो आध्यात्मिक परंपराएं, सांस्कृतिक सौंदर्य, लोक संस्कृति,जलवायुवीय आकर्षण,शांत वातावरण,बर्फ से ढके पहाड़ और हरे-भरे जंगल मनमोहक दृश्य प्रस्तुत करते हैं।  तमाम खूबियों के बाद भी हिमाचल में टोपी ऐसी खास चीज हैं जो बिना कुछ कहे...

समय से पहले आई खूबसूरती से क्यों भयभीत हैं पहाड़ के लोग!!

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हिमाचल प्रदेश या पूरे हिमालय में सौंदर्य के प्रतीक से इन दिनों क्यों भयभीत है लोग? क्यों उन्हें यह सुंदरता रास नहीं आ रही ? खूबसूरती से क्यों नाखुश है पर्वतीय इलाकों के रहवासी और प्राकृतिक सौंदर्य के उपासक क्यों नहीं चाहते असमय प्रकृति की नेमत? ये ऐसे कुछ सवाल हैं जिनके जवाब हमें केवल पर्वतीय इलाकों के जानकार ही दे सकते हैं। आखिर, कोई तो बात होगी जिसके फलस्वरूप यहां के लोगों को प्राकृतिक सुंदरता पसंद नहीं आ रही? हम बात कर रहे हैं कि पर्वतीय राज्यों के सबसे खूबसूरत वरदान बुरांश की। बुरांश का पेड़ और इसके फूल हिमाचल प्रदेश सहित देश के तमाम पर्वतीय राज्यों के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और प्राकृतिक संस्कारों से जुड़े हैं। बुरांश न केवल खूबसूरत है बल्कि सेहत की अनेक नेमतों से परिपूर्ण भी है। यह अर्थव्यवस्था का भी एक अनिवार्य हिस्सा है। बुरांश के महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि आईआईटी मंडी और इंटरनेशनल सेंटर फॉर जेनेटिक इंजीनियरिंग एंड बायोटेक्नोलॉजी (आईसीजीईबी) के शोधकर्ताओं ने  बुरांश की पंखुड़ियों में मौजूद फाइटोकेमिकल्स की पहचान की है जो कोविड-19 वायरस को रोक सकते हैं। एक अध...

6 डिग्री तापमान में गर्मी..भगवान बचाए!!

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यदि आप अपने शहर की 40-42 डिग्री की गर्मी में 20 से 22 डिग्री पर एसी चला कर जीवन का आनंद ले रहे हों और तभी आपका कोई दोस्त या परिचित कमरे में आए और इतने कम तापमान पर भी कहे कि यार कितनी गर्मी है तुम्हारे यहां..तो पक्का मान लीजिए वह हिमाचल प्रदेश से आया है क्योंकि, 22 डिग्री तापमान में गर्मी बस यहीं के लोगों को लग सकती है।  वाकई, शिमला,कुफरी और ठियोग जैसे तमाम इलाकों में इन दिनों कुछ ऐसा ही तापमान है और यहां के लोगों के लिए गर्मी है। वे मस्त शर्ट और टीशर्ट में घूम रहे हैं। दिन में धूप से बचने के लिए महिलाएं छाता लेकर निकलती हैं जबकि अपन जैसे मैदानी इलाकों के लोग स्वेटर और शाल में भी ठंड से कांपते हैं। स्थानीय लोगों के मुताबिक रात में जरूर थोड़ी ठंड हो जाती है जबकि असलियत यह है कि यहां दिन का तापमान 22 से 24 और शाम से भोर तक तो 6 डिग्री और उससे भी कम हो जाता है।  मौसम विभाग ने भी इस साल यहां एकाध दिन लू चलने की आशंका जाहिर की है जबकि यहां के निवासी भूपिंदर सिंह हेट्टा का कहना है कि अब शिमला में ठंड बची कहां है, दिसंबर तक तो गर्मी पड़ती है..बस, दो महीनों की बर्फ पड़ती थी, वह भी पता...