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मोबाइल खोलेगा घर घर में आईआईएम-आईआईटी जैसे नामी शिक्षा संस्थान

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इन दिनों छोटे परदे पर प्रसारित हो रही दूरसंचार सेवा प्रदान करने वाली एक निजी कम्पनी की विज्ञापन श्रृंखला टीवी के साथ साथ सोशल मीडिया पर काफी चर्चित है. रचनात्मक दृष्टि से उत्तम इस विज्ञापन श्रृंखला में उस कम्पनी की मोबाइल इंटरनेट सेवा को किसी विश्वविद्यालय या आईआईएम-आईआईटी जैसे नामी शिक्षा संस्थान की तरह दर्शाया गया है और उस कंपनी के ग्राहक अंग्रेजी सीखने से लेकर हवाई जहाज चलाने और वाहन सुधारने जैसे काम भी मोबाइल कंपनी द्वारा सृजित छदम शैक्षणिक संस्थान से सीखते दर्शाए गए हैं. ये तो रही विज्ञापन की बात परन्तु अब हक़ीकत में भी ऐसा कुछ होने जा रहा है और वो भी सरकारी स्तर पर. फिलहाल यह तो खोज का विषय हो सकता है कि सरकार ने इस कंपनी के विज्ञापनों से प्रेरणा ली है या फिर सरकारी योजना से प्रेरणा लेकर और सरकार में काम की जगजाहिर धीमी रफ़्तार का फायदा उठाकर दूरसंचार कम्पनी ने पहले विज्ञापन शुरू कर दिए. बहरहाल सच्चाई जो भी हो लेकिन इस प्रयास से शिक्षा क्षेत्र में क्रांति आ सकती है.   दरअसल मानव संसाधन विकास मंत्रालय मंत्रालय देश के पूर्वोत्तर राज्यों और खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में आम लोग...

चंद रुपयों की खातिर देश की पहचान को ख़त्म करने की साज़िश..!!!

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जब कुदरत की नियामत ही कहर बन जाए तो फिर किसी के लिए भी इससे बदतर हालात और क्या हो सकते हैं और जब ऐसी स्थिति का सामना किसी मूक जानवर को करना पड़े तो समस्या और भी मुश्किल हो जाती है. बीते कुछ सालों से कुछ ऐसी ही बदकिस्मती का सामना दुनिया भर में विख्यात असम के एक सींग वाले गैंडे को करना पड़ रहा है. इन गैंडों की दुर्लभ पहचान उनका सींग ही उनकी जान का दुश्मन बन गया है. इस छोटे से सींग की खातिर शिकारी इस विशालकाय जानवर का क़त्ल करने में भी नहीं हिचकिचा रहे. गैंडों के बढ़ते शिकार पर पर्यावरण विशेषज्ञों से लेकर राजनेता तक चिंता जता रहे हैं लेकिन गैंडों का शिकार बेरोकटोक जारी है. असम दुनिया भर में अपने एक सींग वाले गैंडे के लिए विख्यात है क्योंकि दुनिया में सबसे अधिक एक सींग वाले गैंडे असम में ही हैं. राज्य का काजीरंगा नेशनल पार्क इन विशालकाय जानवरों की सर्वाधिक आबादी के कारण विश्व विरासतों की खास सूची में भी शामिल है. 31 दिसंबर 2012 की गणना के मुताबिक पूरी  दुनिया में एक सींग वाले गैंडों की संख्या 3 हज़ार 333 है. इनमें से लगभग 75 फीसदी गैंडे असम में हैं. सिर्फ काजीरंगा में ही दो हज़ार से ज...

जब एक रेल इंजन के लिए हजारों लोगों ने किया घंटों इंतज़ार और मांगी दिल से दुआ..!!!

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जनसैलाब शब्द भी असम के सिलचर रेलवे स्टेशन में उमड़ी भीड़ के लिए छोटा प्रतीत होता है. यदि इससे भी बड़ा कोई शब्द इस्तेमाल किया जाए तो अति शयोक्ति नहीं होगी. चारों ओर बस सर ही सर नजर आ रहे थे. सभी ओर बस जनसमूह था- प्लेटफार्म पर,पटरियों पर, स्टेशन आने वाली सड़क पर. ऐसा लग रहा था जैसे आज शहर की सारी सड़कें एक ही दिशा में मोड़ दी गयी हों. बूढ़े, बच्चे, सजी-धजी महिलाएं और मोबाइल कैमरों से लैस नयी पीढ़ी, परिवार के परिवार. पूरा शहर उमड़ आया था वह भी बिना किसी दबाव या लालच के, अपने आप, स्व-प्रेरणा से, राजनीतिक दलों द्वारा उपलब्ध कराये जाने वाले वाहनों पर सवार होकर शहर घूमने आए लोगों की तरह तो बिल्कुल नहीं. मैंने तो आज तक अपने जीवन में कभी किसी रेल इंजन को देखने, उसे छूने, साथ में फोटो खिंचाने और उस पर चढ़ने की पुरजोर कसरत करते लोगों की इतनी भीड़ नहीं देखी. दरअसल, जब इंतज़ार सारी हदें पार कर जाता है तो सब्र का बाँध भी टूटने लगता है और फिर उम्मीद की छोटी सी किरण भी उल्लास का कारण बन जाती है. कुछ ऐसा ही पूर्वोत्तर के दक्षिण असम के लोगों के साथ हुआ. बराक घाटी के नाम से विख्यात यह इलाका अब तक ‘लैंड लाक’ क...

हमारी चाय की चुस्कियों पर टिकी उनकी रोजी-रोटी

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असम अपनी कड़क और तन-मन में ऊर्जा का संचार कर देने वाली चाय के लिए मशहूर है. राज्य में चाय बागान बेरोज़गारी को कम करने और राज्य की वित्तीय स्थिति को बेहतर बनाने में भी अहम भूमिका निभा रहे हैं. यहाँ चाय उत्पादन में बराक घाटी के नाम से मशहूर दक्षिण असम की अहम भूमिका है. हाल ही में बराक घाटी में सेहत के अनुकूल पर्पल यानि बैंगनी चाय के उत्पादन की संभावनाए भी नजर आई हैं. ऐतिहासिक रूप से नज़र डाले तो सुरमा घाटी और अब बराक घाटी के नाम से विख्यात दक्षिण असम के चाय बागानों का इतिहास सौ साल से भी ज्यादा पुराना है. यहाँ प्रतिकूल मौसमीय परिस्थितियों के बाद भी चाय उत्पादन में लगभग 3 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है और कछार चाय की कीमत में भी तुलनात्मक रूप से 8 फीसदी से ज्यादा का इज़ाफा हुआ है. जानकारों का कहना है कि यदि परिवहन,बिजली और संचार सुविधाएँ बेहतर हो जाएँ तो कछार चाय देश के कुल चाय उत्पादन में और भी ज्यादा योगदान दे सकती है. जिसका असर पूर्वोत्तर के विकास पर भी स्पष्ट नज़र आएगा. वैसे,असम में कुल मिलाकर 70 हज़ार से ज्यादा छोटे-बड़े चाय बागान हैं और लाखों परिवारों की रोजी-रोटी इन बागानों के सहारे चल...

पूर्वोत्तर में एक साल...समय का पता ही नहीं चला...!!!

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आज सिलचर में एक साल हो गया. आज ही के दिन (11 फरवरी 2014) आकाशवाणी, सिलचर में अपना कार्यभार संभाला था. पता ही नहीं चला कैसे इतना वक्त बीत गया. अभी की ही तो बात लगती है जैसे चंद हफ्ते या महीने पहले यहाँ आना हुआ है. इस बारे में दोस्तों का कहना है कि जब काम में मन रम जाए या फिर मनपसंद काम करना हो तो समय कैसे गुजर जाता है इसका पता नहीं चलता. हो सकता है यह भी एक कारण हो या फिर अपनी घुमंतू प्रवृत्ति या फिर परिवार का साथ या फिर सिलचर के लोग,नए दोस्त,आकाशवाणी का स्टाफ,यहाँ का वातावरण....कुछ तो है जिसने सालभर एक अनजान शहर में,अपने घर और अपने जानने वालों से ढाई-तीन हजार किलोमीटर दूर रहने के बाद भी वक्त का अहसास ही नहीं होने दिया. शायद पूर्वोत्तर के लोगों की सहजता,सरलता,अपनापन और मिलनसारिता ने घर की,अपनों की याद नहीं आने दी. मजे की बात तो यह है कि दिल्ली में पांच दिन काम करने के बाद दो दिन की छुट्टी मिलती थी और आए दिन पड़ने वाले तीज-त्यौहार की छुट्टियाँ अलग मिलती थी,फिर भी कहीं न कहीं एक दबाव सा महसूस होता था..शायद भीड़ का,लाखों की संख्या में वाहनों का,बस से लेकर मेट्रो तक में धक्कामुक्की का औ...

‘खबर’ से ‘बयानबाज़ी’ में बदलती पत्रकारिता

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मीडिया और खासतौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया से ‘खबर’ गायब हो गयी है और इसका स्थान ‘बयानबाज़ी’ ने ले लिया है और वह भी ज्यादातर बेफ़िजूल की बयानबाज़ी. नेता,अभिनेता और इसीप्रकार के अन्य कथित ‘सेलिब्रिटी’ आए दिन उट-पटांग बयान देते हैं और मीडिया आगे बढ़कर उन्हें उछालने और ऐसे ही अन्य बयान देने के लिए उकसाता रहता है. टेलीविजन चैनलों पर अपना चेहरा दिखाने और सस्ती लोकप्रियता पाने की प्रतिस्पर्धा इतनी बढ़ गयी है या यों कहा जाए कि मीडिया ने इतनी बढ़ा दी है कि अब हर कोई ‘विवादित बयानबाज़ी’ के जरिये कथित तौर पर लोकप्रिय होना चाहता है. यही कारण है कि देश में इन दिनों साधुओं-साध्वियों,मुल्ला-मौलवियों और उनसे भी ज्यादा बदनाम होने को तत्पर गुमनाम नेताओं की मानो बाढ़ सी आ गयी है. हर कोई अपनी भाषा-संस्कृति की गंदगी को उगलने और दूसरों को भी उसकी चपेट में लेने के लिए बेताब है. मीडिया के ‘बाइट-वीर’ तो मानो इसे लपकने के लिए अपनी झोली फैलाए बैठे हैं कि आओ हमारे चैनल पर आप अपनी गन्दी जुबां की प्रतिभा का प्रदर्शन करो और फिर हम उसे ब्रेकिंग न्यूज़ बनाकर पूरे देश में इसे दिनभर महामारी की तरह फैलाते रहेंगे. खेद की बात त...

‘दहशत अंकल’, अब तो मान जाइए....!!!!

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‘दहशत अंकल’, हाँ यही तो कहा था पेशावर में स्कूली बच्चों के नरसंहार के बाद उस दस साल की मासूम बच्ची ने दहशतगर्दों के लिए क्योंकि उसे तो बचपन से यही सिखाया गया है कि अपने पिता की उम्र के सभी पुरुषों को अंकल जैसे सम्मानजनक संबोधन के साथ पुकारना है और दहशत शब्द उसके लिए शायद नया नहीं होगा.पकिस्तान में आए दिन होने वाले धमाकों और फायरिंग के बाद अख़बारों से लेकर न्यूज़ चैनलों में दहशतगर्द शब्द दिनभर गूंजता रहता है इसीलिए उसने अनुमान लगा लिया कि यह कारनामा करने वाले दहशतगर्द ही होंगे. पारिवारिक संस्कारों के कारण उसने अनजाने में ही एक नया शब्द ‘दहशत अंकल’ गढ़ दिया यानि खौफ़ के साथ प्रेम और सम्मान का अदभुत समन्वय. ‘दहशत अंकल’ शब्द ने मुझे सत्तर के दशक की सुपरहिट फिल्म ‘दुश्मन’ की याद दिला दी. सदाबहार अभिनेता स्वर्गीय राजेश खन्ना, मीना कुमारी और मुमताज़ के अभिनय से सजी दुलाल गुहा की इस फिल्म में भी बच्चे फिल्म के नायक को ‘दुश्मन चाचा’ कहकर पुकारते हैं क्योंकि उन्हें शुरू से ही यह बताया जाता है कि नायक उनका दुश्मन है और संस्कारवश वे चाचा अपनी ओर से जोड़ देते हैं. किसी अपराधी को अनूठे ढंग से सुधारन...

बाबा का भ्रम या वास्तव में बरम...!!!

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छोटे परदे पर इन दिनों प्रसारित हो रहे धारावाहिक ‘उड़ान’ में बार बार डाक बाबा की चर्चा होती है. डाक बाबा इस कहानी का फिलहाल एक अहम किरदार भी हैं. वास्तव में डाक बाबा कोई भगवान, संत-महात्मा,गुनिया या ओझा नहीं बल्कि एक पेड़ है जिस पर वहां के बंधुआ लोगों को अपार विश्वास है और वे इस पर अपनी मन्नत की गाँठ लगाकर खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं. हाल ही में पूर्वोत्तर की बराक घाटी को करीब से जानने का अवसर मिला. असम का यह क्षेत्र बंगलादेश की सीमा से लगा हुआ है और खान-पान से लेकर बोलचाल तक के मामले में असम से ज्यादा निकटता बंगलादेश के सिलहट से महसूस करता है. यहाँ भी टीवी सीरियल के डाक बाबा की तरह एक बरम बाबा की मौजूदगी की जानकारी मिली. बराक घाटी को भौगोलिक रूप से दक्षिण असम के नाम से जाना जाता है. यहाँ विकास की गति का यह हाल है देश भर के साथ शुरू हुआ ईस्ट-वेस्ट कारीडोर का काम लगभग दो दशक बाद भी अटका हुआ है और रेल को मीटर गेज से ब्राड गेज में बदलने का काम भी कश्मीर में रेल नेटवर्क की नींव पड़ने के पहले शुरू हुआ था. कश्मीर में तो रेल धड़ल्ले से दौड़ने लगी परन्तु यहाँ पटरियों को चौड़ी करने का काम अभी त...

और ऐसे बन गया मिनटों में पटरियों पर इतिहास....!!!!

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बराक वैली एक्सप्रेस के चालक ने जैसे ही हरी झंडी दिखाते हुए सिलचर रेलवे स्टेशन से अपनी ट्रेन आगे बढ़ाई, मानो वक्त ने मिनटों में ही लगभग दो सदी का फ़ासला तय कर लिया. हर कोई इस पल को अपनी धरोहर बनाने के लिए बेताब था. यात्रा के दौरान शायद बिना टिकट चलने वाले लोगों ने भी महज संग्रह के लिए टिकट ख़रीदे. सैकडों मोबाइल कैमरों और मीडिया के दर्जनों कैमरों ने इस अंतिम रेल यात्रा को तस्वीरों में कैद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कोई ट्रेन के साथ,तो कोई स्टेशन पर अपनी ‘सेल्फी’ खींचने में व्यस्त था. वहीँ ट्रेन में सवार कुछ लोगों के लिए यह महज रेल यात्रा नहीं बल्कि स्वयं को इतिहास के पन्नों का हिस्सा बनाने की कवायद थी. 30 साल की सरकारी सेवा पूरी कर चुके बराक वैली एक्सप्रेस के चालक सुनीलम चक्रवर्ती के लिए भी इस मार्ग पर यह अंतिम रेल यात्रा ही थी. भावुक होकर उन्होंने कहा- “पता नहीं अब इस मार्ग पर जीते जी कभी ट्रेन चलाने का अवसर मिलता भी है या नहीं.” दरअसल असम की बराक वैली या भौगोलिक रूप से दक्षिण असम के लोगों की डेढ़ सौ साल तक ‘लाइफ लाइन’ रही मीटर गेज ट्रेनों के पहिए अब थम गए है. रेल मंत्रालय मीटर गेज क...

बिना ‘एन-ई’ के कैसी न्यूज़..!!

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            ‘न्यूज़’ की अंग्रेज़ी परिभाषा से ‘एन-ई’ नदारत हैं क्योंकि न्यूज़ ( NEWS ) की परिभाषा में तो उत्तर (N) ,पूर्व (E) ,पश्चिम (W) और दक्षिण (S) क्षेत्र समाहित हैं. पूर्वोत्तर( NE) के स्थान पर ‘सी’ (Central) यानि मध्य भारत ने, खासतौर पर दिल्ली और आस-पास के क्षेत्रों  ने कब्ज़ा कर लिया है. ख़बरों में देश के इस भूभाग का बोलबाला है. वहीँ, हिंदी में यदि समाचार को परिभाषित किया जाए तो मौटे तौर पर यही कहा जाता है कि समाचार वह है जो नया,ताज़ा और अनूठा हो लेकिन जब हम इस परिभाषा की कसौटी पर देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र को कसते हैं तो अंग्रेज़ी की तरह यह परिभाषा भी खरी नहीं उतरती. दरअसल प्राकृतिक और सांस्कृतिक धरोहर से परिपूर्ण होने के बाद भी इस इलाक़े जब तक देश के राष्ट्रीय और नामी अखबार आ पाते हैं तब तक उनकी ख़बरें न केवल बासी हो जाती हैं बल्कि उनका नयापन भी ख़त्म हो जाता है. तमाम सर्वेक्षणों और अध्ययनों से भी यह बात साबित हो चुकी है कि मीडिया (मुद्रित और इलेक्ट्रानिक) से उत्तर-पूर्व या सामान्य रूप से प्रचलित ‘पूर्वोत्तर’ गायब है.     ...

‘मुकुटधारी बहुरुपिया’....लेकिन है बड़े काम का

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     अन्नानास का नाम लेते ही मुंह में पानी आ जाता है.अपने रसीले और अनूठे स्वाद के अलावा यह अनूठा फल पोषक तत्वों का भण्डार भी है. हम इसे बहुरुपिया और मुकुटधारी भी कह सकते हैं. दरअसल फल बनने से बाजार में बिक्री के लिए आने तक यह लगातार रंग बदलता रहता है और क्रमशः लाल,वैगनी ,हरा और फिर पीला रंग धारण करता है. वहीँ,पत्तों का शानदार मुकुट तो इसके सिर पर सदैव सजा ही रहता है.     अन्नानास की बात हो और असम का उल्लेख न हो ऐसा हो ही नहीं सकता. बंगाली में अनारस, असमिया में माटी कठल और अंग्रेजी में पाइन एप्पल के नाम से विख्यात इस फल की इन दिनों असम और खासकर राज्य की बराक वैली में बहार आई हुई है. मैग्नीशियम ,पोटेशियम,विटामिन सहित कई उपयोगी तत्व भरपूर अन्नानास के ढेर जून-जुलाई और फिर अक्तूबर-दिसंबर तक यहाँ कि हर गली,बाज़ार और नुक्कड़ पर देखने को मिल सकते है.    दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में जाकर भले ही इस रसीले फल के भाव आसमान छूने लगते हों परन्तु बराक वैली में यह बेभाव है. यह बात शायद कम ही लोग जानते होंगे कि बराक वैली में अन्नानास क...

पैरों की जादूगर अर्थात ‘सॉकर क्वीन आफ रानी’

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विश्व कप फ़ुटबाल का जुनून देश भर में साफ़ नज़र आ रहा है  तो फिर सुदूर पूर्वोत्तर में असम इससे अछूता कैसे रह सकता है. फ़ुटबाल का खुमार पूरे असम में समान रूप से छाया हुआ है . यहाँ बच्चों से लेकर बड़े तक फ़ुटबाल के रंग में रंग गए हैं. असल बात यह है कि लड़कियां भी इस मामले में पीछे नहीं है. अब तो वे कई लोगों की प्रेरणा का स्त्रोत बन गयी हैं. गुवाहाटी के पास रानी क्षेत्र की लड़कियां अपनी लगन,निष्ठा और कुछ कर दिखाने की ललक के फलस्वरूप इन दिनों राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में हैं. अत्यधिक गरीब किसान और मजदूर परिवारों की इन लड़कियों के लिए फ़ुटबाल सिर्फ एक खेल न होकर अपनी ज़लालत भरी ज़िन्दगी से बाहर निकलने का एक माध्यम भी है. लड़कियों को उम्मीद है कि इस खेल से वे समाज में सम्मान हासिल कर सकती हैं और फिर इसके जरिए अपने बेहतर भविष्य की नींव रख सकती हैं. गर्मी,उमस और बरसात के बाद भी वे फ़ुटबाल खेलने के लिए अपने गाँव से प्रतिदिन कई किलोमीटर पैदल चलकर गुवाहाटी आती हैं. जो इस खेल के प्रति उनके समर्पण,ललक और जिजीविषा को साबित करता है. खास बात यह है कि वे स्कूल की पढाई और घर के काम-काज के बाद भी फ़ुटबाल क...

माँ और देवी माँ की ‘माहवारी’ में फर्क क्यों...!!!

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         हमारा देश भी अज़ब विरोधाभाषों से भरा है.एक और तो माहवारी के दिनों में बहुसंख्यक भारतीय परिवारों में महिलाओं को नियम-कानून और बंधनों की बेड़ियों में इसतरह जकड़ दिया जाता है कि उन दिनों में उनकी दिनचर्या घर के कोने तक सिमटकर रह जाती है और वहीँ दूसरी ओर,जब असम के कामाख्या मंदिर में देवी रजस्वला होती हैं तो मेला लग जाता है. लाखों लोग रजस्वला होने के दौरान देवी को ढकने के लिए इस्तेमाल किए गए कपड़े और गर्भगृह में जमा पानी को बतौर प्रसाद हासिल करने के लिए जी-जान लगा लेते हैं. घर की माँ और देवी माँ के बीच इतना फर्क?      असम के गुवाहाटी में नीलांचल पर्वत पर स्थित कामाख्या मंदिर और यहाँ हर साल जून माह में लगने वाला अम्बुबाची मेला किसी परिचय का मोहताज नहीं है. यह मंदिर देवी के 51 शक्तिपीठों में खास स्थान रखता है. धार्मिक आख्यानों के अनुसार सती के आत्मदाह से आहत महादेव का क्रोध शांत करने और उनके कोप से संसार को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने जब सती के शव को सुदर्शन चक्र से काटा था तब इस स्थान पर उनकी योनी गिर गयी थी इसलिए यहाँ मूर्ति के स...

शिक्षक क्यों नहीं बनना चाहते अव्वल आने वाले बच्चे....!!

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                   हाल ही में सीबीएसई सहित देश के विभिन्न राज्य शिक्षा बोर्ड के परीक्षा परिणाम घोषित हुए. हमेशा की तरह अव्वल आए छात्र-छात्राओं ने अपने भविष्य के सुनहरे सपने मीडिया के साथ साझा किए और मीडिया ने भी इन सपनों को सुर्खियाँ बनाने से कोई परहेज नहीं किया. शायद अन्य विद्यार्थियों को प्रेरित करने के लिए इसे उचित भी ठहराया जा सकता है. ख़बरों से ही पता चला की मेधावी बच्चों में से कोई नामी आईआईटी में जाना चाहता है तो कोई आईआईएम में,किसी के सपने डाक्टर बनने में बसे हैं तो कोई कारपोरेट जगत के तख्तो-ताज के करीब पहुँचने की ख्वाहिश रखता है. देश भर की प्रावीण्य सूचियों में स्थान बनाने वाले बच्चों के सपनों में मुझे एक बात सबसे ज्यादा खटकी वह यह थी कि कोई भी मेधावी बच्चा भविष्य में शिक्षक नहीं बनना चाहता.            शिक्षा प्रदान करना आज भी सबसे गुरुतर दायित्व है और शिक्षक ही वह धुरी है जो बिना किसी जाति,धर्म,संप्रदाय और आर्थिक स्थिति के मुताबिक भेदभाव और पक्षपात किए बिना सभी को साम...

राजनीति क्यों, जननीति क्यों नहीं...!!

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लोकतंत्र की आत्मा जनता की संप्रभुता है तो फिर लोकतान्त्रिक व्यवस्था के कर्ता-धर्ता ‘राजनेता’ कैसे हो सकते हैं और उनके द्वारा जनता के लिए बनाई जाने वाली नीतियों और उनके क्रियाकलापों को हम ‘राजनीति’ क्यों कहते हैं? चूँकि एक बार फिर हम लोकतंत्र के सबसे बड़े अनुष्ठान में भागीदार बनने जा रहे हैं और तमाम दल अपने अपने स्तर पर जनता की नज़रों में स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने में जुटे हैं. ऐसे में यह सवाल दिमाग में आना लाज़िमी है कि जनता के लिए काम करने वाले या जनता के प्रतिनिधि ‘जनप्रतिनिधि’ कहलाने के स्थान पर ‘राजनेता’ क्यों बन गए. अमेरिकी राष्ट्रपति और चिन्तक अब्राहम लिंकन द्वारा दी गयी एवं अब तक लोकतंत्र की सर्वमान्य परिभाषा के मुताबिक “ लोकतंत्र जनता द्वारा , जनता के लिए , जनता का शासन है".   लोकतंत्र   शब्द का शाब्दिक अर्थ ही है- "लोगों का शासन या     एक ऐसी शासन व्यवस्था जिसमें जनता अपना शासक खुद चुनती है. जब लोकतंत्र के सम्पूर्ण यज्ञ का उद्देश्य ही लोक,जन या फिर प्रजा केन्द्रित है तो फिर यह राजनीति,राजनेता और राजनीतिक दल में कैसे बदल गया. कायदे से तो इन्हें जननीति,जनन...