मंगलवार, 18 मई 2010

वाकई २०० साल जीने लगा आदमी तो क्या होगा?

बाबा रामदेव का कहना है की यदि लोग नियमित योग करें और खान-पण में मर्यादित व्यव्हार करें तो १५० से २०० तक जीने की कल्पना को साकार किया जा सकता है.रामदेव ने तो आजतक न्यूज़ चैनल के साथ बातचीत में ये दावा भी किया कि वे खुद कम से कम १५० साल तक जीकर दिखायेंगे . आम लोगो के लिए मौजूदा दौर में २०० साल तक जीने की कल्पना किसी स्वप्न जैसी है क्योंकि अभी तो इंसान को ये भरोसा भी नहीं है कि वो कल का सूरज भी देख पायेगा कि नहीं और यदि आप दिल्ली जैसे किसी महानगर में रहते हैं तो फिर आपकी आयु वहां के प्रदूषण,शोर और ब्लू लाइन बसों के चालकों की मर्ज़ी पर निर्भर करेगी.शयद बाबा रामदेव भी ये कारण जानते हैं तभी तो उन्होंने कार बनाने वाली कम्पनिओं की तर्ज़ पर "आदर्श स्थितिओं "वाली शर्त जोड़ दी है.अक्सर कम्पनिया भी तो अपने दावों पर यही तर्क देती हैं कि आदर्श स्थितिओं में ही दावा किया गया माइलेज मिलेगा.वैसे बाबा रामदेव ने अब तक जो भी दावे किये हैं वे बिलकुल सही निकले हैं और अब तो हमारे तथाकथित तर्कवादी और डॉक्टर भी उनके दावो को सही बताकर योग-कपालभाती-अनुलोम विलोम और भ्रामरी करने लगें हैं इसलिए यदि बाबा कह रहे हैं कि इंसान २०० साल तक जी सकता है तो इस बात में भी कुछ न कुछ दम ज़रूर होगा!
सोचिये यदि वास्तव में हम १५०-२०० साल तक जीने लगे तो क्या हाल हो जायेगा जैसे सर्कार को रिटायर्मेंट कि उम्र ६० से बढाकर १२० या १८० साल तक करनी पड़ेगी और फिर नौकरी और छोकरी(विवाह) पाने कि आयु भी बढकर दो गुना से ज्यादा हो जाएगी.फिर लोग कहते सुने जायेंगे कि बिटिया अब साठ कि हो गए है इसलिए जल्दी से कोई अच्छा सा ६५-७० साल का लड़का देखकर उसके हाथ पीले करने हैं. इसीतरह दादा-दादी तथा नाना-नानी नाती-पोते नहीं बल्कि पंती और उसके बाद की कई पीढी के विवाह और बच्चे देखने की बात करेंगे.सबसे ज्यादा मारामारी तो राजनीती में होगी क्योंकि कोई नेता रिटायर ही नहीं होगा.अरे जब आम आदमी ही १५० साल जीने लगेगा तो हमारे नेताओं की उम्र इससे ज्यादा ही होगी.फिर मनमोहन सिंह सालो-साल प्रधानमंत्री बने रहेंगे और सोनिया-गडकरी-लालू और मुलायम जैसे नेता सैकड़ों साल तक अध्यक्ष...कुर्सी की लड़ाई इसी तरह और कठिन होती जाएगी तो तैयार रहिये भविष्य की इस जद्दो-ज़हद के लिए .....

सोमवार, 17 मई 2010

हर साख पे उल्लू बैठा है अंजामे गुलिश्तां क्या होगा..

यात्रिओं को यूँ ही मरने के लिए छोड़ दिया जाता है?मेडिकल शिक्षा का स्तरसुधरने की ज़िम्मेदारी रखने वाले केतन देसाई खुद ही इस स्तर को बिगाड़ने के लिए रिश्वत लेते पकडे जाते हैं ,तकनीकी शिक्षा परिषद् में भी ऐसा ही हो चुका है, दिल्ली के मंत्री को सुरक्षा जांच से गुजरना पड़ा तो उन्होंने होटल पर छापे पड़वा दिए,आई पी एल के आयोजक ही टीमों के साथ मिलकर घोटाला कर रहें हैं और हमारे केन्द्रीय मंत्री कभी चीनी तो कभी दाल के दाम बढवा रहे हैं ,कोई संचार तंत्र को बेचने पर आमादा हैं और कुछ मंत्रिओं के लिए प्रधानमंत्री कोई मायने नहीं रखते इसलिए वे कहीं भी-कभी भी कुछ भी कह बैठते हैं और ये भी नहीं सोचते की इससे देश की प्रतिष्ठा पर क्या असर हो सकता है.इन सब के लिए "में" ज्यादा मायने रखता है बजाय "हम' या अपने देश के! इसलिए कभी-कभी लगता है-क्या होगा हमारे देश का? क्या चुचाप रहते हुए देश को ऐसे लोगों के भरोसे छोड़ देना ठीक है या फिर इन्हें सुधरने के लिए हम सब को मिल-जुलकर कुछ करना चाहिए?आम आदमी आखिर किस पर भरोसा करे?भ्रष्ट नेताओं पर?काली कमाई में जुटे आला अफसरों पर? गरीब जनता के नाम पर पैसा पीट रहे स्वयं सेवी संगठनों पर या फिर आम जनता को लूटने के लिए तैयार बैठे पुलिस विभाग पर?
अस्पताल से डॉक्टर का गायब होना आम बात है?पुलिस का रिश्वत लेना पेशे का हिस्सा हो गया है?नेताओं का आश्वासन देना दर्म बन गया है और दर्म के ठेकेदारों की बैटन में आकर आपस में लड़ना हमारी नियति?देश पर क़र्ज़ बाद रहा है और नेताओं के स्विस बैंकों में खाते...आम आदमी दाल-रोटी के लिए दिन-रत संघर्ष कर रहा है और चंद लोग अपने कुबेर के खजाने के बाद भी आपस में लड़ रहें हैं.महंगी और नई करें रोज सड़कों से बलात्कार कर रहे हैं और बेचारा आम इंसान साईकिल भी नहीं चला पा रहा .महानगरों में लोग बसों में ठुसे जा रहें हैं परचंद फीसदी कार सवारों को बीआरटी से दिक्कत है क्यूंकि यह उनका रास्ता कम कार रहा है उन्हें इस बात की परवाह नहीं है की इससे कुल जनसँख्या के ७० फीसदी बस में चलने वाले आम लोगों को राहत मिलेगी .सब को आपनी पड़ी है ...देश के बारे में सोचना समय की बर्बादी हो मन जाने लगा है?ऐसे में क्या होगा हमारे देश का....?सोचिये..?

गुरुवार, 13 मई 2010

आखिर कुत्तों की भी तो कोई इज्ज़त है?

कुत्ता समाज इन दिनों बहुत नाराज़ है खासतौर पर भाजपा के मुखिया नितिन गडकरी के खिलाफ तो वे मानहानि का मुकदमा दायर करने के मूड में हैं.कुत्ता समाज का कहना है की इन नेताओं ने हमें समझ क्या रखा है.कुत्ता समाज की युवा शाखा ने तो चेतावनी दे डाली है की यदि उनके विरुद्ध यह दुष्प्रचार बंद नहीं किया गया तो वे सीधे कारवाई करने के लिए मजबूर हो जायेंगे.युवा कुत्ते तो अब मरने-मारने(पढ़े काटने)के मूड में हैं पर समाज के बुजुर्गो ने उन्हें समझा बुझाकर रोक रखा है.समाज की आपत्ति उनकी इंसानों से तुलना को लेकर है.कुत्ता समाज का मानना है की इंसानों तक तो फिर भी ठीक था लेकिन नेताओं से तुलना करके तो अब हद हे पर कर दे गए है.नितिन गडकरी के बयान ने कुत्तों की नाराज़गी में आग में घी डालने का कम किया है.यह बताने की ज़रूरत नहीं है की गडकरी ने लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह को सोनिया गांघी के तलवे चाटने वाले नेता करार दिया है.कुत्तो की राय है की टुच्ची राजनीती में हमारा नाम नहीं घसीटा जाय ,यदि नेताओं को उपमा ही देने है तो किसी और जानवर का इस्तेमाल करें और वैसे भी उन्ही(नेताओं) के बीच में इतने उपमाए/तुलनाए मौजूद हैं की किसी दुसरे से तुलना करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी.कुत्ता प्रमुख ने इस बात को स्वीकार किया की हम तलवे चाटते हैं परन्तु यह हमारा पेशा और समाज को मिला प्रकर्ती प्रदत्त गुण है .हम जिसके भी तलवे एक बार चाट लेते हैं जीवन भर उसके साथ वफादारी निभाते हैं नेताओं की तरह बार बार पाला नहीं बदलते.नेता तो मौका पड़ते ही जिस के तलवे चाट रहे हैं उसी की पीठ में छुरा घोंप देते हैं लेकिन हमारे साथी हर हाल में वफ़ादारी निभाते हैं.कुत्ता समाज का कहना है की पहले फिल्मों में नायक खलनायक को कुत्ता कहकर अपमानित करता था .उन्हें फिल्म शोले का वो संवाद भी याद है "कुत्ते में तेरा खून पी जाऊंगा ".अब बताइए पहले तो कुत्ता करकर गाली देते हैं और फिर हमारा ही खून पीने की बात करते हैं...ये कहाँ का न्याय है.कुत्ता समाज नेताओं के अलावा अभिनेता धर्मेन्द्र और उनके बेटे सनी देओल से भी बहुत नाराज़ है क्योंकि इन दोनों ने भी उन्हें सबसे ज्यादा बदनाम किया है.कुत्ता समाज को अपनी इमानदारी,वफादारी और तलवे चाटने की कला पर गर्व है इसलिए वे इनपर कापीरायट लेने की तैयारी कर रहे हैं ताकि कई नेता इसका फायदा उठाकर अपनी नेतागिरी न चमका सके और इन शब्दों का इस्तेमाल किसी को अपमानित करने के लिए न कर सके.आखिर कुत्तों की भी तो कोई इज्ज़त है?

बुधवार, 12 मई 2010

माननीयों को चाहिए बस मकान....फिर क्यों करें काम

हमारे परमपूज्य और आदरणीय "माननीयों" को तो बस मकान चाहिए ,कैसे भी ?किसी भी नियम को तोड़कर या फिर कोई भी नया नियम बनाकर .माननीयों से मेरा आशय हमारे सांसदों और विधायकों से है.चूकिं बार बार संसद-विधायक लिकने में टाइम खर्च होगा और फिर इनका सम्मान भी काम हो सकता है इसलिए माननीय शब्द से काम चला रहा हूँ.मकान के लिए हमारे माननीय काम की भी परवाह नहीं करते फिर वह काम देश की प्रगति से ,सरकार चलने से या आम जनता की भलाई से ही क्यों न जुड़ा हो? यह बात अलग है की जब इनके अपने काम की बारी आती है तो सब मिल-जुलकर सारे गिले शिकवे भूलकर और समय की परवाह न करते हुए भी उसे पूरा करके ही दम लेते हैं मसलन अपना वेतन -भत्ते बढवाना .जहाँ तक हमारे-आपके हितों से जुड़े काम की बात है जैसे महंगाई ,भ्रष्टाचार महिला आरक्षण,नक्सली हमले,आतंकवाद जैसे विषयों पर चर्चा करनी और कानूनी उपाय करना हो तो ये आपस में फिजोल की बहस कर सारा समय ख़राब कर देते हैं.ये मेरी भड़ास नहीं बल्कि संसद के आंकड़े हैं जिनमे बताया गया है की इन माननीयों ने संसद के बजट सत्र का किस तरह बेड़ा गर्क किया.२२ फरवरी से लेकर ७ मई तक चले इस सत्र में कुल३८५ घंटे कारवाई होनी थी पर इनके हंगामे के कारण ११५ घंटे ख़राब हो गए.इसमें से ७० घंटे हमारे चुने हुए जन प्रतिनिधियों ने बर्बाद किये तो ४५ घंटे मनोनीत अर्थात राज्यसभा से सदस्यों ने .इसके फलस्वरूप २७ में से मात्र ६ विधेयक ही सरकार पास करा पाए और बाकी अगले सत्र तक लटक गए.संसद में बर्बाद हुए ११५ घंटों का यदी हिसाब लगाया जाये तो वह करोड़ नहीं अरबों रूपए होता है पर इनका का जाता है इन्हें तो मकान चाहिए और मकान भी ऐसे-वैसे नहीं बल्कि लाखों रूपए की कीमत वाले,शानदार लोकेशन में स्थित मकान चाहिए वे भी सस्ती कीमत पर जैसे कॉमनवेल्थ खेलगांव ,दिल्ली में बन रहे मकान या फिर म्हाडा (मुंबई)के आलिशान मकान.दरअसल सारे माननीय मकान के मामले में दलगत राजनीति से ऊपर उठकर एक साथ हैं इसलिए कोई उनका कुछ बिगाड़ भी नहीं सकता.हिंदी में प्रचलित है न के "चोर-चोर मौसेरे भाई"और "सारे कुयें में ही भंग घुली हो तो फिर किसका दोष" .ऐसा ही एक और मुहावरा है " समरथ को नहीं दोष गुसाईं "...तो फिर आओ सरकारी संपत्ति लुटते देखें !

सोमवार, 10 मई 2010

बेटी की हत्या और माँ की पूजा:ये कैसा मदर्स डे

हम भारतीय लोग दिखावे के मामले में शायद दुनिया में सबसे अव्वल हैं तभी तो बेटी को तो पैदा होते ही या जन्म लेने के पहले ही मार देते हैं और मदर्स डे इतनी धूमधाम से मानते हैं मानो हमसे बड़ा माँ का भक्त कोई और नहीं है.मेरे इस बात से शायद अधिकतर लोग इत्तेफाक रखते होंगे की दिल्ली सहित पंजाब,हरियाणा और उन तमाम राज्यों में जहाँ पुरुष-महिलाओं के बीच अंतर सबसे ज्यादा है और जहाँ सबसे ज्यादा भ्रूण हत्या का मामले सामने आ रहें हैं वाही के लोग बढ-चढ़कर मदर्स डे मना रहे हैं. हमारी साड्डी दिल्ली में तो कार्ड और गिफ्ट गैलरिओं में बीते कई दिनों से मेला सा लगा है ..हर मॉल में दुकाने सजी हैं ..होटलों में उस माँ के नाम पर नई-नई डिशे परोसी और भकोसी जा रहे हैं जिसे शायद सामान्य दिनों में पानी के लिए भी नहीं पूछते.पूरा बाज़ार ममतामय है माँ की ममता में .वही दूसरी और घर लौटते ही इनमे से कई लोग अपनी पत्नी (माँ का इक और रूप ) को कोसने,गरियाने और लतियाने में पीछे नहीं रहते . कुछ ऐसे भी हैं जो शायद मदर्स डे के दिन ही अपनी पत्नी को डॉक्टर को दिखाकर ये सुनिश्चित कर आयें हो की उसके पेट में बेटा ही है और यदि बाती है तो डॉक्टर से उसके सफाई का समय निर्धारित करवा आयें होंगे.ये सब करने के बाद भी वे मदर्स डे मनाने में कई कमी नहीं छोड़ रहे होंगे?आखिर माँ आती कहाँ से है-आसमान से ,पहाड़ से या फिर समुद्र से निकलती है ?अरे आज की बेटी ही तो कल किसी की माँ होगी ?तो फिर हम कौन होते हैं सृष्टि के इस चक्र को बदलने वाले?यदि हम्मरे पूर्वजों ने भी यही किया होता तो आज हमारा अस्तित्व ही नहीं होता?जब हमने माँ का पूरा लाड-प्यार पाया है तो नई पीढी को इससे वंचित रखने वाले हम कौन होते हैं?

मदर्स डे तो हमने धूमधाम से मना लिया लेकिन यह जानने की कोशिश भी की है की हम्मरे देश में हर १००००० प्रसव के दौरान २५४ माएं धाम तोड़ देती हैं क्यूकि उन्हें समय पर इलाज नहीं मिल पता .इसका मतलब है की हर आठवे मिनट में बच्चे को जन्म देते समय इक माँ की मौत!इस तरह देश में हर साल ६५००० महिलाओं की जान चली जाती है .विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है की भारत में इस स्थिति में सुधार की २०७६ तक कोई सम्भावना नहीं है क्यूकि हमारी सरकार के पास हथियार खरीदने के लिए तो पैसा है पर इन महिलाओं की बेहतरी के लिए नहीं है.हमारे पास भी मदर्स डे की तरह हर छोटा-बड़ा पर्व मनाने के लिए तो समय और भरपूर पैसा है पर माँ के इलाज के नाम पर जेब खाली है .तो फिर मदर्स डे के नाम पर ये ढकोसला क्यों?

रविवार, 9 मई 2010

निरुपमा के बहाने चैनल चर्चा

टी वी चैनल पर मेरे साथ बैठकर निरुपमा पाठक मामले दे सम्बंधित न्यूज़(?) देख रही मेरी आठ साल की बेटी की बेटी ने पूछा-‘पापा आप और मम्मा तो ऐसा नहीं करोगे?” सवाल सुनकर मेरे तो होश उड गए.फिर लगा जब मेरे बेटी ऐसा सोच सकती है तो और भी बच्चों के मन में यह सवाल ज़रूर आया होगा?कई तो और भी चिती उम्र के बच्चे होंगे?क्या मीडिया को बालमन से इसतरह खिलवाड़ करने देना चाहिए?इसलिए इस विषय पर कुछ लिखने और आप सबसे अपने मन की बात साझा करने से अपने आपको रोक नहीं पाया...

इन दिनों टी वी चैनेलों में निरुपमा को न्याय दिलाने कि होड़ मची है –हमारी नीरू,बेचारी नीरू,निरुपमा को न्याय जैसे लुभावने शीर्षकों के ज़रिए खबर बेचने का बाजार लगा है.इस होड़ में हर चैनल जज बन गया है.अभी नीरू कि मौत कि जांच ठीक से रफ़्तार भी नहीं पकड़ पाई है और हमारे “खबर जासूस” रोज नया फैसला सुना रहे हैं.कभी नीरू कि माँ तो कभी उसका प्रेमी(शायद पति?) के सर हत्या का फैसला सुनाया जा रहा है.हत्या जैसे जघन्य मामले को भी ऑनर किलिंग कहा जा रहा है.इकतरफा ख़बरों का यह आलम है कि इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाते चंद कम उम्र के बच्चों,इनमें भी ज़्यादातर प्रियाभान्शु के दोस्त थे की राय जानकार आधा घंटे का बेशकीमती वक्त जाया कर दिया गया जबकि पत्रकारिता के सिद्धांतों के मुताबिक दूसरे पक्ष की बात शामिल करना भी उतना ही ज़रुरी है.ऐसा भी नहीं है कि इन चैनलों के पास नीरू के घर जाने के साधान नहीं हैं जब वे माइकल जैक्सन को दिखाने के लिए अमेरिका और इंग्लैंड जा सकते हैं तो झारखंड कितना दूर है?

इससे भी बड़ा सवाल यह है कि इस तरह के कार्यक्रमों को टी वी पर देख रहे लाखों बच्चों और उनके माता-पिता की दशा क्या होगी ?क्या उनके मन में आपस में दुराव पैदा नहीं हो जायगा?इन लोगों से जुड़े परिवारों,उनके रिश्तेदारों पर क्या बीत रही होगी? जो नुकसान छोटे परदे की महारानी एकता कपूर ने अपने सास-बहू मार्का धारावाहिकों से हमारे समाज और परिवारों का पांच साल में किया था वही नुकसान टी वी पर प्रसारित इस तरह कि ख़बरें चंद मिनटों में कर दे रही हैं.टी वी चैनल नीरू कि मौत को भी खाफ पंचायतों के ऊल ज़लूल फैसलों से जोड़कर दिखा रहें हैं.कुछ यही हाल इन्होंने नॉएडा की आरुषि के मामले का किया था.

क्या बिना सच जाने माँ-बाप और बच्चों के बीच ऐसा अविश्वास पैदा करना उचित है?टीआरपी की होड़ में कुछ भी दिखा-सुना रहे इन चैनलों की समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनतीं?वैसे भी मामले कि जांच करना या फैसला देना तो न्यायपालिका का काम है,हाँ मीडिया उसके लिए दबाव ज़रूर बना सकता है पर सीधे-सीधे फैसला सुना देना तो मीडिया का काम नहीं है?अब भी टी आर पी की यह जंग नहीं रुकी तो भविष्य के स्थिति का अंदाज़ा लगाया जा सकता है ?

नोट: मेरी बात का कुछ और मतलब निकला जाय या फिर बात का बतंगड बनाया जाय इसलिए मैं साफ़ कर देना चाहता हूँ कि पत्रकार बिरादरी का सदस्य होने के नाते मुझे भी पत्रकार निरुपमा पाठक कि मौत का उतना ही दुःख है जितना उसके साथिओं को होगा.इस टिप्पडी का उद्देश्य निरुपमा कि असामयिक मौत के बाद टी वी चैनलों पर मचे तमाशे और उसके दुष्परिणामों कि ओर इशारा करना है.

शनिवार, 8 मई 2010

मेरी माँ .....मम्मा





शुरुआत दो अलग अलग तेवरों वाले उदाहरणों से ...

प्रथम :एक बार स्वामी विवेकानंद से किसी ने पूछा कि हमेशा माँ को इतना महत्त्व क्यों दिया जाता है तो उन्होंने उस व्यक्ति दे कहा कि ये दो किलो का पत्थर लो और इसे अपने पेट पर बांधकर शाम तक घूमों.जब तुम वापस आओगे तब मैं इसका उत्तर दूँगा.शाम को जब वह व्यक्ति वापस आया तो उसकी हालत खराब थी उसने कहाँ स्वामीजी आपकी शर्त ने तो मेरे प्राण ही निकल दिए तब विवेकानंद ने कहाँ सोचो यदि इस भार  के साथ दिन भर में तुम्हारी हालत खराब हो गई तो तुम्हारी माँ ने तो इस भार  को पूरे नौ माह तक खुशी –खुशी बर्दाश्त किया है इसलिए माँ कि महानता को सबसे ऊंचा दर्ज़ा हासिल है.

द्वितीय:एक अँगरेज़ से भारतीय ने पूछा कि मेरे तीन भाई बहन हैं ,तुम्हारे कितने भाई-बहन हैं तो अँगरेज़ ने उत्तर दिया एक भी नहीं परन्तु मेरी एक माँ से चार पिता और मेरे पहले पिता से पांच माँ ज़रूर हैं .

ये दोनों उदाहरण दो भिन्न भिन्न संस्कृतिओं को अभिव्यक्त करते हैं.इसलिए भले ही मदर डे कि शुरुआत पश्चिमी देशों से हुई हो लेकिन इसका महत्त्व हम भारत वासी ही जानते हैं.भारत से याद आया कि भारत कुमार के नाम से चर्चित अभिनेता मनोज कुमार ने तो अपनी एक फिल्म में बकायदा गीत के ज़रिए माँ का महत्त्व बताया है.याद है वो मशहूर पंक्तियाँ जिनमें उन्होंने बताया था कि हमारे देश में नदियों को भी माता कहकर बुलातें हैं.वाकई हम गंगा को गंगा माँ ही तो कहतें हैं और कहें भी क्यों न जब वो हमारी पूरी गंदगी  को अपने में समाहित कर लेती है.दरअसल माँ भी तो यही करती है हमारी सारी गलतियों को माफ कर हमें अपने आँचल की छाँव  प्रदान करती है.तो हुई न माँ सबसे महान.मदर डे के बहाने ही सही क्यों न माँ के लाड़-प्यार,मनुहार,मीठी लोरिओं,प्यार से पगी बोलियों और स्वादिष्ट भोजन को याद कर लें.माँ के इस क़र्ज़ को चुकाना तो नामुमकिन है फिर भी उसकी खुशी कि खातिर कम से कम एक दिन के लिए ही हम अपना आडम्बर,दिखावा और बड़े हो जाने का एहसास त्याग दें और फिर उसके आँचल का सहारा ले लें .शायद इससे माँ को जो खुशी मिलेगी वह खुशी उसे हम मॉल कि मंहगी साड़ी,इत्र और नकलीपन से भरे वातावरण में खाना खिलाकर भी नहीं दे सकते.

माँ के बारे में मशहूर शायर मुनव्बर राणा ने लिखा है:

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती

बस एक माँ है जो मुझसे खफा नहीं होती

मेरी ख्वाहिश है कि में फिर से फरिश्ता हो जाऊँ

माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि फिर से बच्चा बन जाऊँ

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...