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तो हो जाए एक एक समोसा... ।।

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‘समोसा’ सुनते ही मुंह में पानी आ जाना स्वाभाविक है। यह तिकोना, मोटा और भूरा सा व्यंजन अपनी कद काठी के कारण अपनी बिरादरी में अलग ही नजर आता है। अपने रूप रंग में भले ही यह उन्नीस बैठता हो लेकिन स्वाद में पूरा बीस है और शायद यही कारण है कि तेल की कढ़ाई में घंटों उछलकूद करने वाला गरमागरम समोसा हर उम्र के लोगों की पहली पसंद है। शायद ही कोई अभागा हो, जिसे समोसा खाने का मौका न मिला हो क्योंकि यह तो हर छोटी-बड़ी पार्टी की शान है....लेकिन क्या आपको पता है कि आपके जन्मदिन की तरह आपके प्रिय समोसे का भी एक दिन है जिसे विश्व समोसा दिवस (World Samosa Day) जाता है।...शायद कम ही लोगों को यह पता होगा कि दुनिया भर में 5 सितम्बर को विश्व समोसा दिवस मनाया जाता है। हमारे-आपके प्रिय समोसे का बस यह दुर्भाग्य है कि उसका दिन ‘शिक्षक दिवस’ के साथ पड़ता है और गुरुओं को समर्पित इस दिन की गरिमा-भव्यता और दिव्यता में समोसा समर्पित शिष्य की भाँति अपने दिन को कुर्बान कर देता है।...इसलिए भले ही वह शिक्षक दिवस की हर दावत में डायनिंग टेबल पर पूरी शान और गर्व से इठलाता हो लेकिन अपना दिन खुलकर नहीं माना पाता। शिक्षक दिवस और ...

महबूब शहर भोपाल की चुटीली दास्तां है- ‘भोपाल टॉकीज_शहर की किस्सागोई’

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सत्तर के दशक की फिल्म ‘शोले’ का यह डायलॉग बहुत मशहूर हुआ था कि ‘हमारा नाम भी सूरमा भोपाली ऐसई नई है..,’ सोचिए, जब भोपाल से जुड़े एक संवाद ने देशभर में इतनी लोकप्रियता हासिल की थी तो अगर पूरे भोपाल के मिजाज़ को जानने का मौका मिल जाए तो वह कितना जबरदस्त होगा। वैसे भी, कहते हैं न कि सयाने लोग एक चावल से अंदाजा लगा लेते हैं कि बिरयानी कैसी पकी होगी। जाने माने संचार कर्मी, लेखक और व्यंग्यकार संजीव परसाई की नई किताब ‘भोपाल टॉकीज: शहर की किस्सागोई’ भी भोपाली बिरयानी की तरह लज़ीज़ है। यह हमें इस महबूब शहर के हर जायके से रूबरू कराती है। जब भी भोपाल की बात चलती है तो इस शहर को न केवल अपनी खूबसूरती के लिए बल्कि यहां के लोगों की जिंदादिली और स्वभाव की सहजता के लिए जाना जाता है।  संजीव ने इसी सरलता को केंद्र में रखकर करीने से तानाबाना बुना है। मूल भोपाली अपनी चटकारेदार भाषा,चुटीली शैली और हंसी मज़ाक में करारा व्यंग्य करने के लिए मशहूर हैं इसलिए जब आप ‘भोपाल टॉकीज: शहर की किस्सागोई’ किताब के पन्ने पलटना शुरू करते हैं तो धीरे-धीरे आप शहर की संस्कृति, किस्सागोई की परंपरा और शहर की आबोहवा में गोता ...

टोपियों की निराली परम्परा

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‘टोपी पहनाना’, ‘इसकी टोपी उसके सिर’ और ‘टोपी उछालना’ जैसे तमाम मुहावरे टोपियों की नकारात्मक छवि गढ़ने में पीछे नहीं हैं लेकिन ये बात राजनीतिक क्षेत्र की टोपियों तक ही सीमित हैं क्योंकि यदि बात हिमाचल प्रदेश की रंग बिरंगी,आकर्षक और लुभावनी टोपियों की हो तो आप भी ये तमाम मुहावरे भूलकर टोपी पहनने में पीछे नहीं रहेंगे। हिमाचल यानि देवभूमि के प्राकृतिक सौंदर्य की ही तरह यहां की टोपियां भी सबसे अलग हैं। हिमाचल प्रदेश का सौंदर्य प्रकृति, संस्कृति और शांति का एक अनुपम संगम है। हिमालय की गोद में बसा यह राज्य अपनी बर्फ से ढकी चोटियों, हरी-भरी घाटियों, झरनों, नदियों और प्राचीन मंदिरों और विविध संस्कृति के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता और सांस्कृतिक धरोहर पर्यटकों को अपनी ओर खींच लेती है। ब्यास, सतलुज, चिनाब और रावी जैसी नदियाँ यहां फिज़ाओं में संगीत घोलती हैं तो आध्यात्मिक परंपराएं, सांस्कृतिक सौंदर्य, लोक संस्कृति,जलवायुवीय आकर्षण,शांत वातावरण,बर्फ से ढके पहाड़ और हरे-भरे जंगल मनमोहक दृश्य प्रस्तुत करते हैं।  तमाम खूबियों के बाद भी हिमाचल में टोपी ऐसी खास चीज हैं जो बिना कुछ कहे...

समय से पहले आई खूबसूरती से क्यों भयभीत हैं पहाड़ के लोग!!

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हिमाचल प्रदेश या पूरे हिमालय में सौंदर्य के प्रतीक से इन दिनों क्यों भयभीत है लोग? क्यों उन्हें यह सुंदरता रास नहीं आ रही ? खूबसूरती से क्यों नाखुश है पर्वतीय इलाकों के रहवासी और प्राकृतिक सौंदर्य के उपासक क्यों नहीं चाहते असमय प्रकृति की नेमत? ये ऐसे कुछ सवाल हैं जिनके जवाब हमें केवल पर्वतीय इलाकों के जानकार ही दे सकते हैं। आखिर, कोई तो बात होगी जिसके फलस्वरूप यहां के लोगों को प्राकृतिक सुंदरता पसंद नहीं आ रही? हम बात कर रहे हैं कि पर्वतीय राज्यों के सबसे खूबसूरत वरदान बुरांश की। बुरांश का पेड़ और इसके फूल हिमाचल प्रदेश सहित देश के तमाम पर्वतीय राज्यों के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और प्राकृतिक संस्कारों से जुड़े हैं। बुरांश न केवल खूबसूरत है बल्कि सेहत की अनेक नेमतों से परिपूर्ण भी है। यह अर्थव्यवस्था का भी एक अनिवार्य हिस्सा है। बुरांश के महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि आईआईटी मंडी और इंटरनेशनल सेंटर फॉर जेनेटिक इंजीनियरिंग एंड बायोटेक्नोलॉजी (आईसीजीईबी) के शोधकर्ताओं ने  बुरांश की पंखुड़ियों में मौजूद फाइटोकेमिकल्स की पहचान की है जो कोविड-19 वायरस को रोक सकते हैं। एक अध...

6 डिग्री तापमान में गर्मी..भगवान बचाए!!

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यदि आप अपने शहर की 40-42 डिग्री की गर्मी में 20 से 22 डिग्री पर एसी चला कर जीवन का आनंद ले रहे हों और तभी आपका कोई दोस्त या परिचित कमरे में आए और इतने कम तापमान पर भी कहे कि यार कितनी गर्मी है तुम्हारे यहां..तो पक्का मान लीजिए वह हिमाचल प्रदेश से आया है क्योंकि, 22 डिग्री तापमान में गर्मी बस यहीं के लोगों को लग सकती है।  वाकई, शिमला,कुफरी और ठियोग जैसे तमाम इलाकों में इन दिनों कुछ ऐसा ही तापमान है और यहां के लोगों के लिए गर्मी है। वे मस्त शर्ट और टीशर्ट में घूम रहे हैं। दिन में धूप से बचने के लिए महिलाएं छाता लेकर निकलती हैं जबकि अपन जैसे मैदानी इलाकों के लोग स्वेटर और शाल में भी ठंड से कांपते हैं। स्थानीय लोगों के मुताबिक रात में जरूर थोड़ी ठंड हो जाती है जबकि असलियत यह है कि यहां दिन का तापमान 22 से 24 और शाम से भोर तक तो 6 डिग्री और उससे भी कम हो जाता है।  मौसम विभाग ने भी इस साल यहां एकाध दिन लू चलने की आशंका जाहिर की है जबकि यहां के निवासी भूपिंदर सिंह हेट्टा का कहना है कि अब शिमला में ठंड बची कहां है, दिसंबर तक तो गर्मी पड़ती है..बस, दो महीनों की बर्फ पड़ती थी, वह भी पता...

बुरांश में आग भी है और यौवन का फाग भी..!!

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देश के मैदानी इलाकों में इन दिनों जहां पलाश और गुलमोहर दहक रहे हैं, वहीं पहाड़ों पर बुरांश अपनी मुस्कराहट से लालिमा बिखेर रहा है। हिमाचल प्रदेश में पेड़ों पर झुंड के झुंड बुरांश पहाड़ों को खूबसूरत बना रहे हैं। देश के अन्य पर्वतीय राज्यों का हाल भी शायद ऐसा ही होगा। पहाड़ों पर वैसे तो देवदार का कब्जा है और वे अपनी ऊंचाई से कई बार पहाड़ों के शिखर को भी बोना साबित करते नजर आते हैं लेकिन देवदार के बीच से झांकता लाल रंग का बुरांश खूबसूरती से हमारे दिल में उतर जाता है। बुरांश पर कवियों ने खूब कलम चलाई है। सुप्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत ने तो कुमाऊंनी में लिखा है: ‘सार जंगल में त्वे जस क्वे न्हां रे बुरांश,  खिलन क्ये छै जंगल  जस जलि जा, सल्ल छ, दयार छ,  पई छ, अयार छ,  सबन में पुंगनक भार छ,  पर त्वी में दिलै की आग छ,  त्वी में जवानिक फाग छ।’ इसका तात्पर्य है कि बुरांश तुझ सा सारे जंगल में कोई नहीं है। जब तू फूलता है, सारा जंगल मानो जल उठता है। जंगल में और भी कई तरह के वृक्ष हैं पर एकमात्र तुझमें ही दिल की आग और यौवन का फाग दोनों मौजूद हैं। पहाड़ी इलाकों की प्रकृत...

भारत में रेडियो की विकास यात्रा

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भारत में रेडियो का इतिहास एक महत्वपूर्ण और दिलचस्प यात्रा है। इसकी शुरुआत करीब सौ साल पहले एक छोटे से प्रयोग से हुई थी ,  लेकिन समय के साथ यह देश के सांस्कृतिक ,  सामाजिक ,  और राजनीतिक जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया। रेडियो के माध्यम से न केवल सूचना और मनोरंजन प्रदान किया जाता है ,  बल्कि यह एक सशक्त माध्यम के रूप में समाज की जागरूकता बढ़ाने का कार्य भी करता है। भारत में रेडियो की विकास यात्रा के विभिन्न चरणों पर बात करें तो हम उन्हें कुछ इस प्रकार विभाजित कर सकते हैं: 1.  प्रारंभिक चरण ( 1920-1947) भारत में रेडियो की शुरुआत ब्रिटिश काल के दौरान हुई।  1920  में ,  भारत में पहली बार रेडियो प्रसारण का प्रयोग हुआ। यह प्रसारण भारत में पहली बार   कलकत्ता  ( अब कोलकाता) में हुआ था। इसका उद्देश्य संगीत ,  समाचार और जानकारी फैलाना था। ·    1927   में ,  भारत में  'Indian Broadcasting Company' (IBC)  की स्थापना की गई। हालांकि ,  यह कंपनी आर्थिक कारणों से अधिक समय तक नहीं चल पाई।   बॉम्बे प्रेसिडेंसी रेड...