कहानी एक अनपढ़ रिक्शा चालक के शिक्षा मसीहा बनने की...!!
मामूली रिक्शा चालक अनवर अली अब किसी पहचान के
मोहताज नहीं है बल्कि अब तो उनके गाँव को ही लोगों ने अनवर अली का गाँव कहना शुरू
कर दिया है । प्रधानमंत्री ने आकाशवाणी से प्रसारित अपने मासिक कार्यक्रम “मन की
बात” में अनवर अली के नाम का उल्लेख कर उन्हें शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचा दिया।
खुद अनवर अली का कहना है कि ‘एक मामूली रिक्शा वाले को प्रधानमंत्री ने जो सम्मान
दिया है उसकी तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकता । शायद कलेक्टर बनने के बाद भी यह
सम्मान नहीं मिलता जो सामाजिक काम करने से मिल गया ।’ 80 साल के अनवर अली की
प्रेरणादायक जीवन गाथा असम की बराक घाटी में लोककथा सी बन गई है, जिससे उन्हें न केवल राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली
है बल्कि असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने भी उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया ।
प्रदेश के कई वरिष्ठ मंत्रियों ने अनवर अली के साथ फोटो खिंचवा कर स्वयं को
गौरवान्वित महसूस किया ।
आखिर ऐसा क्या है अनपढ़ और निर्धन
अनवर अली में, जो गुवाहाटी से लेकर दिल्ली तक उनका यशगान हो रहा है । दरअसल असम
में भारत-बांग्लादेश सीमा पर स्थित करीमगंज ज़िले के पथारकांदी इलाक़े के इस मामूली रिक्शा-चालक
ने वो कर दिखाया है जो अथाह धन-दौलत के मालिक भी नहीं कर पाते । अहमद अली ने अपनी मामूली सी कमाई के बाद भी जनसहयोग
से यहाँ एक-दो नहीं बल्कि पूरे नौ स्कूलों की स्थापना की है इनमें से तीन प्राथमिक
विद्यालय,
पांच माध्यमिक विद्यालय और एक हाई स्कूल है । इन
स्कूलों के जरिए वे न केवल अपने गाँव से बल्कि आसपास के कई गांवों से अशिक्षा का
अभिशाप मिटाने में जुटे हैं । उनका मानना है कि "निरक्षरता
एक पाप है,
सभी समस्याओं का मूल कारण भी । अधिकांश परिवारों को
शिक्षा की कमी की वजह से ही तमाम समस्याओं का सामना करना पड़ता है इसलिए मैंने
अपने स्तर पर निरक्षरता की कालिख को मिटाने का बीड़ा उठाया है ।"
अनवर अली ने गांव में अपनी जमीन
बेच कर और स्थानीय लोगों के सहयोग से 1978 में
अपना पहला स्कूल स्थापित किया था । अब आलम यह है कि उनके नौ स्कूलों में से चार को
सरकार ने चलाना शुरू कर दिया है और बाकी स्कूल भी जल्द ही सरकारी हो जाएंगे । अली
का कहना है कि उन्हें इस बात का जरा भी मोह नहीं है कि स्कूलों पर उनका अधिकार हो
बल्कि उल्टा वे तो यह चाहते हैं कि सभी स्कूल जल्दी ही सरकार के दायरे में आ जाएँ
जिससे बच्चों और स्कूल के शिक्षकों को और बेहतर सुविधाएँ मिल सकें । उनकी
दरियादिली का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उन्होंने नेताओं की तर्ज पर
कभी भी स्कूलों के नाम अपने बाप-दादा के नाम पर रखने की परंपरा नहीं डाली । अब इस
इलाके के लोगों ने ही दवाब डालकर दो स्कूलों का नाम अहमद अली के नाम पर रख दिया है
लेकिन वे स्वयं इससे खुश नहीं हैं ।
अहमद अली को बचपन में गरीबी के
कारण पढाई छोडनी पड़ी थी और महज दूसरी कक्षा के बाद वे स्कूल नहीं जा पाए लेकिन तभी
उन्होंने संकल्प ले लिया कि वे अपने गाँव के किसी और बच्चे को निर्धनता के कारण
पढाई से वंचित नहीं रहने देंगे और अपने संकल्प की सिद्धि के लिए वे रोजगार की तलाश
में गाँव से शहर आ गए । करीमगंज में रिक्शा चलाकर अपनी आजीविका अर्जित करने के
अलावा, उन्होंने गुवाहाटी और असम के अन्य जगहों पर ईट -गारा
ढोने से लेकर राजमिस्त्री जैसे कई काम किए ताकि ज्यादा से ज्यादा पैसा जोड़कर अपने
सपने को साकार कर सकें । सबसे अच्छी बात यह है कि उन्हें अपने जीवन को लेकर किसी
भी तरह का कोई पछतावा नहीं है । उनका कहना है कि मैंने अपना प्रत्येक काम ईमानदारी
और लगन के साथ किया और शायद उसी का परिणाम है कि आज मुझे जीवन में इतना सम्मान मिल
रहा है ।
अहमद अली गर्व से बताते हैं कि जब
मैंने स्कूलों के लिए भूमि दान करने का फैसला किया तो मुझे सबसे ज्यादा समर्थन अपने
परिवार से मिला,
विशेष रूप से मेरे बेटों से, जिन्होंने कभी मेरे फैसले का विरोध नहीं किया । यहाँ
तक कि पत्नी ने अपने नाममात्र के जेवर भी स्कूल खोलने के लिए दान में दे दिए । वह सबसे
ज्यादा इस बात से खुश हैं कि इन स्कूलों की बदौलत उनके सभी बच्चे स्कूल और कॉलेज की
पढाई कर पा रहे हैं वरना वे भी उनकी तरह अनपढ़ रह जाते । उनके स्कूलों से पढ़कर
निकले कई बच्चे अब नौकरियां करने लगे हैं
।
अनवर अली ने अपने जीवन में कुल 10
स्कूल शुरू करने का लक्ष्य निर्धारित किया था और अब तक वे नौ स्कूलों की स्थापना
कर चुके हैं । अली का कहना है कि "मैं बूढ़ा ज़रूर हो गया हूं लेकिन शिक्षा के माध्यम
से अपने गांव को विकसित करने के सपने से पीछे नहीं हट सकता । अब मैं एक कॉलेज की स्थापना और करना चाहता हूँ ताकि
इस इलाके के निर्धन बच्चों को आगे की पढाई के लिए बाहर न जाना पड़े और वे कम खर्च
में अपनी उच्च शिक्षा भी पूरी कर सकें । प्रधानमंत्री से मिले प्रोत्साहन के बाद
वे अब अपने को जवान महसूस करने लगे हैं और उन्हें विश्वास है कि कालेज खोलने का
सपना भी जल्द हकीक़त बन जायेगा ।
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