कूड़ा नहीं ज़नाब, सोना कहिए सोना...!!!


एक विज्ञापन की चर्चित पंचलाइन हैं- “ जब घर में पड़ा है सोना तो फिर काहे को रोना”,और आज लगभग यही स्थिति हमारे नगरों/महानगरों की है क्योंकि वे भी हर दिन जमा हो रहे टनों की मात्रा में कचरा अर्थात सोना रखकर भी रो रहे हैं। इसका कारण शायद यह है कि या तो उनको ये नहीं पता कि उनके पास जो टनों कचरा है वह दरअसल में कूड़ा नहीं बल्कि कमाऊ सोना है और या फिर वे जानते हुए भी अनजान बने हुए हैं? अब यह पढ़कर एक सवाल तो आपके दिमाग में भी आ रहा होगा कि बदबूदार/गन्दा और घर के बाहर फेंकने वाला कूड़ा आखिर सोना कैसे हो सकता है?
इस पहेली को सुलझाकर आपका आगे पढ़ने का उत्साह ख़त्म करने से पहले हम इस बात पर चर्चा करते हैं कि सही तरह से निपटान की व्यवस्था नहीं होने के कारण कैसे आज कचरा हमारे नगरों/महानगरों और गांवों के लिए संकट बन रहा है। दिल्ली में रहने वाले लोगों ने तो गाज़ियाबाद जाते समय अक्सर ही कचरे के पहाड़ देखे होंगे। ऊँचे-ऊँचे एवं प्राकृतिक पर्वत मालाओं को भी पीछे छोड़ते कूड़े के ढेर,उनसे निकलता जहरीला धुंआ और उस पर मंडराते चील-कौवे। ये पहाड़ शहर का सौन्दर्य बढ़ाने के स्थान पर काले धब्बे की तरह नज़र आते हैं जो धीरे धीरे हमारी और हमारे बच्चों की सांसों में धीमा ज़हर घोलकर बीमार बना रहें है। देश के अन्य महानगरों और शहरों की हालत भी इससे अलग नहीं है। आलम यह है कि पूर्वोत्तर के असम का दूसरा सबसे बड़ा शहर सिलचर भी प्रतिदिन 90 टन कूड़ा निकाल रहा है तो फिर दिल्ली-मुंबई की तो बात ही अलग है।
कचरा प्रबंधन पर काम करने वाले एक संगठन की वेबसाइट के मुताबिक दिल्ली में प्रतिदिन 9 हजार टन कूड़ा निकलता है जो सालाना तक़रीबन 3.3 मिलियन टन हो जाता है। मुंबई में हर साल 2.7 मिलियन टन,चेन्नई में 1.6 मिलियन टन,हैदराबाद में 1.4 मिलियन टन और कोलकाता में 1.1 मिलियन टन कूड़ा निकल रहा है। जिसतरह से जनसँख्या/भोग-विलास की सुविधाएँ और हमारा आलसीपन बढ़ रहा है उससे तो लगता है कि ये आंकडें अब तक और भी बढ़ चुके होंगे। यह तो सिर्फ चुनिन्दा शहरों की स्थिति है,यदि इसमें देश के तमाम छोटे-बड़े शहरों को जोड़ दिया जाए तो ऐसा लगेगा मानो हम कूड़े के बीच ही जीवन व्यापन कर रहे हैं।
हमारे देश में सामान्यतया प्रति व्यक्ति 350 ग्राम कूड़ा उत्पन्न करता है परन्तु यह मात्रा 500 ग्राम से 300 ग्राम के बीच हो सकती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा देश के कुछ राज्यों के शहरों में कराए गए अध्ययन के अनुसार शहरी ठोस कूड़े का प्रति व्यक्ति दैनिक उत्पादन 330 ग्राम से 420 ग्राम के बीच है। इस अध्ययन से यह भी पता चला है कि शहरों और कस्बों के अलग--के अलग आकार बावजूद प्रति व्यक्ति उत्पादन में काफी समानता है।
यह तो हुई देश में तेज़ी से बढ़ रहे कचरे की लेकिन अब बात करते हैं इस लेख के मूल विषय अर्थात् कचरे को सोना कहने की। दरअसल तमिलनाडु के वेल्लोर शहर में ‘गारबेज टू गोल्ड’ माडल तैयार किया गया है जो अब धीरे धीरे अन्य शहरों में भी लोकप्रिय हो रहा है। हाल ही में इस माडल के प्रणेता सी श्रीनिवासन ने असम के कछार ज़िला प्रशासन के निमंत्रण पर सिलचर की यात्रा की। यहाँ आयोजित एक कार्यशाला में उन्होंने बताया कि यदि शहरों में निकलने वाले कूड़े का सही तरह से निपटान किया जाए तो वह वाकई कमाई के लिहाज से सोना बन सकता है। श्रीनिवासन के मुताबिक फालतू समझ कर फेंका जाने वाला कूड़ा हमें 10 रुपए प्रति किलो की कीमत तक दे सकता है जो घर में बेचे जाने वाले अख़बारों की रद्दी के भाव के लगभग बराबर है। इसका मतलब यह हुआ जो हम घर-बाज़ार के कूड़े का जितने व्यवस्थित ढंग से निपटान करने में सहयोग करेंगे वह हमें उतनी ही अधिक कमाई देगा। यही नहीं, कूड़े के निपटान के वेल्लोर माडल से बड़ी संख्या में स्थानीय स्तर पर रोज़गार के साधन भी उपलब्ध कराए जा सकते हैं।
‘गारबेज टू गोल्ड’ माडल में सबसे ज्यादा प्राथमिकता कूड़े के जल्द से जल्द सटीक निपटान को दी जाती है। इसके अंतर्गत कूड़े को उसके स्त्रोत (सोर्स) पर ही अर्थात् घर, वार्ड,गाँव,नगर पालिका, शिक्षण संस्थान,अस्पताल या मंदिर के स्तर पर ही अलग-अलग कर जैविक और अजैविक कूड़े में विभक्त कर लिया जाता है। फिर इस जैविक कूड़े को  जैविक या प्राकृतिक खाद/उर्वरक के तौर पर परिवर्तित कर इस्तेमाल किया जाता है। इससे न केवल हमें भरपूर मात्रा में प्राकृतिक खाद मिल जाती है बल्कि अपने कूड़े को बेचकर अच्छी-खासी कमाई भी कर सकते हैं और इस सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें/हमारे शहर को कूड़े के बढ़ते ढेरों से छुटकारा मिल जाएगा।
महानगरों में निकलने वाले कूड़े पर किए गए एक अध्ययन के मुताबिक दिल्ली में प्रतिदिन उत्पन्न होने वाले 9 हज़ार टन कूड़े में से लगभग 50 फीसदी कूड़ा जैविक होता है  और इसका उपयोग खाद बनाने में किया जा सकता है। इसके आलावा 30 फीसदी कूड़ा पुनर्चक्रीकरण (रिसाइकिलिंग) के योग्य होता है।इसका तात्पर्य यह है कि महज 20 फीसदी कूड़ा ही ऐसा है जो किसी काम का नहीं है। कमोबेश देश के अधिकतर शहरों में यही स्थिति है इसलिए यदि वेल्लोर माडल की तर्ज़ पर कूड़े को उदगम स्थल पर ही अलग अलग कर लिया जाए तो न केवल देश में गाज़ियाबाद जैसे कचरे के पहाड़ बनने पर रोक लग जाएगी,साथ ही बड़ी संख्या में बेरोज़गार युवकों को इस मुहिम से जोड़कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाया जा सकेगा और देश को भरपूर मात्रा में जैविक खाद मिलने लगेगी।
यदि वेल्लोर या सुदूर पूर्वोत्तर के सिलचर में ‘गारबेज टू गोल्ड’ (कचरे से सोना) जैसी योजना पर अमल किया जा सकता है तो दिल्ली-मुंबई या किसी और शहर में क्यों नहीं? बस इसके लिए इच्छाशक्ति,समर्पण,ईमानदारी जैसे मूलभूत तत्वों की जरुरत है।यदि हमने एक बार यह ‘संकल्प’ ले लिया तो फिर ‘सिद्धि’ हासिल करने से कोई नहीं रोक सकता। प्रधानमंत्री द्वारा शुरू किए गए ‘संकल्प से सिद्धि’ अभियान का मूल मन्त्र भी तो यही है इसलिए बस आवश्यकता है देश को स्वच्छ बनाने का ‘संकल्प’ लेने की और फिर उसे 2019 में महात्मा गाँधी की जयंती तक ‘सिद्धि’ में बदलने की। एक बार हमने सच्चे मन से अपने आप को इस काम में झोंक दिया तो फिर वाकई में अब तक हमारा सिरदर्द बनने वाला कूड़ा सही मायने में सोना बन जायेगा और हमारा देश फिर से सोने की चिड़िया।

टिप्पणियाँ

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