रेल यात्रा: विरासत से विकास तक
विरासत को विश्राम
बराक वैली एक्सप्रेस के चालक ने जैसे ही हरी झंडी दिखाते हुए सिलचर रेलवे स्टेशन से अपनी ट्रेन आगे बढ़ाई, मानो वक्त ने मिनटों में ही लगभग दो सदी का फ़ासला तय कर लिया. हर कोई इस पल को अपनी धरोहर बनाने के लिए बेताब था. यात्रा के दौरान शायद बिना टिकट चलने वाले लोगों ने भी महज संग्रह के लिए टिकट ख़रीदे. सैकडों मोबाइल कैमरों और मीडिया के दर्जनों कैमरों ने 27 सितंबर 2014 में इस अंतिम रेल यात्रा को तस्वीरों में कैद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कोई ट्रेन के साथ,तो कोई स्टेशन पर अपनी ‘सेल्फी’ खींचने में व्यस्त था. वहीँ ट्रेन में सवार कुछ लोगों के लिए यह महज रेल यात्रा नहीं बल्कि स्वयं को इतिहास के पन्नों का हिस्सा बनाने की कवायद थी. 30 साल की सरकारी सेवा पूरी कर चुके बराक वैली एक्सप्रेस के चालक सुनीलम चक्रवर्ती के लिए भी इस मार्ग पर यह अंतिम रेल यात्रा ही थी. भावुक होकर उन्होंने कहा- “पता नहीं अब इस मार्ग पर जीते जी कभी ट्रेन चलाने का अवसर मिलता भी है या नहीं.”
दरअसल असम की बराक वैली या भौगोलिक रूप से दक्षिण असम के लोगों की डेढ़ सौ साल तक ‘लाइफ लाइन’ रही मीटर गेज ट्रेनों के पहिए अब थम गए है. रेल मंत्रालय मीटर गेज को ब्राडगेज में बदलने जा रहा है और इस काम को निर्बाध रूप से पूरा करने के लिए एक अक्तूबर से यहाँ रेल सेवाएं फिलहाल छह माह के लिए पूरी तरह से बंद कर दी गयी हैं. अभी तक पूर्वोत्तर रेलवे के लामडिंग जंक्शन तक ब्राडगेज रेल लाइन है लेकिन लामडिंग से सिलचर के बीच 201 किमी का सफ़र मीटर गेज से तय करना पड़ता था. वैसे लामडिंग से सिलचर के इस सफ़र को देश का सबसे रोमांचक और प्राकृतिक विविधता से भरपूर रेल यात्रा माना जाता है. इस सफ़र के दौरान यात्रियों को पहाड़ों की हैरतअंगेज खूबसूरती के साथ 586 पुलों और 37 सुरंगों से होते हुए 24 रेलवे स्टेशनों को पार करना पड़ता था. बताया जाता है कि तमाम तकनीकी विकास के बाद भी जिस रेल लाइन को मीटरगेज से ब्राडगेज में बदलने में अब तक़रीबन बीस साल का समय लग रहा है,वहीँ 19 वीं सदी में अंग्रेजों ने महज 15 साल में पहाड़ों को काटकर और कंदराओं को पाटकर इस रेल लाइन को अमली जामा पहना दिया था. यहाँ के इतिहास के जानकारों के मुताबिक 1882 में सर्वप्रथम जान बोयर्स नामक इंजीनियर ने सुरमा वैली (बराक वैली का विभाजन से पहले का नाम ) को ब्रह्मपुत्र वैली से जोड़ने की परिकल्पना की थी. फिर अगले पांच साल में परियोजना रिपोर्ट तैयार हुई और 1887 में तत्कालीन सलाहकार इंजीनियर गुइल्फोर्ड मोल्सवर्थ ने इस मीटर गेज रेल परियोजना को मंजूरी दे दी. फिर 1888 से यहाँ निर्माण कार्य शुरू हुआ और 1 दिसंबर 1903 से यहाँ रेल सफ़र शुरू हो गया.
अतीत से विकास के इस सफ़र में मीटर गेज और इस पर आज के गतिशील दौर में भी कछुआ चाल से चलने वाली ट्रेने अब संग्रहालय का हिस्सा बन जाएंगी क्योंकि पटरियों का आकर बदलने के साथ ही यहाँ सब-कुछ बदल जाएगा. सिलचर स्टेशन का विकास व विस्तार होगा और शायद स्थान भी बदलेगा. धीमी और सुकून से चलने वाली ट्रेनों के स्थान पर राजधानी-शताब्दी जैसी चमक-दमक और गति वाली ट्रेने दौड़ती नजर आएगी. बराक वैली के साथ साथ त्रिपुरा,मिज़ोरम तथा मणिपुर जैसे राज्य वर्षों से इस बदलाव की प्रतीक्षा कर रहे हैं लेकिन सदियों का रिश्ता एक पल में तो नहीं तोडा जा सकता इसलिए मीटर गेज को विदाई देने के लिए फूल मालाओं और ढोल-ढमाकों के साथ पूरा शहर मौजूद था. सभी दुखी थे और साथ में खुश भी क्योंकि इस विछोह में ही सुनहरे भविष्य के सपने छिपे हैं.
बदलाव से विकास
जनसैलाब शब्द भी असम के सिलचर रेलवे स्टेशन में उमड़ी भीड़ के लिए छोटा प्रतीत होता है. यदि इससे भी बड़ा कोई शब्द इस्तेमाल किया जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. चारों ओर बस सर ही सर नजर आ रहे थे. सभी ओर बस जनसमूह था- प्लेटफार्म पर,पटरियों पर, स्टेशन आने वाली सड़क पर. ऐसा लग रहा था जैसे आज शहर की सारी सड़कें एक ही दिशा में मोड़ दी गयी हों. बूढ़े, बच्चे, सजी-धजी महिलाएं और मोबाइल कैमरों से लैस नयी पीढ़ी, परिवार के परिवार. पूरा शहर उमड़ आया था वह भी बिना किसी दबाव या लालच के, अपने आप, स्व-प्रेरणा से, राजनीतिक दलों द्वारा उपलब्ध कराये जाने वाले वाहनों पर सवार होकर शहर घूमने आए लोगों की तरह तो बिल्कुल नहीं. मैंने तो आज तक अपने जीवन में कभी किसी रेल इंजन को देखने, उसे छूने, साथ में फोटो खिंचाने और उस पर चढ़ने की पुरजोर कसरत करते लोगों की इतनी भीड़ नहीं देखी.
दरअसल, जब इंतज़ार सारी हदें पार कर जाता है तो सब्र का बाँध भी टूटने लगता है और फिर उम्मीद की छोटी सी किरण भी उल्लास का कारण बन जाती है. कुछ ऐसा ही पूर्वोत्तर के दक्षिण असम के लोगों के साथ हुआ. बराक घाटी के नाम से विख्यात यह इलाका अब तक ‘लैंड लाक’ क्षेत्र माना जाता है अर्थात् जहाँ आना और फिर वहां से वापस लौटना एवरेस्ट शिखर पर चढ़ने जैसा दुष्कर होता है. बंगलादेश के साथ गलबैयां डाले यह क्षेत्र अपनी भाषा, संस्कृति, खान-पान के कारण पहले ही स्वयं को असम के ज्यादा निकट नहीं पाता और ऊपर से परिवहन सुविधाओं की कमी ने इसे और भी अलग-थलग कर दिया है. कुछ यही परेशानी बराक घाटी से सटे मिज़ोरम,मणिपुर और त्रिपुरा की थी लेकिन अब हालात बदलने लगे हैं. दो दशकों से इस घनघोर पहाड़ी इलाक़े में छोटी लाइन पर कछुए की गति से रेंगती मीटरगेज को ब्राडगेज में बदलने का अरमान पूरा हो गया है. परिवर्तन की आहट लेकर मार्च 2015 में पहले खाली इंजन आया और अपनी गुर्राहट से लोगों को समय और गति के बदलाव का संकेत दे गया. फिर नौ डब्बों की स्पेशल ट्रेन और उसमें सवार रेलवे के आला अधिकारियों ने भी सहमति दे दी. बस रेलवे सुरक्षा आयुक्त की हरी झंडी मिलते ही भारत की सबसे रोमांचक रेल यात्राओं में से एक सिलचर-लामडिंग रेलमार्ग पर भी 70 किमी प्रति घंटा की रफ़्तार से ट्रेन दौड़ने लगेगी. दिल्ली-आगरा जैसे रेलमार्ग पर 160 – 200 किमी की रफ़्तार से पटरियों पर उड़ान भरने और अहमदाबाद-मुंबई मार्ग पर बुलेट ट्रेन का सपना देख रहे लोगों के लिए 70 किमी की स्पीड शायद खिलौना ट्रेन सी लगे परन्तु पूर्वोत्तर में अब तक छुक-छुक करती मीटरगेज पर घंटों का सफ़र दिनों में पूरा करने वाले लोगों के लिए तो यह स्पीड किसी बुलेट ट्रेन से कम नहीं है और जब महज 210 किमी की यह यात्रा 21 सुरंगों और 400 से ज्यादा छोटे-बड़े पुलों से होकर करनी हो तो फिर इस रोमांच के आगे बुलेट ट्रेन की आंधी-तूफ़ान सी गति भी फीकी लगेगी. इस मार्ग पर सबसे लम्बी सुरंग तीन किमी से ज्यादा की है तो सबसे ऊँचा पुल लगभग 180 फुट ऊँचा है. 28 जाने-अनजाने स्टेशनों से गुजरती ट्रेन कई बार 7 डिग्री तक घूमकर जायेगी. 1996-97 में तक़रीबन 600 करोड़ के बजट में तैयार की गयी यह राष्ट्रीय रेल परियोजना लगभग दो दशक बाद 2015 में जाकर 5 हज़ार करोड़ रुपए में मूर्त रूप ले पायी है. इस रेल मार्ग को हक़ीकत में तब्दील करना किसी मायने में प्रकृति की अनजानी विपदाओं से युद्ध लड़ने से कम नहीं था. कभी जमीन धंस जाती थी तो कभी चट्टान खिसक जाती थी लेकिन लगभग 70 सहयोगियों की जान गंवाने के बाद भी मानव श्रम ने हार नहीं मानी और उसी का नतीजा है कि पूरे पूर्वोत्तर में उल्लास और उत्साह का माहौल है.
हम-आप सभी के लिए शायद महज ये रेल पटरियों का बदलना हो लेकिन बराक घाटी और त्रिपुरा-मिज़ोरम के लाखों लोगों के लिए ये विकास की उड़ान के नए पंख हैं, दो दशकों से पीढ़ी दर पीढ़ी पल रहे सपने के साकार होने की तस्वीर है और प्रगति की बाट जोह रहे पूर्वोत्तर की नए सिरे से लिखी जा रही तकदीर है। जब नई बिछी ब्राडगेज रेल लाइन पर कुलांचे भरता हुआ इंजन यहाँ पहुंचा तो उसे टकटकी लगाए निहार रही लाखों आँखों में तृप्ति की ठंडक और भविष्य की उम्मीदों की चमक आ गयी। यदि सब कुछ योजना के मुताबिक रहा तो 1 अप्रैल से दिल की धड़कनों के साथ दौड़ती ट्रेन भी पूरी रफ़्तार से दौड़ने लगेगी। तो दुआ कीजिए देश के 'ईशान कोण' के लिए क्योंकि वास्तु के मुताबिक यह कोण(हिस्सा) खुश हुआ तो देश के बाकी हिस्सों में भी खुशहाली बरसेगी।
विकास की वाहक वंदे भारत का सफर
भारतीय रेलवे ने समय के साथ कई बदलाव देखे हैं, और इन बदलावों का सबसे चमकदार प्रतीक है वंदे भारत एक्सप्रेस। यह ट्रेन न केवल अपनी गति और आधुनिक सुविधाओं के लिए जानी जाती है, बल्कि यह भारत की प्रगति और आत्मनिर्भरता का भी प्रतीक है। आइए,अब चलते हैं भोपाल से दिल्ली तक वंदे भारत एक्सप्रेस में की गई एक रोचक और जीवंत यात्रा के अनुभव पर। यह यात्रा न केवल रेल के अनुभव को दर्शाती है बल्कि भारत की विविधता और इसकी प्रगति को भी उजागर करती है।
सुबह के तकरीबन 5 बजे, भोपाल का रानी कमलापति रेलवे स्टेशन एक अलग ही रंग में नजर आ रहा है। हल्की ठंडी हवा, चाय की गर्माहट और स्टेशन की हलचल यात्रा के रोमांच को और बढ़ा रहे हैं। रानी कमलापति स्टेशन, जिसे हाल ही में आधुनिक बनाया गया है, अपनी स्वच्छता और व्यवस्थित ढांचे के लिए जाना जाता है। जैसे ही मैं प्लेटफॉर्म नंबर 1 पर पहुंचा, मेरी नजरें वंदे भारत एक्सप्रेस की तलाश में थीं।
तभी, नीले और सफेद रंग की एक चमकदार ट्रेन धीरे-धीरे प्लेटफॉर्म पर आकर रुकी। इसका बुलेट ट्रेन जैसा डिज़ाइन और मनमोहक बनावट तुरंत ध्यान खींच लेती है। वंदे भारत एक्सप्रेस भारत में निर्मित नई नवेली और स्मार्ट सेमी-हाई-स्पीड ट्रेन है, जो 160 किमी/घंटे की रफ्तार से दौड़ रही है। अधिकतर लोग इस बेहतरीन ट्रेन में सफ़र का अब तक आनंद ले चुके हैं इसलिए यह सभी जानते हैं कि ट्रेन के दरवाजे स्वचालित हैं। जैसे ही मैं अंदर दाखिल हुआ, मुझे एक प्रीमियम विमान के केबिन जैसा अनुभव हुआ। कोच की सजावट, आरामदायक सीटें और साफ-सुथरा माहौल तुरंत प्रभावित करता है। सीटें एर्गोनॉमिक डिज़ाइन की थीं, जिनमें एडजस्टेबल हेडरेस्ट और लेगरेस्ट की सुविधा है। मेरी सीट खिड़की के पास थी, जो मेरे लिए एक बोनस था, क्योंकि मैं बाहर के बदलते नज़ारों को देखने का शौकीन हूं।
कोच में सीसीटीवी निगरानी, फायर अलार्म और अग्निशामक यंत्रों की व्यवस्था थी, जो सुरक्षा की दृष्टि से मुझे आश्वस्त करती थी। इसके अलावा, प्रत्येक सीट के पास चार्जिंग पॉइंट और पढ़ने के लिए छोटी लाइट्स है। ट्रेन में वाई-फाई की सुविधा है। हालांकि मैंने इसे आजमाने के बजाय अपनी यात्रा का आनंद लेने का फैसला किया।
बिल्कुल सही समय पर ट्रेन ने धीरे-धीरे रानी कमलापति स्टेशन छोड़ा। जैसे ही ट्रेन ने गति पकड़ी, मुझे उसकी स्मूथनेस का अहसास हुआ। कोई झटका नहीं, कोई शोर नहीं—बस एक सहज और स्थिर गति। ट्रेन की अधिकतम गति 160 किमी/घंटा थी, और यह भोपाल से नई दिल्ली के बीच 708 किलोमीटर की दूरी को केवल 7 घंटे 45 मिनट में तय कर लेती है। यह समय सामान्य ट्रेनों की तुलना में काफी कम है, जो इस दूरी को 12-14 घंटों में तय करती हैं।
खिड़की से बाहर का नज़ारा मंत्रमुग्ध करने वाला है । भोपाल के आसपास का हरा-भरा परिदृश्य, छोटे-छोटे गांव, और खेतों में काम करते किसान—यह सब भारत की आत्मा को दर्शाता था। जैसे ही ट्रेन ने हमारे प्रदेश की सीमाओं को पार किया तो मैंने विशालकाय खिड़की से देखा कि खेतों की जगह अब छोटे-छोटे कस्बे और शहर नजर आने लगे।
लगभग एक घंटे की यात्रा के बाद, ट्रेन का स्टाफ चाय और ब्रेकफास्ट की ट्रे लेकर आ गया । वंदे भारत एक्सप्रेस में भोजन की गुणवत्ता उल्लेखनीय है। मुझे एक ट्रे में लज़ीज़ एवं गरमा-गरम इडली, सांभर, नारियल की चटनी और एक कप चाय मिली। वैसे, कॉफी का विकल्प भी था लेकिन अपन ठहरे चाय के आशिक इसलिए कॉफी के इश्क में नहीं फंसे। नाश्ते के साथ मिले हिंदी अंग्रेजी के अखबार ने बिल्कुल घर जैसा अहसास करा दिया। कुछ घंटे ही गुजरे होंगे कि भोजन की महक ने हमारी भूख जागृत कर दी…हमें दिया गया भोजन गरमागरम, ताज़ा और स्वादिष्ट था, जो इस ट्रेन की प्रीमियम सेवा के बिल्कुल अनुकूल था । वैसे,ट्रेन में एक छोटा पैंट्री सेक्शन भी है, जहां से यात्री भरपेट भोजन के बाद भी चाहे तो ब्रांडेड स्नैक्स और पेय पदार्थ खरीद सकते हैं।
भोजन के बाद, बात यात्रियों की दूसरी अनिवार्य जरूरत यानि टॉयलेट्स की। ट्रेन के टॉयलेट्स आधुनिक और स्वच्छ हैं । इनमें टच-फ्री वॉशबेसिन, साबुन डिस्पेंसर और पर्याप्त रोशनी है। यह भारतीय रेलवे के पुराने अनुभवों से बिल्कुल अलग था और मुझे यह देखकर खुशी हुई कि हमारी रेलवे प्रणाली कितनी प्रगति कर रही है।
वंदे भारत एक्सप्रेस भोपाल से हजरत निजामुद्दीन स्टेशन के यात्रा के दौरान ग्वालियर, आगरा, और मथुरा जैसे ऐतिहासिक महत्व के स्टेशनों को हमारी स्मृतियों से जोड़ती है। प्रत्येक स्टेशन पर रुकने का समय केवल 2-5 मिनट होता है, जो ट्रेन की गति और समयबद्धता को दर्शाता है। साथ ही, बकायदा स्पष्ट अनाउंसमेंट के जरिए बताती है कि कहां रुकेगी,कितनी रुकेगी और द्वार कब बंद होंगे।
हमारी ट्रेन के कई यात्रियों ने ग्वालियर, मथुरा और आगरा जैसे स्टेशनों से यहां की पहचान मसलन ग्वालियर की गजक,आगरा का पेठा और मथुरा के पेड़े खरीदकर ट्रेन के इन स्टॉपेज के महत्व को सही साबित कर दिया।
आगरा में ट्रेन के रुकने पर मेरी तरह कई यात्रियों की नजरें ताजमहल को तलाश रही थीं, हालांकि स्टेशन से यह दिखाई नहीं देता लेकिन आगरा का नाम सुनते ही मन में प्रेम और इतिहास की छवियां तो उभर ही आती हैं और मथुरा हमें भगवान कृष्ण के प्रति आस्था से जोड़ देती है। ये छोटे-छोटे पड़ाव न केवल यात्रा को रोचक बना देते हैं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक विविधता को भी उजागर करते हैं।
ट्रेन में मेरे बगल वाली सीट पर बैठे एक युवा इंजीनियर बैठे सहयात्री अपनी पहली नौकरी के लिए दिल्ली जा रहे थे । उन्होंने बताया कि वंदे भारत एक्सप्रेस ने उसकी यात्रा को न केवल तेज, बल्कि सुखद भी बना दिया बल्कि महीनों पहले आरक्षण कराने की झंझट से भी छुटकारा दिला दिया। इसी तरह, मेरे सामने वाली सीट पर बैठे बुजुर्ग दंपति अपनी बेटी से मिलने दिल्ली जा रहे थे। उनकी यादों में पुराने जमाने की ट्रेन यात्राएं थीं और वे इस आधुनिक ट्रेन की सुविधाओं से लगभग अचंभित थे।
इन सहयात्रियों ने मुझे यह अहसास कराया कि वंदे भारत एक्सप्रेस केवल एक ट्रेन नहीं, बल्कि भारत के लोगों की नई उम्मीद है। यह ट्रेन नई पीढ़ी की आकांक्षाओं और पुरानी पीढ़ी की विरासत को एक साथ लेकर चलती है। तभी तो मैंने इस रेल वृतांत का शीर्षक विरासत से विकास रखा है।
जैसे-जैसे ट्रेन दिल्ली के करीब पहुंची, बाहर का नज़ारा बदलने लगा। छोटे कस्बों की जगह अब बड़े शहर की चमक और व्यस्तता दिखाई देने लगी। अपनी समय सारिणी का सौ फीसदी पालन करते हुए वंदे भारत ने हमें बिल्कुल सही समय पर हजरत निजामुद्दीन स्टेशन पहुंचा दिया ।
विकास में भी विरासत
वंदे भारत एक्सप्रेस न केवल एक ट्रेन है, बल्कि यह भारत के आत्मनिर्भर भारत अभियान का एक जीवंत उदाहरण है। यह ट्रेन गति, आधुनिक सुविधाओं और सुरक्षा मानकों के साथ भारतीय रेलवे के भविष्य को दर्शाती है। वंदे भारत एक्सप्रेस पर्यावरण के प्रति भी संवेदनशील है। यह इलेक्ट्रिक मल्टीपल यूनिट पर आधारित है। ट्रेन की डिज़ाइन और सुविधाएं यात्रियों को एक विश्वस्तरीय अनुभव प्रदान करती हैं, जो भारत को वैश्विक मंच पर गर्व का अनुभव कराती हैं।
कुल मिलाकर भोपाल से दिल्ली की यह यात्रा मेरे लिए केवल एक स्थान से दूसरे स्थान तक की यात्रा नहीं थी, बल्कि यह भारत की प्रगति, विविधता, और एकता का अनुभव थी। वंदे भारत एक्सप्रेस ने मुझे न केवल समय पर मेरे गंतव्य तक पहुंचाया, बल्कि मुझे एक ऐसी यात्रा का अनुभव दिया, जो आरामदायक, रोमांचक, और यादगार थी। यह ट्रेन भारत के उन लाखों लोगों की कहानी कहती है, जो हर दिन अपने सपनों को साकार करने के लिए यात्रा करते हैं। यह ट्रेन भारत के भविष्य की ओर एक कदम है, और मुझे गर्व है कि मैं इस यात्रा का हिस्सा बना।
निष्कर्ष
जैसा कि इस रेल वृतांत की शुरुआत में ही लिखा है कि भारतीय रेल एक परिवहन व्यवस्था से बढ़कर देश की सांस्कृतिक विरासत और आधुनिक प्रगति का प्रतीक है। यही इस रेल यात्रा का निचोड़ भी है। ब्रिटिश शासनकाल में आरंभ हुई रेल यात्रा आज एक सदी से भी अधिक समय बाद तकनीकी नवाचारों के साथ आगे बढ़ रही है। स्टीम इंजनों की सीटी और कोयले से उठते आत्मीय धुएं से लेकर वंदे भारत की रफ्तार आवाज और धुंआ रहित यात्रा तक भारतीय रेल ने समय के साथ खुद को नए रूप में प्रस्तुत किया है।
जहाँ एक ओर पुराने रेलवे स्टेशनों की भव्य वास्तुकला और धरोहर रेलगाड़ियाँ अतीत की याद दिलाती हैं, वहीं दूसरी ओर बुलेट ट्रेन की आहट, डिजिटल टिकटिंग, विद्युतीकरण, बायो टॉयलेट, स्वच्छ पटरियां और अत्याधुनिक सुविधाएँ विकास की नई तस्वीर पेश करती हैं। भारतीय रेल का यह संगम हमें यह सिखाता है कि विकास की दौड़ में भी अपनी जड़ों से जुड़ाव कितना आवश्यक है।
वहीं, रेलवे संग्रहालयों, विरासत ट्रेनों और पुनर्निर्मित अमृत स्टेशनों के माध्यम से भारत अपनी रेल विरासत को संजोए हुए है। साथ ही, हर दिन लाखों यात्रियों को जोड़े रखने वाली यह प्रणाली देश के सामाजिक और आर्थिक विकास की रीढ़ बनी हुई है। वास्तव में, भारतीय रेल विरासत और विकास का एक अद्भुत मेल है जो भारत की आत्मा को गति देता है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें