‘अब मैं बोलूंगी’... एक पठनीय हकीकत!!

जब किसी पुस्तक के पहले ही पेज पर लिखा हो कि ‘पत्रकारिता में मिले सभी दोस्तों और दुश्मनों को प्यार के साथ समर्पित..’, तो हम उस किताब के तेवरों का अंदाजा सहज ही लगा सकते हैं और जब किताब डायरी की शक्ल में हो और डायरी भी किसी खाँटी पत्रकार की हो तो सोने पर सुहागा ही समझो।

  ‘खत का मजमून भांप लेते हैं लिफाफा देख कर’..मार्का शैली में हमने यह तो समझ ही लिया था कि जानी मानी पत्रकार स्मृति आदित्य ने यदि अपनी डायरी को ‘अब मैं बोलूंगी’ शीर्षक के साथ सार्वजनिक कर दिया है तो जाहिर है कई लोगों की, उनकी डायरी में शामिल किरदारों की और दोस्तों-दुश्मनों की खैर नहीं।   

 होना तो यही चाहिए था, लेकिन सुसंकृत,संस्कारी और सुलझे हुए व्यक्तित्व के कारण स्मृति बखिया तो उधेड़ती हैं लेकिन संकेतों में। किसी का नाम लेकर उसकी भद नहीं पीटती बल्कि इशारों में अंदर तक भेद देती हैं। अब जो किरदार हैं वे तो पन्ना-दर-पन्ना समझ जाते हैं कि स्मृति की बेधड़क डायरी क्या कह रही है और यही इस किताब ‘अब मैं बोलूंगी’ की सबसे अच्छी बात है कि यह पूरे सम्मान के साथ कलई खोलती है।   

यह पुस्तक पत्रकारिता ही नहीं, तमाम पेशों के उन सभी लोगों की किताब है जो पूरी मेहनत, लगन, समर्पण और संजीदगी के साथ अपना काम करते हैं लेकिन जब श्रेय मिलने की बारी आती है तो कोई ‘कथित सीनियर’ अकेले ही पूरी वाहवाही ले उड़ता है और आप मन मसोसकर फिर अगले लक्ष्य की तैयारी में जुट जाते हैं। 

मेरे साथ भी कई बार ऐसा हुआ है और ज्यादातर लोग इस कड़वे अनुभव का घूंट पी चुके होंगे।  …बस, हम सब यह दर्द पीकर रह जाते हैं लेकिन स्मृति आदित्य ने दर्द को पन्नों पर उकेर दिया है। यह पुस्तक गागर में सागर की तरह है जो हाथों में आते ही आपको बांध सा लेती है और एक बैठक में ही आप स्मृति के बोलने को बस सुनते जाते हैं।  

चाहे ‘अथ अवार्ड कथा’ हो या फिर पत्रकारिता की डिग्री उच्चतम अंकों के साथ हासिल करने के बाद भी वरिष्ठ साथियों का व्यवहार…संघर्ष हर पल साफ नज़र आता है। स्मृति खुद लिखती हैं कि- ‘मैं अपने संघर्ष नहीं गिना रही, मुझे पता है हर एक को इन शब्दों से गुजरना पड़ा होगा। उनकी अपनी कठिन कहानी है और होगी। मैं, पत्रकार होने की नाते सिर्फ इसलिए लिख रही हूं कि जब भी कहीं कोई अपने अधीनस्थ को जहर बुझे तीर छोड़े तब एक बार जरूर सोचे कि पता नहीं सामने वाला कब, कहां और कैसी स्थिति का सामना कर रहा है? उसके भावनात्मक, मानसिक और शारीरिक तनाव क्या है? मानवीयता का यह धरातल आपके इंसान बने रहने में मददगार होगा।’  

ऐसा नहीं है कि स्मृति की यह डायरी केवल पक्षपाती या वरिष्ठों के दोगलेपन को ही उजागर करती है बल्कि इंसानियत को सलाम भी करती है और अच्छे एवं सच्चे लोगों की तस्वीर भी सामने लाती है। कुल मिलाकर ‘अब मैं बोलूंगी’ हमें अखबारी पन्नों, टीवी और पोर्टल के रुपहले पर्दे के पीछे की असलियत से अवगत कराती है, हमारी अपनी भाषा में हमारी कहानी सुनाती है और हमें तथा कथित वरिष्ठपने को आईना भी दिखाती है…एक पठनीय हकीकत।  

पुस्तक: अब मैं बोलूंगी 
लेखन: स्मृति आदित्य  
प्रकाशक: शिवना प्रकाशन  
पृष्ठ: 78 मूल्य: 150 रुपए

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