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ब्लागिंग में गुटबाजी उचित नहीं:ब्लागर

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वैलेंटाइन-डे के मौके पर   लक्ष्मीनगर में कई ब्लागर्स एकत्र हुए. इस दिन का सदुपयोग करते हुए सभी ब्लागर्स ने एक दूसरे को प्रेम-दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं देते हुए इस दिन की सार्थकता पर चर्चा की. चर्चा के दौरान हिंदी ब्लाग जगत में फ़ैल रही गुटबाजी जैसी समस्याओं पर चिंता ज़ाहिर की गई. सभी ने एकमत से यह राय जाहिर की, कि ब्लागर समाज की समस्याओं को सामने लाते हैं, इसलिए उन्हें किसी गुट में शामिल न होकर हिंदी के प्रचार-प्रसार की मूल भावना के लिए काम करना चाहिए. आज वेलेंटाइन डे पर कई जगह प्रेम का विरोध करने वालों द्वारा अपनाए जा रहे हिंसक और असामाजिक तौर-तरीकों को ब्लागरों ने गलत ठहराया. ब्लागर्स का कहना है कि प्रेम में बढती उच्चश्रृंखलता का विरोध भी प्रेम से ही करना चाहिए. सभी ब्लागर्स ने निश्चय किया कि वे संत वेलेंटाइन के प्रेम के सन्देश को हिंदी ब्लागिंग के ज़रिये देशभर में फैलाएंगे. ताकि सभी जन आपस के भेदभाव भुलाकर विश्वबंधुत्व की ओर अग्रसर हों. बैठक में यह भी तय किया गया कि इन मुद्दों पर विस्तार से विचार-विमर्श के लिए ब्लागर साथियों की एक बड़ी बैठक जल्द बुलाई जायेगी. इस मौके पर एड़ी-च...

पपी लव या लव,सेक्स और धोखा.....

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अब इसे प्रेम का बाज़ार कहें या बाज़ार का प्रेम या फिर ‘लव,सेक्स और धोखा’ क्योंकि आज के दौर के प्रेम ने तो प्यार को दिनों में बाँट दिया है.तभी तो वेलेन्टाइन डे के दौरान फ़रवरी माह की 7 तारीख को रोज डे, 8 को प्रपोस डे, 9 को चाकलेट डे,10 को टेडी डे,11 को प्रोमिस डे,12 को हग डे,13 को किस डे और फिर 14 को वेलेन्टाइन डे....यानि पूरे पखवाड़े भर का इंतजाम.वैसे अब कही-कहीं तो इसके बाद ‘ब्रेक-अप डे’ भी सेलिब्रेट होने लगा है क्योंकि आज की पीढ़ी अपने साथी को इससे ज़्यादा बर्दाश्त ही नहीं कर सकती? रही बाकी “डे” (दिनों) की बात तो उनके लिए बाजार ने भरपूर इंतजाम कर दिए हैं बस आपकी जेब में पैसा होना चाहिए फिर माशूक या माशूका तो अपने आप चली आएगी.अब प्रेम दिल से नहीं दौलत से होता है अर्थात जितनी भारी जेब होगी उतना ही ‘स्ट्रोंग’ प्यार होगा और वह भी एक से नहीं दो-चार से एक साथ. खास बात यह है कि सभी साथ जीने-मरने की कसमें खायेंगे.यह बात अलग है कि प्यार(दौलत) खत्म होते ही बिना किसी गिले-शिकवे के अलग भी हो जायेंगे.यही तो नई पीढ़ी का प्यार है. मैंने कुछ दिन पहले एक कविता पढ़ी थी उसकी चन्द पंकितयां इसप्रकार हैं: “स्क...

काश हम सब भी गब्बर ही होते...

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हम सब शोले के खलनायक गब्बर सिंह को एक दुर्दान्त,क्रूर,वहशी दरिंदे के रूप में जानते हैं बिलकुल वैसे ही जैसे रामचरित्र मानस में रावण,जबकि असलियत में रावण कुछ ओर ही था.ऐसे ही हमारे एक विद्वान साथी ने गब्बर सिंह पर नए अंदाज़ में प्रकाश डाला है.आइये आप सब भी गब्बर पुराण में शराबोर हो जाइये... 1. सादा जीवन, उच्च विचार: उसके जीने का ढंग बड़ा सरल था. पुराने और मैले कपड़े, बढ़ी हुई दाढ़ी, महीनों से जंग खाते दांत और पहाड़ों पर खानाबदोश जीवन. जैसे मध्यकालीन भारत का फकीर हो. जीवन में अपने लक्ष्य की ओर इतना समर्पित कि ऐशो-आराम और विलासिता के लिए एक पल की भी फुर्सत नहीं और विचारों में उत्कृष्टता के क्या कहने! “जो डर गया, सो मर गया” जैसे संवादों से उसने जीवन की क्षणभंगुरता पर प्रकाश डाला था. २. दयालु प्रवृत्ति: ठाकुर ने उसे अपने हाथों से पकड़ा था. इसलिए उसने ठाकुर के सिर्फ हाथों को सज़ा दी. अगर वो चाहता तो गर्दन भी काट सकता था. पर उसके ममतापूर्ण और करुणामय ह्रदय ने उसे ऐसा करने से रोक दिया. 3. नृत्य-संगीत का शौकीन: 'महबूबा-महबूबा' गीत के समय उसके कलाकार ह्रदय का परिचय मिलता है. अ...

आप ब्लागर हैं..तो बन सकते हैं मंत्री-प्रधानमंत्री

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 सलीम अमामाऊ  यदि आप शौकिया तौर पर ब्लागिंग करते हैं तो अब गंभीर हो जाइये और चलताऊ विषयों की बजाय ज्वलंत मुद्दों पर लिखना शुरू कर दीजिए क्योंकि ब्लागिंग से अब आप न केवल भरपूर पैसा और नाम कमा सकते हैं बल्कि मंत्री तथा प्रधानमंत्री जैसे पदों पर भी पहुँच सकते हैं. मुझे पता है आपको यह ‘मंत्री’ बनने की बात हजम नहीं हो रही होगी और मेरी कपोल-कल्पना लग रही होगी ,पर यह वास्तविकता है और चौबीस कैरेट सोने सी खरी है. हमारे एक ब्लागर भाई तो मंत्री पद तक पहुँच भी गए हैं. हालाँकि हो सकता है आप में से कई लोग ऐसे उदाहरण देने लगे जो उन लोगों के हों जो मंत्री पद के साथ-साथ ब्लागिंग भी कर रहे हैं. मैं खुद भी लालकृष्ण आडवाणी,लालू प्रसाद जैसे तमाम नाम बता सकता हूँ जिन्होंने सरकारी उत्तरदायित्व सँभालते हुए भी ब्लागिंग की लेकिन ये लोग नेता/मंत्री/प्रभावशाली पहले थे और बाद में ब्लागर बने.मैं जिस व्यक्ति का उल्लेख कर रहा हूँ वह पहले आम ब्लागर था फिर मंत्री बना और भविष्य में शायद प्रधानमंत्री भी बन सकता है और अभी भी नियमित रूप से ब्लागिंग कर रहा है. इस शख्स का नाम है-सलीम अमामाऊ...सलीम ट्यूनीशिया के नागरिक ...

एक हत्यारी माँ का बेटी के नाम पत्र

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प्रिय बेटी, आज जब से मैंने यह समाचार पढ़ा है कि ‘देश में हर साल सात लाख लड़कियां गर्भ में ही माता-पिता द्वारा मार दी जाती हैं’,मेरा मन अत्यधिक व्याकुल है. मैं चाह कर भी अपने आप को रोक नहीं पा रही हूँ इसलिए यह खत लिख रही हूँ ताकि अपने मन की पीड़ा को कुछ हद तक शांत कर सकूँ.....बस मेरी तुमसे एक गुज़ारिश है कि मेरा पत्र पढकर नाराज़ नहीं होना. लगता है कि जैसे मैं बौरा गई हूँ तभी तो यह कह बैठी कि पत्र पढकर मुझसे नाराज़ नहीं होना?हकीकत तो यह है कि मैंने तुमसे इस पत्र को पढ़ने तक का अधिकार छीन लिया है. मैं चाहती तो पत्र की शुरुआत में तुम्हें मुनिया,चंदा,गरिमा या फिर मेरे दिल के टुकड़े के नाम से भी संबोधित कर सकती थी परन्तु मैंने तो नाम रखने का अधिकार तक गवां दिया.बेटा मैं भी उन अभागन माँओं में से एक हूँ जिन्होंने अपनी लाडली को अपने पति और परिवार के ‘पुत्र मोह’ में असमय ही ‘सजा-ए-मौत’ दे दी.तुम्हारे कोख में आते ही मेरा दिल उछाले मारने लगा था और मुझे भी माँ होने पर गर्व का अहसास हुआ था.पहली बार तुमने ही मुझे यह मधुर अहसास और गर्व की अनुभूति कराई थी परन्तु मुझे क्या पता था कि यही गर्व मेरे लिए अभिशाप बन...

करोडों का "गनतंत्र" या जनता का गणतंत्र ...

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जगह-जगह ए के-४७ जैसी घातक बंदूकों के साथ रास्ता रोककर तलाशी लेते दिल्ली पुलिस के सिपाही, सड़कों पर दिन-रात गश्त लगाते कमांडो, रात भर कानफोडू आवाज़ के साथ सड़कों पर दौड़ती पुलिस की गाडियां, फौजी वर्दी में पहरा देते अर्ध-सैनिक बलों के पहरेदार, होटलों और गेस्ट-हाउसों में घुसकर चलता तलाशी अभियान और पखवाड़े भर पहले से अख़बारों-न्यूज़ चैनलों और दीवारों पर चिपके पोस्टरों के माध्यम से आतंकवादी हमले की चेतावनी देती सरकार.....ऐसा नहीं लग रहा जैसे देश पर किसी दुश्मन राष्ट्र की नापाक निगाहें पड गई हों लेकिन घबराइए मत क्योंकि न तो दुश्मन ने हमला किया है और न ही देश किसी मुसीबत में है बल्कि यह तो हमारे राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस पर की जा रही तैयारियां हैं. गणतंत्र यानी जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा....इसीतरह गणतंत्र दिवस अर्थात जनता का राष्ट्रीय पर्व पर क्या आम जनता अपने इस राष्ट्रीय त्यौहार को उतने ही उत्साह के साथ मना पाती है जितने उत्साह से देश में होली,दिवाली और ईद जैसे धार्मिक-सामाजिक पर्व मनाये जाते हैं? राष्ट्रीय पर्व को उत्साह से मनाना तो दूर उलटे जनता से अपेक्षा की जाती है कि वह इस दिन आप...

रईसों के आँख-कान नहीं होते....

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क्या रईसों के आँख-कान नहीं होते? क्योंकि उनके पास दिल तो वैसे भी नहीं होता.कम से कम महान अभिनेता ‘पद्मश्री’ अवतार कृष्ण हंगल की बदहाली देखकर तो यही लगता है. शोले फिल्म के अमर संवादों में एक था-“यहाँ इतना सन्नाटा क्यों है भाई” और इसी के साथ याद आ जाता है मशहूर अभिनेता अवतार कृष्ण हंगल उर्फ ए के हंगल का चेहरा.भारतीय फिल्मों में आम आदमी का प्रतिनिधि चेहरा,नई पीढ़ी को पुराने दौर की याद दिलाता चेहरा और आम इन्सान के डर/झिझक/मज़बूरी को अभिव्यक्त करता चेहरा.सवा सौ से ज्यादा फिल्मों में काम कर चुके हंगल साहब के पास इलाज के पैसे नहीं है यह सुनकर शायद शाहरुख,सलमान और अमिताभ को जानने वाली पीढ़ी भरोसा न करे क्योंकि उसे तो यह पाता है कि इन्हें एक-एक फिल्म करने के लिए १० से २० करोड़ रूपए मिलना आम बात है और शायद यही कारण है कि नई पीढ़ी फिल्मों में जाने के लिए अपना चरित्र तक न्यौछावर करने को तैयार है .पर यदि उन्हें हंगल साहब और उन्ही की तरह के अन्य महान पर, दाने-दाने को मोहताज अभिनेताओं के बारे में बताया जाए तो वे शायद फिल्में देखना भी छोड़ देंगे.हंगल साहब को हाल ही में ‘लगान’ में एक चरित्र भूमिका में देखा ग...

अब नहीं रहेगा कोई ‘चवन्नी छाप’...

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सरकार ने जून से चवन्नी(पच्चीस पैसे) का सिक्का बंद करने की आधिकारिक घोषणा कर दी है.इसका तात्पर्य है कि जून के बाद दाम पचास पैसे(अठन्नी) से शुरू होंगे.वैसे असलियत तो यह है कि चवन्नी तो क्या अठन्नी को भी बाज़ार से बाहर हुए अरसा बीत गया है.अब तो भिखारी भी अठन्नी देखकर नाक-मुंह सिकोड़ने लगते हैं.बच्चों की टॉफी तक एक रुपये से शुरू होने लगी हैं.मेरी चिंता छोटे सिक्कों के बंद होने से ज्यादा इन पर बने मुहावरों के असरहीन होने और नई पीढ़ी को इन मुहावरों को सही परिपेक्ष्य में समझाने को लेकर है. सोचिये अब किसी को ‘चवन्नी छाप’ की बजाए अठन्नी या रुपया छाप कहा जाए तो कैसा लगेगा? इसीतरह अब आपने बच्चों को ‘सोलह आने सच’ का अर्थ समझाने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती है.पहले उन्हें सौ पैसे का रुपया बनने का इतिहास बताना पड़ता है और फिर यह सुनने के लिए भी तैयार रहना पड़ता है कि क्या रुपया सौ पैसे की बजाए मात्र सोलह आने का होता था.पुरानी पीढ़ी के तथा मुद्रा के जानकर जानते होंगे कि पहले पाई भी चलन में थी और इसी से बना था ‘हिसाब भाई-भाई का,रुपये-आने पाई का’.अब आप बताइए रुपये तक तो ठीक है आना-पी कैसे समझायेंगे.वैसे जि...

क्या हम कुछ दिन प्याज खाना बंद नहीं कर सकते..?

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क्या प्याज इतना ज़रुरी है कि वह हमारे दैनिक जीवन पर असर डाल सकता है? प्याज के बिना हम हफ्ते भर भी काम नहीं चला सकते? यदि हाँ तो फिर प्याज के लिए इतनी हाय-तौबा क्यों?और यदि नहीं तो फिर व्रत/उपवास/रोज़ा/फास्ट या आत्मसंयम का दिखावा क्यों? कहीं हमारी यह प्याज-लोलुपता ही तो इसके दामों को आसमान पर नहीं ले जा रही? मेरी समझ में प्याज न तो ऑक्सीजन है,न हवा है, न पानी है और न ही भगवान/खुदा/गाड है कि इसके बिना हमारा काम न चले. क्या कोई भी सब्ज़ी इतनी अपरिहार्य हो सकती है कि वह हमें ही खाने लगे और हम रोते-पीटते उसके शिकार बनते रहे? यदि ऐसा नहीं है तो फिर कुछ दिन के लिए हम प्याज का बहिष्कार क्यों नहीं कर देते? अपने आप जमाखोरों/कालाबाजारियों के होश ठिकाने आ जायेंगे और इसके साथ ही प्याज की कीमतें भी. बस हमें ज़रा सा साहस दिखाना होगा और वैसे भी प्याज जैसी छोटी-मोटी वस्तुओं के दाम पर नियंत्रण के लिए सरकार का मुंह ताकना कहाँ की समझदारी है. अगर आप ध्यान से देखें तो देश में प्याज के दाम बढ़ने के साथ ही तमाम राष्ट्रीय मुद्दे पीछे छूटने लगे हैं. भ्रष्टाचार के दाग फीके पड़ने लगे हैं और टू-जी स्पेक्ट्रम क...

आओ सब मिलकर कहें कार्ला ब्रूनी हाय-हाय

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फ़्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी की माडल पत्नी कार्ला ब्रूनी अपने कार्यों से ज्यादा अपनी अदाओं और कारगुजारियों के लिए सुर्ख़ियों में रहती हैं.कभी अपने कपड़ों को लेकर तो कभी नग्न पेंटिंग के लिए ख़बरों में रही कार्ला ने अपने एक बयान से भारत सरकार और कई स्वयंसेवी संगठनों की सालों की मेहनत पर पानी फेर दिया है.कार्ला ने आगरा के पास स्थित फतेहपुर सीकरी में एक मशहूर दरगाह पर अपने लिए बेटे की मन्नत मांगी.अपने लिए दुआ करना या कोई ख्वाहिश रखने में कोई बुरे नहीं है पर उस इच्छा को सार्वजनिक करना भी उचित नहीं ठहराया जा सकता.हमारा देश सदियों से “पुत्र-मोह” का शिकार है और इसका खामियाजा जन्मी-अजन्मी बेटियां सालों से भुगत रही हैं.कभी दूध में डुबोकर तो कभी अफीम चटाकर उनकी जान ली जाती है.अब तो आधुनिक चिकित्सा खोजों ने बेटियों को मारना और भी आसान बना दिया है.अब तो कोख में ही बेटियों की समाधि बना देना आम बात हो गयी है. सरकार के और सरकार से ज्यादा स्वयंसेवी संगठनों के अनथक प्रयासों के फलस्वरूप बेटियों को समाज में सम्मान जनक स्थान मिलने की सम्भावना नज़र आने लगी थी.पुत्र-मोह की बेड़ियाँ टूटने लगी थीं और बेटियां...

सोलह साल में आत्महत्या या फिर ऑनर किलिंग

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    जन्म:1994                                                                                                           मौत:2010 मृत्यु का कारण: परिवार वालों के मुताबिक ऑनर किलिंग अर्थात दबंगों ने असमय गला घोंट कर मार डाला. वहीँ दूसरे पक्ष का कहना है कि बढ़ती आवारागर्दी और लापरवाही ने जान ले ली.               सोलह साल की उम्र बड़ी कमसिन होती है.इस उम्र में जवानी और रवानगी आती है,सुनहरे सपने ...

आस्था पर प्रेम के प्रदर्शन से नहीं बच पाया मीडिया

जब बात आस्था से जुडी हो तो निष्पक्षता की उम्मीद बेमानी है. मीडिया और उससे जुड़े पत्रकार भी इससे अलग नहीं हैं. यह बात अयोध्या मामलें पर आये अदालती फैसले के बाद एक बार फिर साबित हो गयी है.इस विषय के विवेचन की बजाय मैं हिंदी और अंग्रेजी के अख़बारों द्वारा इस मामले में फैसे पर दिए गए शीकों (हेडिंग्स) को सिलसिलेवार पेश कर रहा हूँ .अब आप खुद ही अंदाजा लगा लीजिए की कौन किस पक्ष के साथ नज़र आ रहा है? या किस की आस्था किसके साथ है?या हमारा प्रिंट मीडिया कितना निष्पक्ष है? वैसे लगभग दो दशक पहले अयोध्या में हुए ववाल और उस पर प्रिंट मीडिया (उस समय टीवी पर समाचार चैनलों का जन्म नहीं हुआ था) की प्रतिक्रिया आज भी सरकार को डराने के लिए काफी है. खैर विषय से न भटकते हुए आइये एक नज़र आज(एक अक्टूबर) के अखबारों के शीर्षक पर डालें.... पंजाब केसरी,दिल्ली “जहाँ रामलला विराजमान वही जन्मस्थान ” नईदुनिया,दिल्ली “वहीँ रहेंगे रामलला” दैनिक ट्रिब्यून “रामलला वहीँ विराजेंगे” अमर उजाला,दिल्ली “रामलला विराजमान रहेंगे” दैनिक जागरण,दिल्ली “विराजमान रहेंगे रामलला” हरि भूमि.दिल्ली “जन्मभूमि श्री राम की”...

मातृत्व को तो बख्श दो मेरे भाई..

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. आजकल टीवी पर एक विज्ञापन बार-बार दिखाया जा रहा है जिसमें माँ अपने बच्चे को बिना किसी आवाज़ के जन्म दे रही है और बच्चा भी बिना रोये पैदा हो जाता है...विज्ञापन के अंत में आवाज़ आती है अपनी आवाज़ बचाकर रखना इंडिया क्योंकि आस्ट्रेलिया आ रहा है. दरअसल यह विज्ञापन जल्दी ही शुरू होने वाली भारत-आस्ट्रेलिया क्रिकेट को लेकर है.विज्ञापन कहता है कि मैचों के दौरान भारतीय टीम के समर्थन के सभी भारत वासियों को अभी बोलना नहीं चाहिए मतलब अपनी आवाज़ बचाकर रखनी चाहिए ताकि मैचों के समय जमकर शोर मचा सके. इस बात पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती कि हमें अपनी टीम का समर्थन करना चाहिए लेकिन इस अपील के लिए मातृत्व या कोख का अपमान तो ठीक नहीं है. मातृत्व मानव जीवन की सबसे अनूठी और यादगार उपलब्धि है. पूरे नौ महीने की तपस्या के बाद माँ अपनी कोख से नव-सृजन करती है और जन्म लेते बच्चे का रोना सुनने के लिए माँ ही नहीं पूरा परिवार और यहाँ तक कि डाक्टर-नर्स भी इंतज़ार करते हैं क्योंकि बच्चे के इस रुदन में ही उसके सेहतमंद होने का राज छिपा होता है. इसलिए प्रकृति के इस चमत्कार का अपमान किसी भी सूरत में नहीं किया जाना चाहिए....

कब तक सुधरेंगे हम भारतीय ?

डॉक्टर कलाम देश के पूर्व राष्ट्रपति के साथ साथ जाने माने वैज्ञानिक,चिन्तक,मार्गदर्शक और फिलासफर भी हैं.उन्होंने यह भाषण काफी समय पहले दिया था परन्तु इसकी उपयोगिता/सार्थकता और महत्त्व आज भी है और शायद तब तक रहेगा जब तक हम भारतीय अपने देश को कोसना और हमारी शासन प्रणाली को गरियाना बंद नहीं करेंगे.मुझे यह भाषण मेरे एक मित्र ने प्रेषित किया है.इसमें कलाम द्वारा कही गयी बाते इतनी ह्रद्रय-स्पर्शी हैं की मैं इसे आप सबके साथ साझा करने से स्वयं को रोक नहीं पाया.शायद यह हम सभी को रास्ता सुझाने का एक माध्यम बन जाये..... मेरी विनती है इसे एक बार पूरा पढ़िए ज़रूर... Dr. Abdul Kalam's Letter to Every Indian Why is the media here so negative? Why are we in India so embarrassed to recognize our own strengths, our achievements? We are such a great nation. We have so many amazing success stories but we refuse to acknowledge them. Why? We are the first in milk production. We are number one in Remote sensing satellites. We are the second largest producer of wheat. We are the second larges...

आप तय करें दिल्ली के लिए क्या बेहतर है!

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इन दिनों देश भर का मीडिया कामनवेल्थ खेलों पर ऑस्कर विजेता संगीतकार ए आर रहमान द्वारा तैयार थीम सॉंग पर चर्चा में उलझा हुआ है.हर किसी की अपनी ढपली अपना राग है.इसी बीच दिल्ली के पापुलर बैंड "यूफोरिया" ने दिल्ली का सॉंग पेश कर रहमान समर्थकों की मुश्किल बढ़ा दी है. मैं यहाँ दोनों गीतों को बिना किसी काट-छांट के पेश कर रहा हूँ.अब यह आप तय कीजिये कि दिल्ली के लिए या इन खेलों के लिए क्या बेहतर होता? वैसे रहमान साहब को सब-कुछ खुद कर दिखने की भावना के चलते इतनी आलोचनाए सहनी पड़ रही हैं.यदि वे इस गीत के लिए भी गुलज़ार साहब/जावेद अख्तर/प्रसून जोशी जैसे किसी गीतकार और दलेर पाजी जैसे गायक के साथ तालमेल बिठाते तो सोचिये क्या बात होती क्योंकि ये दिग्गज एकसाथ मिलकर फिर "जय हो..." या "चक दे..." जैसा धमाका कर दिखाते.वैसे इन गीतों को भी तो थीम सॉंग बनाया जा सकता था ? या फिर पुरानी फिल्मों से "भारत का रहने वाला हूँ भारत की बात...." जैसे किसी कालजयी गीत को ये सम्मान दिया जा सकता था.खैर ये फैसला तो हमारे हाथ में नहीं था कि कौन सा गीत चुना जाये पर हम गीतों के सुझाव तो दे ...

यार हद होती है चापलूसी की भी....

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क्या होता जा रहा है हमारे मीडिया को? खबरें खोजने की बजाये हमारे पत्रकार महिमामंडन या कटु परन्तु सीधी-सपाट भाषा में कहें तो चापलूसी पर उतर आये हैं.क्या राहुल गाँधी का एक पोलीथीन का टुकड़ा उठाकर कचरापेटी में डालना इतनी बड़ी खबर है जिसे घंटों तक आम आदमी को झिलाया जाये? आप पूछ सकते हैं कि मुझे क्या पड़ी थी लगातार उस खबर को देखने की? तो साहब सभी न्यूज़ चैनलों का यही हाल है.जब पूरी दाल ही काली हो तो फिर बेस्वाद दाल खाना मज़बूरी हो जाती है.यह माना जा सकता है कि चैनल राहुल कि सादगी को आम लोगों को प्रेरित करने के लिए दिखा रहे थे तो इतनी प्रेरणा किस काम की, कि देखने वाले को ही खीज होने लगे. शायद इसीलिए लोग चिडकर यह कहते सुने गए कि राहुल गाँधी ने कौन सा अलग काम किया है-अरे वे अपने पिता की समाधि को ही तो साफ़-सुथरा कर रहे थे और यह परंपरा तो सदियों से हमारे समाज का हिस्सा है कि हम अपना घर/पूर्वजों का स्थान/आस-पास का क्षेत्र साफ़ रखते हैं. वैसे भी राहुल गाँधी देश के सांसद (जनप्रतिनिधि) हैं इसलिए यह उनका दायित्व है कि वे देश को साफ़-सुथरा रखने में अपना योगदान दे. मै एक बात यहाँ साफ़ कर देना चाहता हूँ कि मेर...

मिला वो चीथड़े पहने हुए मैंने पूछा नाम तो बोला हिन्दुस्तान

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प्रख्यात कवि दुष्यंत कुमार किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं.समय पर कटाक्ष करती उनकी कविताएँ आज भी उतनी ही मौजूं हैं.देश के  स्वतन्त्रता दिवस की ६३ वीं वर्षगांठ पर दुष्यंत जी के गुलिश्तां से पेश हैं चंद सशक्त और समयानुकूल कविताएँ: १ एक गुडिया की कई कठपुतलियों में जान है, आज शायर ये तमाशा देख कर हैरान है. ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए, यह हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है एक बूढा आदमी है मुल्क में या यों कहो, इस अँधेरी कोठारी में एक रौशनदान है. मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम, तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है. इस कदर पाबंदी-ए-मज़हब की सदके आपके जब से आज़ादी मिली है, मुल्क में रमजान है कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए, मैंने पूछा नाम तो बोला की हिदुस्तान है. मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ, हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है. २ आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख, पर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख। एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख। अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह, यह हक़ीक़...

कब सुधरेंगे हमारे माननीय...?

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देश के जनप्रतिनिधि अपनी कारगुजारियों के लिये कम बदनाम नहीं हैं.कभी पैसा लेकर सवाल पूछने को लेकर तो कभी संसद में लात-घूंसे चलने को लेकर वे चर्चा में बने रहते हैं.संसद से गायब रहना तो अधिकतर जन्प्रतिनिधियों की फितरत बन गए है.लेकिन अभी तक ये बातें सिर्फ सुनी-सुनाई थी पर हाल ही में आये एक रिपोर्ट ने ऐसे ही कई रहस्यों को सार्वजनिक कर दिया है. स्वयंसेवी संगठन मास फॉर अवेयरनेस के “वोट फार इंडिया” अभियान द्वारा १५ वीं लोकसभा के २००९-१० के पहले एक साल के काम-काज पर आधारित रिपोर्ट “रिप्रेजेंटेटिव एट वर्क” में लोकसभा के प्रत्येक सांसद के साल भर के कार्यों का लेखा जोखा दिया गया है. रिपोर्ट में लोकसभा के काम-काज को दस भागों में बांटा गया है.पहले भाग ‘उपस्थिति’ में कुल सात सांसद ने सौ फीसद उपस्थित रहकर लोकसभा के प्रति गंभीरता का प्रदर्शन किया है. इनमें छः सांसद कांग्रेस के हैं. खास बात यह है कि लोकसभा की कुल ८६ बैठकों में ९० फीसद से ज्यादा उपस्थिति वाले सांसदों की संख्या भी लगभग १०० है.राज्यों के हिसाब से मणिपुर के सांसदों कि सदन में उपस्थिति सबसे ज्यादा रही है. रिपोर्ट का दूसरा भाग लोकसभा के प्रश्न...

यदि महिलाएं डायन हैं तो पुरुष कुछ क्यों नहीं?

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पिछले दिनों तमाम अख़बारों में एक दिल दहलाने देने वाली खबर पढ़ने को मिली.इसमें लिखा गया था कि देश में अभी भी महिलाओं को डायन बताकर मारा जा रहा है.दादी-नानी से सुनी कहानियों के मुताबिक डायन वह महिला होती है जो दूसरों के ही नहीं बल्कि अपने बच्चे तक खा जाती है.इन कहानियों के आधार पर बचपन में मेरे मन में डायन कि कुछ ऐसी डरावनी छवि बन गयी थी जैसी कि अंग्रेजी फिल्मों में ड्राकुला की होती है.मसलन लंबे भयानक दांत.कुरूप चेहरा,गंदे व खून से लथपथ नाखून इत्यादि वाली महिला! परन्तु जब भी डायन बताकर मारी गयी महिला की तस्वीर देखता तो वो इस छवि से मेल नहीं खाती थी.कभी दादी-नानी से पूछा तो वे भी संतुष्टिपूर्ण जवाब नहीं दे पायीं.वक्त के साथ समझ आने पर डायन कथाओं और इनके पीछे की हकीकत समझ में आने लगी. ऊपर मैंने जिस खबर का उल्लेख किया है उसमें एक गैर सरकारी संस्था रूरल लिटिगेशन एंड एनटाइटिलमेंट केंद्र द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार बताया गया था कि देश में हर साल 150-200 महिलाओं को डायन बताकर मार डाला जाता है। इस संस्था ने राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकडों के हवाले से बताया कि इस सूची में झारखंड का स्थान...

बेटियों की बात या देह-दर्शन का बहाना ..?

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महात्मा गाँधी से जुड़ा एक मशहूर किस्सा है.उनके पास एक महिला अपने बच्चे को लेकर आई .महिला ने बताया कि उसका बेटा बहुत ज्यादा गुड़ खाता है और वह उसकी इस आदत को छुड़ाना चाहती है.मैंने सुना है कि यदि गांधीजी किसी को समझा दे तो वह एक ही बार में अपनी बुरी आदत छोड़ देता है इसलिए मैं इसे आपके पास लेकर आयीं हूँ.गांधीजी ने उस महिला से कहा कि वह एक हफ्ते बाद आये.बापू की बात मानकर महिला चली गयी और सप्ताह भर बाद पुनः आई.गांधीजी ने उसके बेटे को गुड़ की अच्छाई और बुराइयां दोनों बताई और ज्यादा गुड़ नहीं खाने की सलाह दी.महिला के जाने के बाद उनके एक शिष्य ने पूछा-बापू यह बात तो आप हफ्ते भर पहले भी बता सकते थे तो फिर आपने महिला को सप्ताह भर बाद क्यों बुलाया था?गांधीजी ने उत्तर दिया-दरअसल हफ्तेभर पहले तक मैं खुद भी गुड़ खाता था.जो काम मैं खुद कर रहा हूँ तो दूसरे को कैसे मना कर सकता हूँ.सप्ताह भर में मैंने अपनी गुड़ खाने की आदत को त्याग दिया इसलिए उस बच्चे को भी ऐसा कर पाने की बात आत्मविश्वास के साथ समझा पाया लेकिन हमारा मीडिया बापू की तरह महान नहीं है.वह जो काम खुद करता है वही दूसरों को करने से रोकता है. आप...

कहीं हम साज़िश का शिकार तो नहीं बन रहे...?

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पिछले कुछ दिनों के दौरान न्यूज़ चैनलों पर आई खबरों से शुरुआत करते हैं: • क्या आप डबलरोटी की जगह पाँव रोटी खा रहे हैं? • ज़हरीले ढूध से बनी चाय पी रहे हैं आप? • आप की लौकी में ज़हर है? • खोवा और पनीर भी मिलावटी? • ज़हरीला करेला खा रहे हैं आप? • ओक्सिटोसिन से पक रहे हैं फल? ये तो महज बानगी है.ऐसी ही कोई न कोई खबर आप रोज न्यूज़ चैनलों या हिंदी-अंग्रेजी के अखबारों में देखते हैं.अगर आप ध्यान से सोचें तो पता लगेगा कि ऐसी ख़बरों की कुछ दिन से बाढ़ सी आ गयी है.क्या एकाएक मिलावट इतनी ज्यादा बढ़ गयी है? या हमारे पत्रकार ज्यादा ही मुस्तैद हो गए हैं? या फिर हम किसी बड़ी साज़िश के शिकार बन रहे हैं? इन ख़बरों का फायदा किसे हो रहा है?और इन ख़बरों से किसे नुकसान हो रहा है? आइये अब इन बातों और कारणों का विश्लेषण करें. देश में बेकरी का खुदरा कारोबार घरेलू तौर पर किया जाता है.कई परिवार पुश्तैनी रूप से यह काम कर रहे हैं.इसीतरह सहकारी आधार पर और छोटी घरेलू कंपनियों द्वारा भी बेकरी का काम किया जाता है.इस क्षेत्र में अब नामी ब्रांड और विदेशी कंपनियों का दखल बढ़ रहा है.कुछ यही हाल स्टेशनों पर मिलने वाली चाय का ह...

आम आदमी का दर्द अभिव्यक्त करते गाने

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कभी कभी कुछ गाने ऐसे बन जाते हैं जो उस दौर का प्रतिनिधित्व करने लग जाते हैं और आम जनता की आवाज़ बनकर सत्ता प्रतिष्ठान की मुखालफत का माध्यम बनकर लोगों के दिल-ओ-दिमाग में खलबली तक पैदा कर देते हैं.जल्द ही रिलीज होने वाली फिल्म ‘पीपली लाइव’ का यह गीत भी महंगाई के खिलाफ राष्ट्रीय गीत बन गया है.इस गाने के बोल-“सखी सैंया तो खूब ही कमात है,महंगाई डायन खाय जात है.”ने भी लोगों को झकझोर दिया है.आलम यह है कि इस गाने को कांग्रेस विरोध की धुरी बनाने के लिए भाजपा ने बकायदा गीत के कापीराईट हासिल करने के प्रयास शुरू कर दिए हैं. यदि आप भूले न हो तो चंद साल पहले भी एक गाना जनता ही नहीं सरकार की उपलब्धियों की आवाज़ बन गया था.यह गाना था फिल्म ‘स्लमडोग मिलिनियर’ में ऑस्कर विजेता संगीतकार ए आर रहमान का स्वर और संगीतबद्ध किया गया “जय हो”.तब कांग्रेस ने बकायदा इस गीत के अधिकार लेकर इसे अपने चुनाव प्रचार का मुख्य हथियार बना लिया था.इस गीत ने आम जनता पर भी जादू किया और कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो गई. फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ के गीत “आल इज वैल” ने स्कूल-कालेज के छात्रों को स्वर दे दिया था. ऐसा नहीं है कि आज के दौर...

रसोई और बिस्तर के अलावा भी है औरत

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स्त्री पर पुरातन काल से कवियों की कूची चलती रही है.हर कवि/कवियत्री ने स्त्री को अपनी-अपनी आँखों से देखा है और बदलते काल और दौर के साथ स्त्रियों को लेकर अभिव्यक्तियाँ बदलती रही हैं.शायद इसलिए हमें विभिन्न समयों में स्त्री को विविध कोणों से समझने का अवसर मिलता है.पिछले दिनों कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति,बंगलुरु के तत्वावधान में 'समकालीन महिला लेखन' पर एक संगोष्ठी का आयोजन हुआ.इसमें कई जानी-मानी वक्ताओं ने अपने विषय केन्द्रित संबोधनों में स्त्रियों से जुडी अनेक कविताओं/क्षणिकाओं का उल्लेख किया. मैंने कुछ चुनिन्दा कविताओं को आपके लिए बटोरने का प्रयास किया है.जो बदलती स्त्री से रूबरू कराती हैं. खास बात यह है कि ये महिलाएं "अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी "वाली परिपाटी से हटकर सोचती हैं. प्रज्ञा रावत कहती हैं- जितना सताओगे उतना उठुगीं जितना दबाओगे उतना उगुगीं जितना बाँधोगे उतना बहूंगी जितना बंद करोगे उतना गाऊँगी जितना अपमान करोगे उतनी निडर हो जाउंगी जितना सम्मान करोगे उतनी निखर जाउंगी वहीँ निर्मला पुतुल पूछती हैं- क्या तुम जानते हो एक स्त्री के समस्त ...

कब बदलेगा ‘पाल’ और ‘हीरामन तोते’ का फर्क

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एक बार स्वामी विवेकानंद को नाराज़ करने के लिए एक विदेशी ने पूछा कि यूरोप के लोग दूध की तरह सफ़ेद हैं तो अफ्रीका के लोग कोयले की तरह काले,फिर इंडिया के लोग क्यों आधे-अधूरे रह गए हैं?इसपर विवेकानंद ने उससे पूछा कि तुमने कभी रोटी को बनते देखा है?जब रोटी सफ़ेद रह जाती है तो उसे कच्चा माना जाता है और हम उसे नहीं खाते.इसीतरह जब रोटी जलकर काली हो जाती है तो उसे भी नहीं खाया जाता लेकिन जो रोटी ठीक ठाक चिट लगी होती है तो उसको सभी चाव के साथ खाते हैं.दरअसल हम भारतीय लोग इस बीच वाली रोटी की तरह हैं बिलकुल संतुलित.....अब दुःख की बात यह है कि स्वामी विवेकानंद जैसे तमाम विद्वान चाहकर भी विदेशियों के दिमाग में हम भारतियों को लेकर बने भेदभाव को नहीं मिटा पाए.यही कारण है कि यदि यूरोप का एक ऑक्टोपस विश्व कप फुटबाल की भविष्वाणी करता है तो दुनिया भर का मीडिया और सेलिब्रिटी उसके मुरीद हो जाते हैं जबकि यही काम हमारा हीरामन तोता सदियों से कर रहा है तो उसे पोंगा-पंडित,रुढिवादिता और पोंगापंथी जैसे तमाम विशेषणों से नवाज़ा जाता है.यहाँ तक कि आज भी वे भारत को तांत्रिकों ,बाबा-बैरागियों और गंवारों का देश मानते हैं.क्...

धोनी के घोड़े से एक्सक्लूसिव बातचीत

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भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी के विवाह ने मीडिया जगत में हडकंप मचा दिया है.पत्रकारों और बाईट वीरों(इलेक्ट्रानिक मीडिया) को लग रहा है कि इतना बड़ा स्कूप उनसे छूट कैसे गया?टेस्ट से लेकर वनडे और २०-२० तक में धोनी का धमाल तो समझ में आता है पर शादी में भी उनका खेल दिखाना मीडिया को हजम नहीं हो रहा है.न्यूज़ चैनलों में होड़ मची है कि कौन धोनी के बारे में अन्दर तक की खबरें निकाल पाता है.इसलिए कोई अभिनेत्री विपाशा बासु के घर शादी का जश्न मनवा रहा है तो कोई नृत्य निर्देशक फरहा खान को शादी में भेज रहा है? ये बिचारे रोज इस बात से इन्कार कर रहे है. ऐसे ही एक बाईट वीर 'एक्सक्लूसिव' के चक्कर में उस घोड़े तक पहुँच गए जिसपर बैठकर धोनी ने विवाह रचाया था(हालाँकि कई पत्रकार घोड़े को नकली बता रहे हैं उनका कहना है कि असली घोडा तो विवाह के बाद से घोडा बिरादरी को छोड़कर गायब है.) बाईटवीर ने घोड़े वाले की बजाय सीधे घोड़े से बात कर उसकी पहली प्रतिक्रिया अपने चैनल पर चलाने और उसकी फीलिंग जानने का फैसला किया.पेश हैं बाईट वीर और घोड़े के बीच सवाल-जवाब: बाईट वीर:कैसा लग रहा है धोनी को अपने ऊपर ब...