शनिवार, 3 अगस्त 2013

यह प्यार है या फिर क्षणिक वासना का आवेग...!

ये कैसा प्यार है जो अपने सबसे आत्मीय व्यक्ति पर कुल्हाड़ी चलाने का दुस्साहस करने दे? या दुनिया में सबसे प्रिय लगने वाले चेहरे को ही तेज़ाब से विकृत बना दे या फिर जरा सा मनमुटाव होने पर गोली मारकर अपने प्रेमी की जान ले लेने की हिम्मत दे दे? यह प्यार हो ही नहीं सकता.यह तो प्यार के नाम पर छलावा है,दैहिक आकर्षण है या फिर मृग-मरीचिका है. प्यार तो सब-कुछ देने का नाम है, सर्वत्र न्यौछावर कर देने  और हँसते हँसते अपना सब कुछ लुटा देने का नाम है.प्यार बलिदान है,अपने प्रेमी पर खुशी-खुशी कुर्बान हो जाना है और खुद फ़ना होकर प्रेमी की झोली को खुशियों से भर देने का नाम है. यह कैसा प्यार है जो साल दो साल साथ रहकर भी एक-दूसरे पर विश्वास नहीं जमने देता. प्यार तो पहली मुलाक़ात में एक दूसरे को अपने रंग में रंग देता है और फिर कुछ पाने नहीं बल्कि खोने और अपने प्रेमी पर तन-मन-धन लुटा देने की चाहत बढ़ जाती है.प्यार के रंग में रंगे के बाद प्रेमी की खुशी से बढ़कर कुछ नहीं रह जाता.
मजनूं ने तो लैला पर कभी चाकू-छुरी नहीं चलाई? न ही कभी तेज़ाब फेंका? उलटे जब मजनूं से जमाना रुसवा हुआ तो लैला ढाल बन गई,पत्थरों की बौछार अपने कोमल बदन पर सह गयी.तभी तो उनका नाम इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में दर्ज है.इसीतरह न ही कभी महिबाल को सोहिनी पर और न ही हीर-राँझा को एक दूसरे पर कभी शक हुआ और न ही एक-दूसरे को मरने मारने की इच्छा हुई. वे तो बस एक दूसरे पर मर मिटने को तैयार रहते थे.एक दूसरे की खुशी के लिए अपना सुख त्यागने को तत्पर रहते थे. वे कभी एक दूसरे के साथ मुकाबले,प्रतिस्पर्धा,ईर्ष्या,द्वेष और जलन में नहीं पड़े. यह भी उस दौर की बात है जब प्रेमी-प्रेमिका का मिलना-साथ रहना तो दूर एक झलक पा जाना ही किस्मत की बात होती थी.तमाम बंदिशें,बाधाएं,रुकावटें,सामाजिक-सांस्कृतिक बेड़ियों के बाद भी वे एक दूसरे पर कुर्बान हो जाते थे. मीरा ने कृष्ण के प्रेम में हँसते-हँसते जहर का प्याला पी लिया था. प्रेमी का अर्थ ही है एक-दूसरे के हो जाना,एक-दूसरे में खो जाना,एक-दूसरे पर जान देना और दो शरीर एक जान बन जाना, न कि एक दूसरे की जान लेना. प्रेम होता ही ऐसा है जिसमें अपने प्रियजन के सम्बन्ध में सवाल-जवाब की कोई गुंजाइश ही नहीं होती. आज के आधुनिक दौर में जब युवाओं को एकदूसरे के साथ दोस्ती बढ़ाने,घूमने-फिरने,साथ रहने और सारी सीमाओं से परे जाकर एक- दूसरे के हो जाने की छूट हासिल है उसके बाद भी उनमें अविश्वास का यह हाल है कि जरा सी नाराजगी जानलेवा बन जाती है, किसी और के साथ बात करते देख लेना ही  मरने-मारने का कारण बन जाता है. जिससे आप सबसे ज्यादा प्यार करने हैं उस पर तेज़ाब फेंकने की अनुमति आपका दिल कैसे दे सकता है फिर आप चाहे उससे लाख नाराज हो.अब तो लगता है कि इंस्टेंट लवने प्यार की गहराई को वासना में और अपने प्रेमी पर मर मिटने की भावना को मरने-मारने के हिंसक रूप में तब्दील कर दिया है. शिक्षा के सबसे अव्वल मंदिरों में ज्ञान के उच्चतम स्तर पर बैठे युवाओं का यह हाल है कि वे प्रेम के ककहरे को भी नहीं समझ पा रहे और क्षणिक और दैहिक आकर्षण को प्यार समझकर अपना और अपने साथी का जीवन बर्बाद कर रहे हैं. शायद यही कारण है कि इन दिनों समाज में विवाह से ज्यादा तलाक़ और प्रेम से ज्यादा हिंसा बढ़ रही है.मनोवैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों का मानना है कि समाज एवं परिवार से कटे आत्मकेंद्रित युवाओं में किसी को पाने की इच्छा इतनी प्रबल हो गयी है कि वे इसके लिए बर्बाद होने या बर्बाद करने से भी पीछे नहीं हटते. क्षणिक सुख की यह ज़िद समाज में नैतिक पतन का कारण बन रही है और इससे प्रेम जैसा पवित्र,पावन और संसार का सबसे खूबसूरत रिश्ता भी कलंकित हो रहा है. (चित्र सौजन्य:fanpop.com)  


गुरुवार, 25 जुलाई 2013

हे भगवान,यह क्या सिखा रही है मेट्रो ट्रेन हमें...?

दिल्ली की जीवन रेखा बन चुकी नए जमाने की मेट्रो ट्रेन में चढ़ते ही एक सन्देश सुनाई देता है इस सन्देश में यात्रियों को सलाह दी जाती है कि किसी भी अनजान व्यक्ति से दोस्ती न करे. जब जब भी मैं यह लाइन सुनता हूँ मेरे दिमाग में यही एक ख्याल आता है कि  क्या नए जमाने की मेट्रो ट्रेन हमें दोस्ती का दायरा सीमित रखने का ज्ञान दे रही है? सीधी और सामान्य समझ तो यही कहती है कि यदि हम अपने साथ यात्रा करने वाले सह यात्रियों या अनजान लोगों से जान-पहचान नहीं बढ़ाएंगे तो फिर परिचय का दायरा कैसे बढ़ेगा और जब परिचय का विस्तार नहीं होगा तो दोस्ती होने का तो सवाल ही नहीं है. तो क्या हमें कूप-मंडूक होकर रह जाना चाहिए? या जितने भी दो-चार दोस्त हैं अपनी दुनिया उन्हीं के इर्द-गिर्द समेट लेनी चाहिए. वैसे भी आभाषी (वर्चुअल) रिश्तों के मौजूदा दौर में मेट्रो क्या, किसी से भी यही अपेक्षा की जा सकती है कि वह आपको यही सलाह दे कि आप कम से कम लोगों से भावनात्मक सम्बन्ध बनाओ और आभाषी दुनिया में अधिक से अधिक समय बिताओ.इससे भले ही घर-परिवार टूट रहे हों परन्तु वेबसाइटों.इंटरनेट और इनके सहारे धंधा करने वालों की तो मौज है.

  अभी तक रेलवे द्वारा संचालित ट्रेनों में और स्टेशनों पर यह जरुर सुनने/पढने को मिलता था कि किसी अनजान व्यक्ति के हाथ से कुछ न खाए.यहाँ तक तो बात फिर भी समझ में आती है कि जिसे आप जानते नहीं है उसके हाथ से कुछ भी खाना-पीना व्यक्तिगत सुरक्षा के लिहाज से उचित नहीं है. ट्रेनों में ज़हरखुरानी या नशीले पदार्थ खिलाकर आम यात्रियों को लूटने की बढ़ती घटनाएं रेलवे की इस नसीहत को उचित भी ठहराती हैं लेकिन किसी से मिले नहीं,मेल-जोल न बढ़ाएं और दोस्ती ही न करें. भला यह कैसी बात हुई? यह तो भारतीय संस्कृति की भावनाओं के खिलाफ उल्टी गंगा बहाने वाली बात हुई. कहाँ तो हमारी संस्कृति मिल-जुलकर रहने,भाईचारे और पंचशील के सिद्धांत की बात करती है,वहीं नए ज़माने की मेट्रो ट्रेन हमें अपने ही लोगों से दूर जाने का पाठ पढ़ा रही है.वैसे दिल्ली मेट्रो कई उलटबांसियों का शिकार है.मसलन मेट्रो में चढ़ते ही सन्देश गूंजने लगता है कि कृपया बुजुर्गों,विकलांगों और महिलाओं को सीट दें,लेकिन उस समय सीट पर बैठकर मोबाइल के दीन दुनिया से परे खिलवाड़ में डूबे लोग आँख बन्द कर सोने का बहाना करके या फिर कानों में ईयर प्लग ठूंसकर इसे आमतौर पर अनसुना करते रहते हैं. इसीतरह एक अन्य सन्देश में आगाह किया जाता है कि मेट्रो ट्रेन में खाना-पीना वर्जित है,परन्तु लोग इस निर्देश को ताक पर रखकर पूरी ठसक के साथ चिप्स,बर्गर और पता नहीं क्या क्या अपने पेट में उतारते रहते हैं. इस मामले में सबसे आगे हमारी नई पीढ़ी और विज्ञापनों की भाषा में ‘जनरेशन एक्स’ है. इस पीढ़ी ने तो मानो  सारे निर्देशों,सलाह और सुझावों को रद्दी की टोकरी में डालने का फैसला कर रखा है तभी तो मेट्रो की बार-बार समझाइश के बाद भी वे ट्रेन के फर्श पर बैठकर मनमानी करते हैं,मेट्रो में प्रतिबन्ध के बाद भी जमकर एक दूसरे के फोटो खींचते हैं,वीडियो बनाते हैं ,जोर से गाना सुनते-सुनाते हैं भले ही आस-पास के लोग परेशान हो जाएँ और अब तो उनके कुछ कारनामे न्यूज़ चैनलों और अश्लील वेबसाइटों तक पर सुर्ख़ियों में हैं.ऐसे में दोस्ती,रिश्ते-नातों और भावनाओं की क्या अहमियत रह जाती है? शायद मेट्रो भी यही कहना चाहती है कि बस अपना उल्लू सीधा करो और सामुदायिक को दरकिनार कर आगे बढते रहो.   

गुरुवार, 23 मई 2013

क्रिकेट की कालिख को अपने पसीने और सपनों से धोता युवा भारत


दिल्ली की झुलसा देने वाली गर्मी में दोपहर के तीन बजे इंदिरा गाँधी स्टेडियम के बास्केटबाल कोर्ट में पसीने से लथपथ सातवीं कक्षा की आद्या से लेकर ग्यारहवीं के अखिलेश तक हर एक बच्चे की आँखों में एक ही सपना नजर आता है-पहले स्कूल और फिर देश के लिए खेलना. पैसों,प्रसिद्धि,प्रतिष्ठा और प्रभाव से भरपूर क्रिकेट के सर्वव्यापी आतंक के बीच इन बच्चों का पैंतालीस डिग्री तापमान में घर से बाहर निकलकर दूसरे खेलों में रूचि दिखाना देश के लिए भी उम्मीद की किरण जगाता है. बास्केटबाल ही क्यों बच्चों के ऐसे झुण्ड सुबह सात बजे से लेकर शाम छह बजे तक बैडमिंटन,टेनिस,फ़ुटबाल से लेकर अन्य तमाम खेलों में उत्साह के साथ तल्लीन नजर आते हैं. न उन्हें तपते कोर्ट की चिंता है और न ही आने-जाने में होने वाली परेशानियों की. भोपाल,इंदौर,पटना लखनऊ से लेकर अहमदाबाद तक कमोवेश यही स्थिति है.बस फर्क है तो शायद सुविधाओं का मसलन दिल्ली में भारतीय खेल प्राधिकरण के उम्दा कोचों से लेकर कई निजी प्रशिक्षक बच्चों में खेलने की जिज्ञासा बढ़ा रहे हैं तो दूसरे शहरों में कम सुविधाओं और कम नामी कोच के बाद भी बच्चे जी-जान से जुटे हैं. गर्मी की छुट्टियाँ पड़ते ही बच्चे और उनके अभिभावक भविष्य के लिए नए रास्ते खोलने में जुट गए हैं क्योंकि गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में मार्कशीट पर दमकते अंकों भर से गुजारा नहीं है इसलिए कुछ न कुछ तो हटकर आना ही चाहिए.
         यहाँ बात प्रतिस्पर्धा की नहीं बल्कि अन्य खेलों में बच्चों की बढ़ती दिलचस्पी की हो रही है. बच्चे न भी समझे तो भी उनके माता-पिता तो इस बात को बखूबी जानते हैं कि उनका सरदारा सिंह देश के लिए कितनी भी ट्राफियां और तमगे बटोर ले फिर भी विराट कोहली या महेंद्र सिंह धोनी की लप्पेबाजी के बराबर सुर्खियाँ और ऐशोआराम ताउम्र नहीं जुटा पाएगा. मार्के की बात यही है कि यह सब जानने के बाद भी उन्होंने क्रिकेट को अपना धर्म और क्रिकेटरों को अपना भगवान नहीं माना. वे अपने बच्चों को प्रकाश पादुकोण, सानिया मिर्जा ,पीटी उषा और दीपिका कुमारी बनाकर भी खुश हैं. खेल से लेकर सिनेमा में और लेखन से लेकर राजनीति तक में लीक से हटकर काम करने वाला या धारा के विपरीत  चलने वाला यह विद्रोही तबका ही उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद जगाता है. यह विद्रोही प्रवृत्ति नहीं तो क्या है कि निजी ए़वं कारपोरेट सेक्टर में मिल रही मोटी तनख्वाह के बाद भी सैकड़ों युवा सेना में भर्ती होकर देश के लिए कुर्बान होने को तत्पर हैं या फिर प्रबंधन की ऊँची फीस वाली शिक्षा के बाद विदेश में लाखों रुपये महीने के वेतन को त्यागकर नवयुवक देश में ही कुछ कर दिखाने का संकल्प ले लेते हैं. वैसे भी जब लाखों-करोड़ों रुपए के बारे-न्यारे करने वाले क्रिकेट के तथाकथित ‘भगवानों’ के आचरण,नीयत,धनलोलुपता और समर्पण पर ही सवाल खड़े होने लगे हों और मिलीभगत से बने फटाफट क्रिकेट की कालिख गहराने लगी हो तब यह और भी जरुरी हो जाता है कि बच्चे उन वास्तविक खेलों से रूबरू हों जहाँ एक-एक पदक के लिए दुनिया भर के तमाम देशों के सैकड़ों दिग्गज खिलाड़ी जान लड़ा देते हैं न की अँगुलियों पर गिने जा सकने वाले देशों के बीच होने वाले ‘कथित’ मुकाबले में चंद चौके-छक्के लगाकर रातों रात शोहरत बटोरने वाले खेल से. नई पीढ़ी के पसीने की गंध से क्रिकेट के पीछे आँख बन्द कर भागने वाले प्रायोजकों और मीडिया के खबरनवीसों को भी शायद होश आए और वे भी क्रिकेट की मृगतृष्णा से बाहर निकलकर असली खेलों और खिलाड़ियों का महत्व समझ सकें.          

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

बदल रही है हवा, इसके आंधी बनने से पहले सुधर जाओ मेरे यारो

सूचनार्थ: जुगाली के इसी लेख को 'सादरब्लागस्ते ' द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में राजधानी की प्रतिष्ठित संस्था शोभना वेलफेयर सोसाइटी द्वारा "ब्लाग रत्न" सम्मान से सम्मानित किया गया है....आप सभी सुधी पाठकों के लिए पेश है यह पुरस्कृत  आलेख.....
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महिलाओं के साथ बेअदबी और बदसलूकी से भरे विज्ञापनों के बीच छोटे परदे पर इन दिनों प्रसारित हो रहा एक विज्ञापन बरबस ही अपनी और ध्यान खींच रहा है.वैसे तो यह विज्ञापन किसी पंखे का है लेकिन इसकी पंचलाइन “हवा बदल रही है” चंद शब्दों में ही सामाजिक बदलाव की कहानी कह जाती है. विज्ञापन में एक युवा जोड़ा कोर्ट मैरिज के लिए आवेदन करता सा नजर आता है और जब वहां मौजूद महिला अधिकारी युवती से पूछती है कि विवाह के बाद उसका सरनेम बदलकर क्या हो जाएगा? तो उसके कोई जवाब देने से पहले ही साथी युवक कहता है कि इनका सरनेम नहीं बदलेगा बल्कि मैं अपना सरनेम इनके सरनेम से बदल रहा हूँ. यह सुनकर महिला अधिकारी के साथ-साथ टीवी के सामने बैठे कई परिवार भी मंद-मंद मुस्कराने लगते हैं. दरअसल भारतीय समाज में विवाह के बाद भी महिला का ‘सरनेम’ बरक़रार रहना या पति द्वारा पत्नी का सरनेम अपनाना हमारी मानसिकता में बड़े बदलाव का परिचायक है.    
वाकई में हवा बदल तो रही है या यों कहें कि बदलाव की बयार सी चल पड़ी है. हवा में मिली परिवर्तन की महक से महानगरों के साथ गाँव-कस्बे भी महकने लगे हैं. अब बस इंतज़ार तो इस बात का है कि देश कब इस बदलाव की खुशबू में शराबोर होता है क्योंकि जैसे जैसे बदलाव की यह हवा जोर पकडेगी इसकी रफ़्तार आंधी में तब्दील हो जाएगी और जब आंधी चलती है तो वह सब-कुछ बदलकर रख देती है. वह पुरानी परिपाटियों,रूढ़ियों,बेड़ियों और सड़ी-गली व्यवस्थाओं को तहस-नहस कर नए जीवन और नई सोच का सृजन करती है. कुछ ऐसा ही बदलाव इन दिनों समाज में महिलाओं के प्रति दिखाई पड़ रहा है. हालांकि समाज में इस परिवर्तन की रफ़्तार बहुत धीमी है लेकिन जैसे शरीर को झुलसा देने वाली तपिश के दौरान मंद-मंद बहने वाली हवा भी राहत पहुंचती है उसी तरह महिलाओं के प्रति समाज में आ रहा यह बदलाव भले ही अभी प्रतीकात्मक है लेकिन आशा और विश्वास से भरपूर है तथा इसने आमूल-चूल परिवर्तन की बुनियाद तो रख ही दी है. 
      परिवर्तन का असर चहुँओर दिखाई दे रहा है. दिल्ली में ‘निर्भया’ के साथ हुए चलती बस में हुए सामूहिक बलात्कार की दुखद घटना के बाद गुस्से से उठ खड़े हुए समाज ने भी बदलाव की विश्वास जगाने वाली तस्वीर पेश की थी. इसके बाद तो मानो देश के कोने-कोने से ‘बदलो-बदलो’ की आवाज़ आने लगी है. महानगरों में ‘स्लटवाक’ जैसे आयोजन, सरकार द्वारा महिलाओं के हित में कानून में किये जा रहे संशोधन, हर क्षेत्र में बेटियों को मिलती सफलता, मलाला युसुफजई और हमारी निर्भया का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित होना, प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के विभिन्न स्तरों पर महिलाओं की बढ़ती भागीदारी, मेट्रो से लेकर महानगरों की बसों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें, टीवी पर महिलाओं की सशक्त भूमिका वाले धारावाहिक और विज्ञापन, सरकारी स्तर पर महिला बैंक खोलने और महिलाओं की सुरक्षा के लिए ‘निर्भया कोष’ बनाने की घोषणा जैसे तमाम कदम प्रतीकात्मक, मामूली और शायद कुछ लोगों को दिखावे भरे लग सकते हैं लेकिन किसी भी स्तर पर कम से कम शुरुआत तो हो रही है. मीडिया भी टीआरपी के लिए ही सही परन्तु महिला मामलों में सजग हो रहा है. आए दिन सामने आ रहे समाचार बता रहे हैं कि एक दूसरे से प्रेरणा लेकर बेटियाँ बाल विवाह का खुलकर विरोध करने लगी हैं. अपने मजबूर माँ-बाप, रिश्तेदारों और समाज की कथित रुढिवादी परम्पराओं की परवाह नहीं करते हुए वे खूब पढ़ना चाहती हैं,आत्मनिर्भर बनना चाहती हैं ताकि  किसी बड़ी उम्र के,दहेज लोलुप एवं नशे के आदी पुरुष का सिंदूर अपनी मांग में भरकर जीवन भर की पीड़ा न सहना पड़े. इन सभी बातों का मतलब साफ़ है कि समाज के आईने पर बदलाव की इबारत उभरने लगी है.अब भी यदि हमारे समाज और समाज के कथित रहनुमा इस इबारत का अर्थ नहीं समझ पाए तो नए दौर की यह क्रांति उनका वजूद ही मिटा देगी.  

  

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

क्या किसी समाज का इससे अधिक नैतिक पतन हो सकता है?


अभी हाल ही में दो परस्पर विरोधाभाषी खबरें पढ़ने को मिली. पहली यह कि केरल के कुछ  स्कूलों में पढाने वाली महिला शिक्षकों को प्रबंधन ने साडी या सलवार सूट के ऊपर कोट या एप्रिन नुमा कोई वस्त्र पहनने की हिदायत दी ताकि कक्षा में बच्चों का शिक्षिकाओं की शारीरिक संरचना को देखकर ध्यान भंग न हो, साथ ही वे कैमरे वाले मोबाइल का दुरूपयोग कर चोरी-छिपे महिला शिक्षकों को विभिन्न मुद्राओं में कैद कर उनकी छवि से खिलवाड़ न कर सकें. वहीं दूसरी खबर यह थी कि एक निजी संस्थान ने अपनी एक महिला कर्मचारी को केवल इसलिए नौकरी छोड़ने के निर्देश दे दिए क्योंकि वह यूनिफार्म में निर्धारित स्कर्ट पहनकर आने से इंकार कर रही थी. कितने आश्चर्य की बात है कि संस्कारों की बुनियाद रखने वाले शिक्षा के मंदिर की पुजारी अर्थात शिक्षिका के पारम्परिक भारतीय वस्त्रों के कारण बच्चों का मन पढ़ाई में नहीं लग रहा और दूसरी और निजी संस्थान अपनी महिला कर्मचारियों को आदेश दे रहा है कि वे छोटे से छोटे वस्त्र मसलन स्कर्ट पहनकर कार्यालय में आयें ताकि ज्यादा से ज्यादा ग्राहकों का मन शोरूम में लग सके.
जिस पाठशाला में शील,संस्कार, सद्व्यवहार, शालीनता और सच्चाई की सीख दी जाती है वहां बच्चे अपनी आदरणीय शिक्षिकाओं की अशालीन तस्वीर उतारने के लिए बेताब हैं और इन अमर्यादित शिष्यों से बचने के लिए बच्चों को डांटने-डपटने के स्थान पर हम ज्यादा आसान तरीका अपनाकर महिला शिक्षकों को वस्त्रों की परतों में ढककर आने को कह रहे हैं और जहाँ ग्राहक का पूरा ध्यान उस उत्पाद पर होना चाहिए जिसे खरीदने का मन बनाकर वह किसी शोरूम तक आया है वहां की महिला कर्मचारियों को ग्राहकों को रिझाने वाले कपड़े पहनाए जा रहे हैं. क्या किसी समाज का इससे अधिक नैतिक पतन हो सकता है जब गुरु को अपने स्कूल स्तर के शिष्य की वासनात्मक नजरों से डर लगने लगे. क्या बतौर अभिभावक यह हमारा दायित्व नहीं है कि हम बच्चों को मोबाइल फोन की आकस्मिकता से जुडी अहमियत समझाए और किसी भी संभावित दुरूपयोग की स्थिति बनने से पहले ही बच्चे को उसके दुष्परिणामों के बारे में गंभीरता के साथ चेता दें. सबसे बड़ी बात तो यह है कि घर का वातावरण भी इसप्रकार का नहीं होने दें कि हमारा बच्चा स्कूल में पढ़ने की बजाए अपनी गुरुओं की ही अश्लील तस्वीर उतरने की हिम्मत करने लगे. कहां जा रहा है हमारा समाज और हम? ऐसे में तो माँ को अपने बेटे और बहन को अपने भाई के सामने भी बुरका नुमा वस्त्र पहनकर रहने की नौबत आ सकती है. वैसे भी चचेरे,ममेरे और फुफेरे रिश्ते तो कलंकित होने की खबरें आने लगी हैं बस अब शायद खून के रिश्तों की बारी है क्योंकि शिक्षिकाओं को तो हम कोट पहनाकर बचा सकते हैं लेकिन घर में माँ-बहनों,भाभी,बुआ,मामी,चाची और मौसी को घर के ही ‘लालों’ से कितना और कैसे ढककर रखेंगे. क्या ‘एकल परिवार’ में रहने का मतलब सारे रिश्ते-नातों को तिलांजलि दे देना है? देखा जाए तो निगाहों में अशालीनता का पर्दा अभी शुरूआती दौर में है इसलिए ज्यादा कुछ नहीं बिगडा है क्योंकि आज सोच-समझकर खीचीं गयी संस्कारों की लक्ष्मणरेखा भावी पीढी को कुसंस्कारों के रावण के पाले में जाने से रोक सकती है और यदि समय रहते और समाज से मिल रहे तमाम संकेतों को अनदेखा करने की गलती हम इसीतरह करते रहे तो फिर भविष्य में घर घर चीर हरण करने वाले दुर्योधन-दुशासन नजर आएंगे और बेटियों के शरीर पर कपड़ों की तह पर तह लगानी पड़ेगी.   यह कि केरल शिक्षा समिति के अंतर्गत चलने वाले स्कूलों में पढाने वाली महिला शिक्षकों को प्रबंधन ने साडी या सलवार सूट के ऊपर कोट या एप्रिन नुमा कोई वस्त्र पहनने की हिदायत दी ताकि कक्षा में बच्चों का शिक्षिकाओं की शारीरिक संरचना को देखकर ध्यान भंग न हो, साथ ही वे कैमरे वाले मोबाइल का दुरूपयोग कर चोरी-छिपे महिला शिक्षकों को विभिन्न मुद्राओं में कैद कर उनकी छवि से खिलवाड़ न कर सकें. वहीं दूसरी खबर यह थी कि एक निजी संस्थान ने अपनी एक महिला कर्मचारी को केवल इसलिए नौकरी छोड़ने के निर्देश दे दिए क्योंकि वह यूनिफार्म में निर्धारित स्कर्ट पहनकर आने से इंकार कर रही थी. कितने आश्चर्य की बात है कि संस्कारों की बुनियाद रखने वाले शिक्षा के मंदिर की पुजारी अर्थात शिक्षिका के पारम्परिक भारतीय वस्त्रों के कारण बच्चों का मन पढ़ाई में नहीं लग रहा और दूसरी और निजी संस्थान अपनी महिला कर्मचारियों को आदेश दे रहा है कि वे छोटे से छोटे वस्त्र मसलन स्कर्ट पहनकर कार्यालय में आयें ताकि ज्यादा से ज्यादा ग्राहकों का मन शोरूम में लग सके.
जिस पाठशाला में शील,संस्कार, सद्व्यवहार, शालीनता और सच्चाई की सीख दी जाती है वहां बच्चे अपनी आदरणीय शिक्षिकाओं की अशालीन तस्वीर उतारने के लिए बेताब हैं और इन अमर्यादित शिष्यों से बचने के लिए बच्चों को डांटने-डपटने के स्थान पर हम ज्यादा आसान तरीका अपनाकर महिला शिक्षकों को वस्त्रों की परतों में ढककर आने को कह रहे हैं और जहाँ ग्राहक का पूरा ध्यान उस उत्पाद पर होना चाहिए जिसे खरीदने का मन बनाकर वह किसी शोरूम तक आया है वहां की महिला कर्मचारियों को ग्राहकों को रिझाने वाले कपड़े पहनाए जा रहे हैं. क्या किसी समाज का इससे अधिक नैतिक पतन हो सकता है जब गुरु को अपने स्कूल स्तर के शिष्य की वासनात्मक नजरों से डर लगने लगे. क्या बतौर अभिभावक यह हमारा दायित्व नहीं है कि हम बच्चों को मोबाइल फोन की आकस्मिकता से जुडी अहमियत समझाए और किसी भी संभावित दुरूपयोग की स्थिति बनने से पहले ही बच्चे को उसके दुष्परिणामों के बारे में गंभीरता के साथ चेता दें. सबसे बड़ी बात तो यह है कि घर का वातावरण भी इसप्रकार का नहीं होने दें कि हमारा बच्चा स्कूल में पढ़ने की बजाए अपनी गुरुओं की ही अश्लील तस्वीर उतरने की हिम्मत करने लगे. कहां जा रहा है हमारा समाज और हम? ऐसे में तो माँ को अपने बेटे और बहन को अपने भाई के सामने भी बुरका नुमा वस्त्र पहनकर रहने की नौबत आ सकती है. वैसे भी चचेरे,ममेरे और फुफेरे रिश्ते तो कलंकित होने की खबरें आने लगी हैं बस अब शायद खून के रिश्तों की बारी है क्योंकि शिक्षिकाओं को तो हम कोट पहनाकर बचा सकते हैं लेकिन घर में माँ-बहनों,भाभी,बुआ,मामी,चाची और मौसी को घर के ही ‘लालों’ से कितना और कैसे ढककर रखेंगे. क्या ‘एकल परिवार’ में रहने का मतलब सारे रिश्ते-नातों को तिलांजलि दे देना है? देखा जाए तो निगाहों में अशालीनता का पर्दा अभी शुरूआती दौर में है इसलिए ज्यादा कुछ नहीं बिगडा है क्योंकि आज सोच-समझकर खीचीं गयी संस्कारों की लक्ष्मणरेखा भावी पीढी को कुसंस्कारों के रावण के पाले में जाने से रोक सकती है और यदि समय रहते और समाज से मिल रहे तमाम संकेतों को अनदेखा करने की गलती हम इसीतरह करते रहे तो फिर भविष्य में घर घर चीर हरण करने वाले दुर्योधन-दुशासन नजर आएंगे और बेटियों के शरीर पर कपड़ों की तह पर तह लगानी पड़ेगी.  

शनिवार, 30 मार्च 2013

सुशीला,मुनिया और गूंगों का दफ़्तर


कुछ साल पहले की ही बात होगी जब उसने राष्ट्रपति भवन से सटे और आम लोगों के लिए लगभग निषिद्ध हमारे कार्यालय परिसर में कदम रखा था और सरकारी दफ़्तर के विशुद्ध औपचारिक वातावरण में पायल की रुनझुन सुनकर हम सभी चौंक गए थे.चौकना लाजमी था क्योंकि सहकर्मी महिला साथियों के लिए खनकती पायल गुजरे जमाने की बात हो गयी थी और बाहर से पायल की छनछन के साथ किसी महिला का ‘प्रवेश निषेध’ वाले क्षेत्र में आना लगभग नामुमकिन था. हालांकि धीरे धीरे हम सभी इस छनछन के आदी हो गए.वह सुशीला थी बाल विवाह की जीवंत मिसाल, जो मध्यप्रदेश के छतरपुर से अपनी जड़ों को छोड़कर इन भव्य इमारतों के बीच अपने परिवार के साथ ठेके पर मजदूरी करने आई थी.गर्भवती सुशीला जब अपने पति और सास के साथ कंधे से कंधा मिलाकर बोझा उठाती तो उसकी जीवटता को देखकर मेरे दफ़्तर की सहकर्मी महिलाओं के दिल से भी आह निकल जाती थी. वे गाहे-बेगाहे अपना टिफिन उसे खाने के लिए दे देतीं और इस मानवता के फलस्वरूप उस दिन उन्हें गोल मार्केट के खट्टे-मीठे गोलगप्पों और चाट-पकौड़ी से काम चलाना पड़ता. कुछ हफ्ते बाद ही इस निषेध क्षेत्र में एक नन्ही परी की किलकारियों ने घुसपैठ कर ली. उसका रुदन सुनकर ऐसा लगता मानो वह देश के सबसे संभ्रांत और बुद्धिजीवियों से भरी राजधानी दिल्ली की किस्मत पर रो रही हो जहाँ लक्ष्मी समान कन्या को जन्म लेने के पहले ही ‘स्वर्गवासी’ बना दिया जाता है.
लड़की पैदा होने के बाद भी न तो सुशीला की अनपढ़ सास ने उसे कोसा और न ही पति ने भला-बुरा कहा.वे सभी इस नन्ही मुनिया के साथ खुशियाँ मनाते हुए अपने काम में जुटे रहे.मुनिया भी दफ़्तर के गलियारे में उलटती-पलटती रहती और हम सभी को आते जाते देख टुकुर-टुकुर ताकती. बचपन से ही उसने दिल्ली की सर्दी और गर्मी को सहने की शक्ति हासिल कर ली.शायद ईश्वर भी बेटियों को जमाने से लड़ने के लिए कुछ अतिरिक्त ताकत बख्श देता है.समय बीतने के साथ वह हम सभी के बिस्किट,चाकलेट और आए दिन होने वाली पार्टियों की मिठाई में हिस्सा बांटने लगी.कुछ ही महीनों या यों कहें समय से पहले ही मुनिया अपने नन्हें क़दमों और मीठी सी किलकारी से हमारे कार्यालय की नीरवता और बोरियत को दूर करने का माध्यम बन गयी. हमारे बच्चों के पुराने होते कपड़े उसके लिए रोज नई पोशाख बन गए और कपड़ों से जुड़े अपनेपन ने मुनिया और हमारे दिल के तार और भी गहराई से जोड़ दिए. समय ने उड़ान भरी तो मुनिया के हिस्से के प्यार को बांटने के लिए दबे पाँव उसकी एक बहन और आ गयी. बस फिर क्या था ढंग से चलना भी नहीं सीख पायी मुनिया ने बिना कहे ‘छुटकी’ की आया की जिम्मेदारी भी संभाल ली. अपने घर और परिवार से हजारों किलोमीटर दूर हमारे दफ़्तर में तैनात संतरियों के लिए तो मोटा काजल लगाए दो चोटियों के साथ दिनभर गौरैया सी फुदकती मुनिया खिलौने की तरह थी. कभी कोई उसे गिनती सिखाता तो कोई ए बी सी डी तो कोई ककहरा. यहाँ तक की गेट पर पूरी मुस्तैदी के साथ अपनी ड्यूटी करने के दौरान भी वे मुनिया को देखते ही उससे ‘होमवर्क’ का हिसाब किताब करना नहीं भूलते. अब इतने बहुभाषी गुरुओं के बीच मुनिया भी कहां पीछे रहने वाली थी . हमारे दफ़्तर की ज्यादातर दीवारें मुनिया का ब्लैकबोर्ड बनकर आदिवासी चित्रकला का सा आभास देने लगी.अब तक छुटकी भी गिरते पड़ते उसके पीछे भागने लगी थी और दफ़्तर के कोने-कोने में फैली उसकी पाठशाला में अक्सर व्यवधान डाल देती मगर न तो मुनिया ने हार मानी और न ही हर तरफ फैले उसके सैन्य गुरुओं ने पढाने का कोई मौका छोड़ा. सैनिकों की देखा-देखी जब मुनिया सलामी ठोंकती तो कड़क अनुशासन में पगे सैन्य कर्मियों की भी हंसी छूट जाती.
        आज मुनिया चली गई.ठेकेदार के काम पर आश्रित उसके परिवार को यहाँ का काम समाप्त होते ही शायद नए ठिकाने पर भेज दिया गया था.सुशीला,मुनिया और छुटकी के जाते ही दफ़्तर के विशाल परिसर में फिर मनहूसियत समा गई.अब तक ‘काबुलीवाला’ के अंदाज में मुनिया से नाता जोड़ चुके फौजी साथी तो गमगीन थे ही, हम भी चिंतित और परेशान थे, इसलिए नहीं कि मुनिया क्यों चली गई क्योंकि उसे तो एक न एक दिन यहाँ से जाना ही था  बल्कि इसलिए कि कहीं वो भी अपनी माँ सुशीला की तरह बालिका वधु परंपरा की एक और कड़ी न बन जाए और फिर कुछ साल बाद ऐसे ही किसी दफ़्तर में समय से पहले गोद में बच्चा लिए पत्थर तोडती नजर आए. ईश्वर, मुनिया के बचपन को बचा लेना....प्लीज.(picture curtsy:guardian.co.uk)        

शुक्रवार, 1 मार्च 2013

‘महालेखन’ पर महाबातचीत की महाशैली का महाज्ञान


महाबहस,महाकवरेज, महास्नान,महारैली,महाशतक,महाजीत और महाबंद जैसे शब्द इन दिनों हमारे न्यूज़ टीवी चैनलों  पर खूब गूंज रहे हैं.लगता है हमारे मीडिया को महा शब्द से कुछ ज्यादा ही प्रेम हो गया है. यही कारण है कि आजकल तमाम न्यूज़ चैनल इस शब्द का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर हैं लेकिन कई बार यह प्रयोग इतने अटपटे होते हैं कि एक तो उनका कोई अर्थ नहीं होता उल्टा कोई पूछ बैठे तो उसे समझाना मुश्किल हो जाता है कि यहाँ ‘महा’ लगाने की जरुरत क्या आन पड़ी थी. मसलन न्यूज़ चैनलों पर रोजमर्रा होने वाली बहस को महाबहस कहने का क्या तुक है? क्या बहस में दर्जनों विशेषज्ञों का पैनल है? या फिर चैनल पहली बार ऐसा कुछ करने जा रहा है जो ‘महा’ की श्रेणी में आता है. रोज के वही चिर-परिचित चार चेहरों को लेकर किसी अर्थहीन और चीख पुकार भारी बहस आखिर महाबहस कैसे हो सकती है? इसीतरह किसी राजनीतिक दल की रैली को महारैली या चंद शहरों तक केंद्रित बंद को महाबंद कहने का क्या मतलब है. यदि मामूली सा बंद महाबंद हो जायेगा तो वाकई भारत बंद जैसी स्थिति का बखान करने के लिए क्या नया शब्द गढ़ेंगे? महाकुम्भ तक तो ठीक है लेकिन महास्नान का क्या मतलब है? इस महा शब्द के प्रति मीडिया का लगाव इतना बढ़ गया है कि हाल ही धोनी के लगाए शतक को भी कुछ न्यूज़ चैनलों ने ‘महाशतक’ बता दिया. यदि दो सौ रन बनाना महाशतक की श्रेणी में आता है तो फिर अब तक सहवाग का तिहरा शतक ,ब्रायन लारा का चौहरा शतक या फिर उनके द्वारा एक पारी में बनाये गए पांच सौ रन क्या कहलायेंगे? इसीतरह सचिन,लक्ष्मण,द्रविण और गावस्कर की वे महान परियां क्या कहलाएंगी जो देश की जीत या हार से बचाने का आधार बनी.धोनी का दोहरा शतक महान हो सकता है और रिकार्ड के पन्नों पर अमिट स्थान बना सकता है लेकिन ‘महा’ तो नहीं कहा जा सकता. देश में हर साल बजट पेश होता है तो फिर किसी बजट को महाबजट और उसका रुटीन कवरेज ‘महाकवरेज’ कैसे कहलायेगा.
यदि हम किसी शब्दकोष या डिक्शनरी में तांक-झाँक करें तो ‘महा’ के लिए अत्यधिकहद से अधिकहद से ज़्यादा प्रबलशक्तिमान,  अति महानप्रचुर जैसे तमाम पर्याय मिलते हैं. अब यदि कोई भी काम पहली ही बार में हद से ज्यादा हो जायेगा तो फिर उससे बड़े कामों को हम क्या कहेंगे? न्यूज़ चैनलों पर चल रहे इस प्रयोग से मुझे दशक भर से ज्यादा पुरानी एक विज्ञापन श्रृंखला याद आ रही है जो दिल्ली के करोलबाग के पास रैगरपुरा से शुरू हुई थी. ’रिश्ते ही रिश्ते’ नामक इस विज्ञापन को देश के अधिकतर रेलवे स्टेशनों के करीबी इलाकों में देखा जा सकता था और उस दौर में जब न तो टीवी था और न ही प्रचार-प्रसार का मौजूदा चमकीला-भड़कीला अंदाज़, तब भी ‘रिश्ते ही रिश्ते’ ने धूम मचा दी थी. इसका परिणाम यह हुआ कि अब देश के तमाम बाजारों में इसी तर्ज पर ‘ही’ लगाकर खूब शब्द गढे और बुने जा रहे हैं मसलन बिस्तर ही बिस्तर, मकान ही मकान या फिर पुस्तकें ही पुस्तकें,लेकिन रचनात्मकता में नक़ल अभी भी असल का मुकाबला नहीं कर सकती इसलिए बाकी ‘ही’ उतने लोकप्रिय नहीं हो पाए. खासतौर पर दिल्ली में ऐसा ही एक प्रयोग ‘प्राचीन’ शब्द के साथ देखने को मिलता है. इस शब्द का उपयोग मंदिरों के नाम के साथ जमकर हो रहा है जैसे प्राचीन शिव मंदिर,प्राचीन दुर्गा मंदिर. हो सकता है वह मंदिर चंद साल पहले ही बना हो लेकिन प्राचीन शब्द जोड़कर उसे भक्तों के लिए प्राचीन बना देना सामान्य बात हो गयी है. दिल्ली वाले ‘पुरानी दिल्ली की मशहूर कचौड़ी’ जैसी पंचलाइन से भी अनजान नहीं है. आलम यह है कि किसी गली-कूचे में आजकल में खुली दुकान भी पुरानी दिल्ली की मशहूर दुकान हो जाती है फिर चाहे उस पर चार दिनों में ताला ही क्यों न लग जाए. कहने का आशय यह है कि किसी शब्द की लोकप्रियता को भुनाने के लिए हमारे यहाँ भेड़चाल शुरू हो जाती है फिर चाहे वह नक़ल निरर्थक,भोंडी और बेमतलब की ही क्यों न हो. 

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...