शनिवार, 27 अप्रैल 2013

बदल रही है हवा, इसके आंधी बनने से पहले सुधर जाओ मेरे यारो

सूचनार्थ: जुगाली के इसी लेख को 'सादरब्लागस्ते ' द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में राजधानी की प्रतिष्ठित संस्था शोभना वेलफेयर सोसाइटी द्वारा "ब्लाग रत्न" सम्मान से सम्मानित किया गया है....आप सभी सुधी पाठकों के लिए पेश है यह पुरस्कृत  आलेख.....
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महिलाओं के साथ बेअदबी और बदसलूकी से भरे विज्ञापनों के बीच छोटे परदे पर इन दिनों प्रसारित हो रहा एक विज्ञापन बरबस ही अपनी और ध्यान खींच रहा है.वैसे तो यह विज्ञापन किसी पंखे का है लेकिन इसकी पंचलाइन “हवा बदल रही है” चंद शब्दों में ही सामाजिक बदलाव की कहानी कह जाती है. विज्ञापन में एक युवा जोड़ा कोर्ट मैरिज के लिए आवेदन करता सा नजर आता है और जब वहां मौजूद महिला अधिकारी युवती से पूछती है कि विवाह के बाद उसका सरनेम बदलकर क्या हो जाएगा? तो उसके कोई जवाब देने से पहले ही साथी युवक कहता है कि इनका सरनेम नहीं बदलेगा बल्कि मैं अपना सरनेम इनके सरनेम से बदल रहा हूँ. यह सुनकर महिला अधिकारी के साथ-साथ टीवी के सामने बैठे कई परिवार भी मंद-मंद मुस्कराने लगते हैं. दरअसल भारतीय समाज में विवाह के बाद भी महिला का ‘सरनेम’ बरक़रार रहना या पति द्वारा पत्नी का सरनेम अपनाना हमारी मानसिकता में बड़े बदलाव का परिचायक है.    
वाकई में हवा बदल तो रही है या यों कहें कि बदलाव की बयार सी चल पड़ी है. हवा में मिली परिवर्तन की महक से महानगरों के साथ गाँव-कस्बे भी महकने लगे हैं. अब बस इंतज़ार तो इस बात का है कि देश कब इस बदलाव की खुशबू में शराबोर होता है क्योंकि जैसे जैसे बदलाव की यह हवा जोर पकडेगी इसकी रफ़्तार आंधी में तब्दील हो जाएगी और जब आंधी चलती है तो वह सब-कुछ बदलकर रख देती है. वह पुरानी परिपाटियों,रूढ़ियों,बेड़ियों और सड़ी-गली व्यवस्थाओं को तहस-नहस कर नए जीवन और नई सोच का सृजन करती है. कुछ ऐसा ही बदलाव इन दिनों समाज में महिलाओं के प्रति दिखाई पड़ रहा है. हालांकि समाज में इस परिवर्तन की रफ़्तार बहुत धीमी है लेकिन जैसे शरीर को झुलसा देने वाली तपिश के दौरान मंद-मंद बहने वाली हवा भी राहत पहुंचती है उसी तरह महिलाओं के प्रति समाज में आ रहा यह बदलाव भले ही अभी प्रतीकात्मक है लेकिन आशा और विश्वास से भरपूर है तथा इसने आमूल-चूल परिवर्तन की बुनियाद तो रख ही दी है. 
      परिवर्तन का असर चहुँओर दिखाई दे रहा है. दिल्ली में ‘निर्भया’ के साथ हुए चलती बस में हुए सामूहिक बलात्कार की दुखद घटना के बाद गुस्से से उठ खड़े हुए समाज ने भी बदलाव की विश्वास जगाने वाली तस्वीर पेश की थी. इसके बाद तो मानो देश के कोने-कोने से ‘बदलो-बदलो’ की आवाज़ आने लगी है. महानगरों में ‘स्लटवाक’ जैसे आयोजन, सरकार द्वारा महिलाओं के हित में कानून में किये जा रहे संशोधन, हर क्षेत्र में बेटियों को मिलती सफलता, मलाला युसुफजई और हमारी निर्भया का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित होना, प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के विभिन्न स्तरों पर महिलाओं की बढ़ती भागीदारी, मेट्रो से लेकर महानगरों की बसों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें, टीवी पर महिलाओं की सशक्त भूमिका वाले धारावाहिक और विज्ञापन, सरकारी स्तर पर महिला बैंक खोलने और महिलाओं की सुरक्षा के लिए ‘निर्भया कोष’ बनाने की घोषणा जैसे तमाम कदम प्रतीकात्मक, मामूली और शायद कुछ लोगों को दिखावे भरे लग सकते हैं लेकिन किसी भी स्तर पर कम से कम शुरुआत तो हो रही है. मीडिया भी टीआरपी के लिए ही सही परन्तु महिला मामलों में सजग हो रहा है. आए दिन सामने आ रहे समाचार बता रहे हैं कि एक दूसरे से प्रेरणा लेकर बेटियाँ बाल विवाह का खुलकर विरोध करने लगी हैं. अपने मजबूर माँ-बाप, रिश्तेदारों और समाज की कथित रुढिवादी परम्पराओं की परवाह नहीं करते हुए वे खूब पढ़ना चाहती हैं,आत्मनिर्भर बनना चाहती हैं ताकि  किसी बड़ी उम्र के,दहेज लोलुप एवं नशे के आदी पुरुष का सिंदूर अपनी मांग में भरकर जीवन भर की पीड़ा न सहना पड़े. इन सभी बातों का मतलब साफ़ है कि समाज के आईने पर बदलाव की इबारत उभरने लगी है.अब भी यदि हमारे समाज और समाज के कथित रहनुमा इस इबारत का अर्थ नहीं समझ पाए तो नए दौर की यह क्रांति उनका वजूद ही मिटा देगी.  

  

1 टिप्पणी:

  1. जहाँ तक विज्ञापन की बात तो यह तो एक बुराई को हटाकर दूसरी को लादने जैसा लगा मुझे।यही बदलाव क्यों चाहिए हमें ?पुरुष भी अपना सरनेम पत्नी वाले से क्यों बदले? इससे तो कालांतर में ये भी मान लिया जाएगा कि यदि पत्नी का भी पहले नाम बदलवाया जाता था तो उसमें कोई बुराई नहीं थी।या इससे एक दिखावे की प्रवृति विकसित होगी कि देखो हमने तो पत्नी वाला सरनेम लगाया है देखो कितना सम्मान करते हैं फिर चाहे व्यवहार कैसा भी हो।या फिर जो पुरुष उपनाम नहीं बदलेंगें उनके बारे में मान लिया जाएगा कि महिला विरोधी है चाहे उनका सोच कितना ही अच्छा हो।इसलिए मैं न तो अपना विवाह के बाद सरनेम बदलूँगा और न आजकल के लड़कों की करवा चौथ का यव्रत रखूँगा और न ही ऐसी कोई अपेक्षा करूँगा।स्त्री पुरुष दोनों एक दूसरे का सम्मान करें बस बहुत है।बाकी आपके लेख की किसी बात से असहमत होने का सवाल ही नहीं।बदलाव तो निश्चित लगता है।

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