मंगलवार, 5 नवंबर 2019

अपना सा ही लगता है जापान

जापान जैसा मैंने जाना -1
भोपाल के श्यामला और अरेरा हिल्स और दिल्ली में रायसीना हिल्स की तरह के पहाड़ी इलाक़े,सफाई में हमारे इंदौर से भी आगे और परिवहन व्यवस्था में मुंबई से कई गुना बेहतर व्यवस्थित मेट्रो-बस-टैक्सियां, सड़कों पर सुकून से साइकिल चलाते महिला-पुरुष और हर अजनबी का हल्की मुस्कराहट से स्वागत करते लोग...ये ओसाका है-जापान का दूसरा सबसे बड़ा शहर और 28-29 जून को हुए दुनिया की 20 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के समूह जी- 20 शिखर सम्मेलन का मेजबान शहर।
ओसाका (Osaka) का अर्थ ही है ‘बड़ी सी पहाड़ी और ढलान’। जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है कि अपने इन्हीं उतार चढाव के कारण ओसाका हमें भोपाल और दिल्ली का सा आभाष देता है।
अपनी जापान यात्रा पर कुछ लिखने की शुरुआत किसी शहर के परिचयात्मक उल्लेख से ? यह बात कई लोगों को शायद रास न आए लेकिन ऐसा करने का उद्देश्य यह है कि कम से कम वे लोग भी जापान के ओसाका शहर को और इसके महत्व को समझ सकें जिनके लिए जापान का मतलब बस टोकियो है और वह भी हमारी ‘लव इन टोकियो’ मार्का फिल्मों के जरिये मिले ज्ञान से या फिर हिरोशिमा-नागासाकी बमबारी की घटना के सन्दर्भ में…. जापान को पहचानते हैं।
खुद सोचिए, जापान जैसा तकनीकी संपन्न और विकसित देश यदि दुनिया की 20 महाशक्तियों की मेजबानी का गौरव टोकियो से इतर अपने किसी शहर को देता है तो ज़ाहिर सी बात है कि वह शहर अपने आप में खास होगा और जब बात ओसाका शहर की हो तो मामला खासमखास हो जाता है।
ओसाका वास्तव में जापान का एक बड़ा बंदरगाह शहर और वाणिज्यिक केंद्र है। जब हम जापान के कंसाई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से बाहर निकले तो एक ओर जापानियों के स्वभाव की तरह शांत और विशाल समुद्र था तो दूसरी ओर घर और कल- कारखाने। हवाई अड्डे की लंबाई चौड़ाई का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहाँ एक गेट से दूसरे गेट तक जाने के लिए भी ट्रेन का सहारा लेना पड़ता है। एक और खास बात यह है कि हवाई अड्डे से ओसाका शहर तक का लगभग पूरा सफर समुद्र के ऊपर बने फ्लाईओवर पर ही करना पड़ता है। इसे मानव निर्मित सबसे बड़ा द्वीप भी कहते हैं क्योंकि इसके जरिये यहाँ समुद्र का बेहतर उपयोग भी हो रहा है।
यह अपनी आधुनिक वास्तुकला, नाइट-लाइफ़, ऊँची-ऊँची इमारतों,रौशनी से नहाई सड़कों और लज़ीज़ स्ट्रीट फूड के लिए भी जाना जाता है। ओसाका दुनिया के अग्रणी शहरों में शामिल है और वैश्विक अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वैसे तो ओसाका जापान के केंद्र में स्थित है और यहाँ के अहम महानगरों और जिलों में से एक है। लेकिन यह अपने आप में एक प्रान्त है जो लगभग 33 शहरों तथा 9 क़स्बों में विभाजित है। ओसाका प्रान्त की आबादी लगभग 80 लाख है और यहाँ तक़रीबन 2 लाख विदेशी नागरिक है जिनमें लगभग 3 हजार भारतीय हैं। वैसे ओसाका शहर की आबादी भी तक़रीबन 18 लाख है।
हम यहाँ जून माह के आखिरी दिनों में थे और तब भी यहाँ के लोग गर्मीं से बचने के लिए हाथ में बैटरी से चलने वाला छोटा सा पंखा लेकर घर से निकलने लगे थे। हालाँकि तापमान 26 से 27 डिग्री के बीच था और जापानियों के हिसाब से गर्मी शुरू हो रही थी । उन्हें क्या पता कि हम 45 डिग्री तापमान में भी घर से बाहर रहने वाले देश से आये हैं और 27-28 डिग्री तापमान तो हमारे लिए ठण्ड में रहता है। वैसे यहाँ लोग बताते हैं कि ओसाका में ठंड आम तौर पर कम पड़ती है और जनवरी के सबसे ठंडे महीने में भी तापमान 9.3 डिग्री सेल्सियस रहता है। बारिश का मौसम जून से जुलाई तक और गर्मियों में अधिकतम तापमान 33 डिग्री सेल्सियस तक जाता है। कुल मिलाकर ओसाका के जरिये हम जापान की जीवनशैली,आधुनिकता,विकास और विरासत को काफी हद तक समझ सकते हैं।
अगली किस्तों में बात करेंगे जापान की कुछ और जानी-अनजानी खूबियों की।
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दोनों हाथ नहीं, फिर भी किया मतदान...!!!


दोनों हाथ न होने के बावजूद दृढ़ इच्छाशक्ति और एक-एक वोट का महत्व समझते हुए मप्र में संस्कारधानी के नाम से मशहूर जबलपुर की एक बेटी ने अपने संस्कारों से न केवल शहर का नाम रोशन कर दिया बल्कि हम जैसे हाथ-आँख-कान वाले लोगों को लोकतंत्र के महापर्व का महत्त्व भी समझा दिया।
लोकतंत्र की सच्ची पहरेदार बिटिया भवानी ने दोनों हाथ नहीं होने के बाद भी मतदान कर एक बेहतरीन मिसाल पेश की है।
ज़ाहिर है यह हमारे लोकतंत्र का सुखद, अविस्मरणीय और खूबसूरत पहलू है। जबलपुर के श्री राम इंजीनियरिंग कालेज की छात्रा भवानी यादव, जिसके दोनों हाथ नहीं है, ने आज अपनी माँ के साथ अन्जुमन स्कूल के पोलिंग बूथ में पहुँचकर मतदान किया। जहां पीठासीन अधिकारी ने तमाम सरकारी औपचारिकताओं को पीछे छोड़कर जमीन पर बैठ कर भवानी के पैर की उंगली में अमिट स्याही का निशान लगा कर ऐसे गर्व की अनुभूति की जो उन्हें ताउम्र अपने इस कार्य के लिए गौरवान्वित करती रहेगी । इसके बाद, अपने नाम को चरितार्थ कर लोकतंत्र की इस दुर्गा (भवानी) ने अपनी पसंद का सांसद चुनने के लिए मां के सहयोग से अपना अमूल्य मतदान किया।
इसे केवल एक चित्र के तौर पर न देखे बल्कि अपने लिए एक सबक/नसीहत और सीख समझे और अपनी नई पीढ़ी को भी दिखाएं-समझाएं कि हमारा लोकतंत्र ऐसी ही वीरांगनाओं के कारण मजबूत हो रहा है,संवर है तो क्यों न हम भी भवानी की ताक़त बने,लोकतंत्र की शक्ति बने और मिल जुलकर ऐसे ही जीवंत लोकतंत्र की नई कहानी के सूत्रधार बने।

सिर ही सिर..हजारों से करोड़ों में बदलते सिर

प्रयागराज कुंभ: जैसा मैंने देखा (6)

10 लाख, 20 लाख,50 लाख,1 करोड़, 5 करोड़, 10 करोड़, 15 करोड़, 20 करोड़......हम-आप गिनते गए और यह संख्या बढती गयी...हमारी-आपकी कल्पना से परे,प्रशासन की गणना से बहुत आगे एवं बीते कुम्भों से अलहदा।..और जब 49 दिन का सफ़र पूरा हुआ तो यह संख्या बढ़कर 24 करोड़ हो गयी....चौबीस करोड़ का मतलब है दुनिया के तक़रीबन सवा दो सौ देशों में आधे से ज्यादा देशों की जनसँख्या से ज्यादा। स्विट्ज़रलैंड और सिंगापुर जैसे देशों से तीन गुना तथा श्रीलंका, सीरिया, रोमानिया, क्यूबा, स्वीडन और बेल्जियम जैसे देशों की जनसँख्या से कहीं ज्यादा। मकर संक्रांति से लेकर महाशिवरात्रि के बीच करोड़ों की इस संख्या का प्रबंधन वाकई किसी चमत्कार से कम नहीं है। मैं आमतौर पर ‘महा’ विशेषण से परहेज करता हूँ लेकिन मैंने अपनी आँखों से अर्ध कुंभ को महाकुंभ में बदलते देखा....दिव्य-भव्य महाकुंभ और वह भी सबसे सुरक्षित और सबसे स्वच्छ।
महाकुंभ में जुटी भीड़ के लिए कोई शब्द तलाशा जाए तो ‘जनसैलाब’ शब्द भी प्रयागराज में उमड़ी भीड़ के सामने लाचार लगा। यदि इससे भी बड़ा कोई शब्द इस्तेमाल किया जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। चारों ओर बस सिर ही सिर नजर आते थे। सभी ओर बस जनसमूह था- प्रयाग आने वाली सभी ट्रेनों में,प्लेटफार्म पर, स्टेशन से आने वाली सड़क पर, बसों में,कार से,पैदल, बस सिर ही सिर ,पोटली लेकर चलते,बैग लादे,बच्चे संवारते, संगम की ओर बढ़ते, गंगा की तेज़ धार से,निर्मल-आस्थावान-सच्चे और सरल लोग। ऐसा लगता था जैसे प्रयाग की सारी सड़कें एक ही दिशा में मोड़ दी गयी हों। बूढ़े, बच्चे, महिलाएं और मोबाइल कैमरों से लैस नयी पीढ़ी, परिवार के परिवार। पूरा देश उमड़ आया था वह भी बिना किसी दबाव या लालच के, अपने आप, स्व-प्रेरणा से...और देश ही क्या विदेशी भी कहाँ पीछे थे। मैंने तो आज तक अपने जीवन में कभी किसी मेले में इतनी भीड़ नहीं देखी। इस कुम्भ का आकर्षण इतना जबरदस्त था कि दुनिया भर से 8 से 10 लाख विदेशी सैलानी भी खिंचे चले आए।इसमें लगभग सवा लाख तो सिर्फ अमेरिका और एक लाख आस्ट्रेलिया से थे।
यह कुंभ कई मायनों में अलग था-महाकुंभ था मसलन कुंभ के इतिहास में संभवतः पहली बार राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, कई केंद्रीय मंत्रियों, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों और विभिन्न राज्य सरकारों के मंत्रियों सहित देश में संवैधानिक पदों पर बैठे लगभग सभी प्रमुख लोगों ने न केवल कुंभ का दौरा किया, बल्कि संगम पर डुबकी भी लगाईं।
आमतौर पर कुंभ में स्नान के खास दिनों जैसे मकर संक्रांति, पौष पूर्णिमा, मौनी अमावस्या, वसंत पंचमी, माघी पूर्णिमा और महा शिवरात्रि पर ही भीड़ देखी जाती थी लेकिन ऐसा पहली बार हुआ कि आम दिनों में भी श्रद्धालुओं की भीड़ खास दिनों की तरह बनी रही। पहली बार किसी कुंभ ने तीन विश्व रिकार्ड अपने नाम दर्ज किये और स्वच्छता और सफाई, ट्रैफिक योजना और भीड़ प्रबंधन सहित तीन क्षेत्रों में सफलतापूर्वक अपना नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज करवा लिया।
महाकुंभ तो था ही यह क्योंकि इसका दायरा पिछले कुम्भ के 1600 हेक्टेयर की तुलना में दोगुना यानी 3200 हेक्टेयर से अधिक था। कुंभ 20 क्षेत्रों में विभाजित तो 40 से ज्यादा स्नान घाट 8 किमी के दायरे में फैले थे। विभिन्न क्षेत्रों को जोड़ने और तीर्थयात्रियों को संगम तक पहुंचने के लिए गंगा नदी पर 20 पोंटून पुल अर्थात नाव के अस्थायी पुल बनाए गए थे। । केंद्र और राज्य सरकारों ने कुल मिलाकर महाकुंभ के आयोजन पर 7 हजार करोड़ रुपये खर्च किये थे।वैसे तो यह आंकड़ा भी कुम्भ को महाकुंभ बनाने की कहानी बयान कर देता है क्योंकि 2013 में पिछले कुम्भ पर करीबन 13 सौ करोड़ रुपये खर्च हुए थे।
प्रयाग कुम्भ वास्तव में इसलिए भी महाकुंभ था क्योंकि इसने 6 लाख से ज्यादा लोगों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर रोजगार दिया। भारतीय उद्योग परिसंघ के अध्ययन के मुताबिक प्रयाग कुम्भ से उप्र को लगभग 1.2 लाख करोड़ का राजस्व मिला जो उत्तरप्रदेश के सालाना बजट 4.28 लाख करोड़ का एक चौथाई है। सबसे ज्यादा कमाई होटल,खानपान,टूर आपरेटर और परिवहन के क्षेत्रों में हुई है...तो आइए इस सफल और सुरक्षित आयोजन के लिए आयोजकों से ज्यादा हम-आप जैसी आम जनता की पीठ थपथपाएं क्योंकि उसके अनुशासन, जिजीविषा, संयम और सहनशीलता ने कोई हादसे का कलंक इस महाकुंभ पर नहीं लगने दिया और तमाम रिकार्डों के बीच यह आयोजन वास्तव में अपने उद्देश्यों पर खरा उतरा।
इसे भी पढ़िए: फिल्मों की तरह नहीं होता कुंभ में बिछड़ना मिलना
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मुलाक़ात एक अनूठे-अद्भुत और सबसे अलग महामंडलेश्वर से

 प्रयागराज कुंभ: जैसा मैंने देखा (5)                     
प्रथम गेट से लेकर मुख्य पंडाल तक श्रद्धालुओं की भीड़ लगी है, कुछ बाहुबली लोग भीड़ को सँभालने में जुटे हैं. मुख्य पंडाल भी खचाखच भरा है- नेता,अभिनेता,मीडिया और साधु-संतों सहित तमाम लोगों को महामंडलेश्वर का इंतज़ार है. किसी तरह जुगाड़ लगाकर अन्दर तक पहुंचकर हमने भी पूछा तो बताया गया कि महामंडलेश्वर तैयार हो रहे हैं तथा अभी उन्हें डेढ़ घंटा और लगेगा...यह सुनकर हमारा चौंकना लाज़िमी था. आखिर किसी संत को तैयार होने में इतना समय कैसे लग सकता है ! लेकिन जब बात किन्नर अखाड़े के श्री अनंत विभूषित आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी लक्ष्मी नारायण जी त्रिपाठी (जैसा उनके भक्त कहते हैं) की हो तो फिर इतना समय तो लगना वाजिब है.
ऐसा भी नहीं है कि महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी(वहीँ जिन्हें अब तक हम सभी लक्ष्मी के नाम से पहचानते थे) पंडाल में उतावले लोगों से अनजान हैं. वे अन्दर से ही हस्तक्षेप कर लोगों को अनावश्यक चर्चा से बचने की सलाह देती हैं. बीच बीच में, उनके खांसने की आवाज़ भी आती है और उनके प्रबंधक बताते हैं कि स्वामी जी की तबियत ठीक नहीं हैं.
बहरहाल, लम्बे इंतज़ार और भारी भीड़ के कारण उमस और गर्मी से हो रही उकताहट को ख़त्म कर महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी हमारे बीच आती हैं. वे पहले से सज्जित एक सिंहासन नुमा आसन पर बैठकर मिलना शुरू करती हैं. उनके श्रृंगार से पता लग जाता है कि उन्हें इतना समय क्यों लगा. हम चूँकि मीडिया से थे इसलिए हमें तुलनात्मक रूप से पहले मिलने का मौका मिल जाता है और प्रसाद के रूप में कुछ सिक्के,रुद्राक्ष भी. हमारे एक साथी बताते हैं कि बुधवार(जिस दिन हम मिले) को किसी भी किन्नर से यह प्रसाद मिलना बड़ा फलदायक होता है. पत्रकारीय आदत के चलते मैंने आग्रह किया कि एक फोटो खींच लें तो लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने मोबाइल तुरंत अपने हाथ में ले लिया और फिर मंझे हुए अंदाज में शानदार सेल्फी ले डाली. इसी बीच स्थानीय के अलावा कई विदेशी चैनल भी उनसे बातचीत के लिए आतुर थे और उनके मुरीदों की भीड़ भी कम होने का नाम नहीं ले रही थी इसलिए हम भी वहां से निकलकर उनके अखाड़े का जायजा लेने में जुट गए. अन्य अखाड़ों की तरह किन्नर अखाड़े में भी एक यज्ञशाला और श्रद्धालुओं के लिए स्वादिष्ट भोजन का प्रबंध था और पूरे परिसर में अखाड़े के अन्य संत-महंतों के टेंट और महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी के अलग अलग आकर्षक पोस्टर थे.
ट्रांसजेंडर (थर्ड जेंडर) अधिकारों के लिए काम करने वाली लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी को उज्जैन सिंहस्थ में किन्नर अखाड़े की महामंडलेश्वर घोषित किया गया. बताया जाता है कि देश के लगभग 20 लाख किन्नरों की सर्वसम्मति से उन्हें इस पद के लिए चुना गया है. इस बार भी वे तमाम विरोध के बाद भी न केवल प्रयाग कुंभ में अपना अखाड़ा ज़माने में कामयाब रहीं बल्कि उनके अखाड़े में बढ़ती भीड़ ने उन्हें यहाँ रुकने पर मजबूर कर दिया. आमतौर पर सभी अखाड़े अंतिम शाही स्नान के बाद कुम्भ से विदा हो गए थे लेकिन किन्नर अखाड़ा महाशिवरात्रि तक यहीं था.
लक्ष्मी पहले भी बताती रहीं है कि किन्नर अखाड़े को महाकुंभ का हिस्सा बनाने के पीछे उनकी मंशा किन्नरों को समाज में एक सम्मानजनक स्थान दिलाने की है.उनका मानना है कि जब हर कोई हमसे आशीर्वाद और दुआ लेता है तो समाज में किन्नरों के लिए सम्मानजनक स्थान क्यों नहीं होना चाहिए ? अपने समुदाय के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली तेजतर्रार लक्ष्मी को अपने किन्नर होने पर गर्व है ।
लक्ष्मी पहली किन्नर हैं जो संयुक्त राष्ट्र में एशिया प्रशांत क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं और अपने समुदाय और भारत का प्रतिनिधित्व टोरंटो में विश्व एड्स सम्मेलन जैसे अनेक मंचों पर कर चुकी हैं । वह इस समुदाय के समर्थन और विकास के लिए अस्तित्व नाम का संगठन भी चलाती है । लक्ष्मी बिगबॉस सीजन 5 की प्रतिभागी भी रह चुकी हैं । टीवी शो "सच का सामना", "दस का दम" और "राज पिछले जनम का" में भी उन्हें देखा गया था ।
लक्ष्मी आम किन्नरों की तरह नहीं हैं जो मज़बूरी के कारण इस समुदाय का हिस्सा हैं बल्कि वे बिलकुल अलग हैं. लक्ष्मी का जन्म महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उन्होंने मीठीबाई कॉलेज से आर्ट्स में डिग्री ली और भरतनाट्यम में स्नातकोत्तर भी किया है. वे कुशल वक्ता,अभिनय और नृत्य में निपुण, अपने अधिकारों को लेकर जागरूक मुखिया और शून्य से शिखर तक पहुँचने वाली योद्धा हैं जिन्होंने अपने बलबूते यह मक़ाम हासिल किया है साथ ही अपने परिवार और समुदाय को भी समाज में प्रतिष्ठा दिलाई है. उनकी यही खूबियाँ हम जैसे कई लोगों को उनका प्रशंसक बनाती हैं और यही प्रशंसा उन तक खीच ले जाती है, फिर चाहे मिलने के लिए दो घंटे इंतज़ार ही क्यों न करना पड़े ....तो आइए हम भी उनके आसपास जमा सैकड़ों श्रद्धालुओं के साथ सम्मान से कहें- श्री अनंत विभूषित आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी लक्ष्मी नारायण जी त्रिपाठी, आपका स्वागत है और आपके ज़ज्बे को हमारा सलाम.
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सोमवार, 4 मार्च 2019

जब लोगों ने हाथों की रंग बिरंगी छापों से लिख दिया जय गंगे

प्रयागराज कुंभ: जैसा मैंने देखा (4)
आमतौर पर घरों के दरवाजे पर हाथ की छाप या हल्दी लगे हाथों की छाप शुभ मानी जाती है लेकिन हाथों की यह छाप हमें गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में भी स्थान दिला सकती है… यह किसी ने सोचना तो दूर कल्पना भी नहीं की होगी।
प्रयागराज में चल रहा कुंभ अपनी दिव्यता और भव्यता के साथ कई अनूठे रिकार्ड भी गढ़ रहा है। 9 किमी लंबी बस ट्रेन बनाकर रिकार्ड कायम करने के बाद अब कुंभ प्रशासन ने हाथों की छाप से विश्व रिकार्ड बनाया है।
प्रयागराज मेला प्राधिकरण ने ‘पेंट माई सिटी’ अभियान के अन्तर्गत की गयी चित्रकारी को विश्व पटल पर प्रदर्शित करने के लिए प्रयाग के गंगा पण्डाल में एक हस्तलिपि चित्रकारी कार्यक्रम आयोजित किया। 

यहाँ एक विशाल कैनवास (पेंटिंग वाल) लगाया गया। इस कैनवास पर सुबह 10 बजे से लेकर शाम 6 बजे तक सुरक्षा कर्मियों, विभिन्न स्कूलों के छात्र-छात्राओं तथा अनेक संस्थाओं के वालिंयटर्स ने अलग अलग रंगों में अपने हाथों की छाप लगाई । इस हस्तलिपि चित्रकारी में समाज के हर वर्ग ने बढ़ चढ़ कर भाग लिया, जिसमें मुख्य रूप से विदेशी पर्यटक, सुरक्षा बलों के जवान, स्वच्छाग्रही, आमजन, छोटे बच्चे तथा वृद्धजन सहित समाज के 7664 लोगों ने बड़े उत्साह के साथ अपने हाथों की छाप पेंटिग वाल पर लगाई और नया विश्व रिकार्ड कायम किया।इसके पहले यह रिकॉर्ड सियोल के नाम था और वहां 4675 लोगों ने अपने हाथों की छाप लगाकर यह रिकॉर्ड बनाया था परंतु प्रयागराज में 1 मार्च 2019 को लगभग दो गुनी संख्या में लोगों ने यह कारनामा कर दिखाया।खास बात यह है कि कुंभ में हाथों की छाप से ‘जय गंगे’ लिखकर गंगा के निर्मल प्रवाह को दर्शाया गया।
दरअसल प्रयागराज मेला प्राधिकरण ने मेला शुरू होने से पहले ‘पेंट माई सिटी’ अभियान चलाकर शहर की दीवारों को कुंभ के अनुरूप रंगने की अपील आम लोगों से की थी। इसके परिणाम स्वरूप देश भर से आये चित्रकारों ने अपनी कला का प्रदर्शन करते हुए शहर की दीवारों को अपनी चित्रकारी से आकर्षक रूप से सजा दिया है। कुम्भ में आने वाले श्रद्धालु एवं पर्यटक भी इसकी भरपूर सराहना कर रहे हैं। इस अभियान में शहर भर में लगभग 20 लाख स्क्वायर फुट दीवारों पर चित्रकारी की गयी है। जो अपने आप में एक रिकार्ड है। इसतरह की चित्रकारी से प्रयाग की संस्कृति, यहां की विरासत और आध्यामिकता को भी नयी पहचान मिली।
#कुंभ #Kumbh #Kumbh2019 #prayagraj

फिल्मों जैसा नहीं होता कुंभ में बिछड़ना और मिलना

प्रयागराज कुंभ: जैसा मैंने देखा(3)
भारतीय फिल्मों में हमें अक्सर यह देखने को मिलता है कि कुम्भ के मेले में दो भाई बिछड़ जाते हैं और फिर कई सालों को समेटने वाली की कहानी के बाद फिल्म के अंत में उनका मिलन हो जाता है। फिल्मों में तो यह हो सकता है लेकिन वास्तविक कुम्भ में ऐसा नहीं होता क्योंकि यहाँ किसी के बिछड़ने के साथ ही उसे उसके परिवार से मिलाने की कोशिशें शुरू हो जाती है और चंद घंटों/दिनों में वह अपने परिवार तक पहुँच ही जाता है. इस काम में सबसे अहम भूमिका निभाते हैं- ‘भूले भटके शिविर’ या ‘गुमशुदा तलाश केंद्र’। प्रयागराज कुंभ के दौरान मैंने स्वयं ऐसे शिविरों की जबरदस्त भूमिका देखी जिन्होंने कुम्भ के दौरान हजारों पुरुषों,महिलाओं और बच्चों को तत्काल ही उनके परिवार तक पहुंचा दिया।
गैर सरकारी संगठन भारत सेवा दल द्वारा प्रयागराज के त्रिवेणी मार्ग पर संचालित शिविर कुम्भ के सबसे पुराने भूले भटके शिविरों में से एक है और सबसे लोकप्रिय भी। भारत सेवा दल प्रयागराज में महाकुंभ, अर्धकुंभ और वार्षिक माघ मेले के दौरान हर साल यह शिविर लगाता है। शिविर प्रभारी उमेश चंद तिवारी ने बताया कि इस साल कुंभ के दौरान 50 बच्चों सहित लगभग 50 हजार से अधिक लोग खो गए थे लेकिन हमारी टीम ने उन्हें उनके परिवार से मिलाने में देर नहीं की । इस शिविर की शुरुआत 1946 में उमेश चंद तिवारी के पिता पंडित स्वर्गीय राजाराम तिवारी ने की थी। प्रतापगढ़ जिले के रानीगंज के मूल निवासी राजाराम तिवारी ने त्रिवेणी संगम में आने वाले खोए हुए श्रद्धालुओं को निस्वार्थ भाव से मिलाने के काम को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया ।
पिछले सात दशकों से यह शिविर प्रयागराज के प्रत्येक मेले की नियमित पहचान और अविभाज्य अंग बन गया है।
जब कोई भी मेला क्षेत्र में खो जाता है, तो उनके परिजन सबसे पहले इस भूले भटके शिविर में आते हैं और यहाँ के स्वयंसेवकों को गुमशुदा व्यक्ति का विवरण देते हैं। इस विवरण को पब्लिक एड्रेस सिस्टम या मेले में लगे लाउडस्पीकरों के जरिये पूरे मेला क्षेत्र में प्रसारित किया जाता है। घोषणा सुनने के बाद, अधिकांश लोग शिविर तक आ जाते हैं और फिर यहाँ उनके परिजन मिल जाते हैं। इसके अलावा, शिविर के स्वयंसेवक भी मेले में घूम घूमकर ऐसे व्यक्ति की तलाश करते हैं। शिविर में ऐसे व्यक्तियों को सांत्वना के साथ साथ आवास और भोजन की व्यवस्था भी होती है। उन्हें शिविर में तब तक रखा जाता है जब तक वे अपने परिवार से नहीं मिल जाते और यदि परिवार मेले से चला जाता है, तो उन्हें उनके घरों तक वापस भेजने के लिए आर्थिक मदद भी दी जाती है। उमेश तिवारी ने बताया कि उनके पिता ने 70 वर्षों तक मानवता की सेवा की और लगभग बारह लाख पचास हजार पुरुष-महिलाओं और पैंसठ हजार बच्चों को उनके परिवार से मिलाने का गौरवशाली काम किया। अब राजाराम तिवारी की चौथी पीढ़ी उसी जोश, उत्साह और सक्रियता के साथ खोए हुए लोगों को उनके परिजनों से मिलाने में जुटी है ।
इसी उद्देश्य के साथ एक अन्य शिविर भी प्रयाग कुम्भ में नजर आता है. इस शिविर का नाम ‘भूली भटकी महिलाओं और बच्चों का शिविर’ है. शिविर का संचालन हेमवती नंदन बहुगुणा स्मृति समिति कर रही है । 1954 से संचालित इस शिविर की खासियत है कि यह न केवल महिलाओं और बच्चों के लिए काम करता है बल्कि सिर्फ अर्ध कुंभ और कुंभ के दौरान ही काम करता है। प्रयागराज कुंभ के दौरान इस शिविर को 36 हजार से अधिक महिलाओं और बच्चों के लापता होने या अलग होने की सूचना मिली और शिविर के माध्यम से एक-दो महिला-बच्चों को छोड़कर अधिकांश अपने परिवार के सदस्यों के साथ फिर से मिल गए।
गैर सरकारी संगठनों द्वारा चलाए जा रहे इन शिविरों के अलावा स्थानीय पुलिस ने भी कुंभ मेले में 15 डिजिटल ‘खोया पाया केंद्र’ स्थापित किए हैं, जहां 34 हजार से अधिक लोगों के लापता होने की सूचना अब तक मिली । अधिकांश लोग पुलिस की मदद से अपने परिवारों के साथ फिर से जुड़ गए। यहां तक कि पुलिस ने वृद्धों को उनके घरों तक भेजने के लिए उनके साथ अपनी टीम तक को भेजा।
मानवीय नजरिये से देखे तो इन शिविरों में अमूमन दो तरह के दृश्य देखने को मिलते हैं । पहले दृश्य में, व्यक्ति अपने परिजनों को तलाशते रोते-बिलखते और परेशान हालत में इन शिविरों में आता है, जबकि दूसरे दृश्य में जब वही व्यक्ति अपने परिजनों से मिलता है तो फिर फूट-फूटकर रोता है लेकिन इस बार आंसू ख़ुशी के,अपनों से मिलने के होते हैं और बस इसी आनंद के लिए ये तमाम शिविर सालों-साल बिना किसी आर्थिक लालच के निःस्वार्थ भाव से सेवा करते आ रहे हैं।

कुंभ में कुल्हड़ वाला रबड़ी दूध

प्रयागराज कुम्भ: जैसा मैंने देखा (1)
रबड़ी की लज़ीज़ खुशबू से महकती सड़क, बड़े से कड़ाहे में गुलाबी रंगत में ढलता दूध, बड़े से चम्मच भर मलाई और प्यार से पुकारते-मनुहार करते लोग..आखिर आप कैसे अपने आपको रोक सकते हैं !..और रोकना भी नहीं चाहिए क्योंकि कुम्भ में हजारों लोगों की भीड़ के बीच इतना सब मिलना वाकई अद्भुत सा लगता है। यदि आप गरमागरम 
मलाईदार दूध के शौकीन हैं तो आप को एक बार प्रयागराज जरुर जाना चाहिए और वह भी कुम्भ के दौरान। यहाँ स्टेशन के पास तीन दुकानों पर मिलने वाले रबड़ी-दूध का स्वाद यहाँ जमा भीड़ को देखते ही और भी बढ़ जाता है। सुबह से दूध मिलने का यह सिलसिला देर रात तक और शाही स्नान के दिनों में तो सुबह चार बजने तक चलता दिखा पर न तो पिलाने वालों के चेहरे पर कोई थकावट दिखी और न पीने वालों की संख्या कम हुई..आखिर स्वाद और आग्रह का मामला था। दूध के तलबगारों की गिनती करनी हो तो हमारे लिए इतना ही जानना काफी है कि एक दूकानदार ही एक दिन में दो-तीन क्विंटल(!)..जी हाँ,तीन सौ किलो तक दूध रोज़ाना बेच रहा था और दाम भी ‘पाकेट फ्रेंडली’ मसलन 50 रुपए में आपके सामने बन रही कुल्हड़ भर ताज़ी रबड़ी खा लीजिए या फिर इतने ही पैसे में रबड़ी और दूध दोनों का मज़ा ले सकते हैं....और यदि रबड़ी से परहेज है तो 30 रुपए में मलाई से लबालब गिलास भर दूध पी सकते हैं और गिलास भी इतना बड़ा की, एक गिलास में ही पेट भर जाए।
बताया जाता है कि इलाहाबाद रेलवे स्टेशन के पास स्थित दूध की इन खास दुकानों की शुरुआत देश की आज़ादी के आसपास
ही हुई थी और लगभग सात दशक से वे सतत रूप से इस व्यवसाय में हैं। बस फर्क यह आया है कि समय के साथ एक से दुकानों की संख्या तीन हो गयी है पर गुणवत्ता, स्वाद और आग्रह वैसा ही है....तो अब जब भी प्रयागराज जाएँ एक बार मलाई मार के रबड़ी वाला दूध जरुर पीएं..आखिर जीभ का मामला है ।
#Kumbh2019
#kumbh #कुंभ
@http://www.kumbh.gov.in

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...