नए राज्य: विकास, चुनौतियाँ और भविष्य की संभावनाएँ

बहु भाषा बोली, विविध संस्कृति, खानपान, क्षेत्रीय ढांचा, विशाल क्षेत्रफल से परिपूर्ण हमारा देश अपनी प्रशासनिक और क्षेत्रीय जटिलताओं के कारण हमेशा से ही दुनिया भर के आकर्षण का केंद्र रहा है। स्वतंत्रता के बाद से ही देश में नए राज्यों के गठन की मांग उठती रही है और तत्कालीन सरकारों ने समय समय पर क्षेत्रीय, भाषाई और विकास की जरूरत के आधार पर इन मांगों को पूरा भी किया है।  

 यदि हाल के वर्षों की बात करें तो वर्ष 2000 में एक साथ तीन राज्यों छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और झारखंड के गठन ने भारत के संघीय ढांचे में एक नया अध्याय जोड़ दिया था। ये तीनों राज्य अपनी स्थापना के 25 वर्ष पूरे कर चुके हैं और इस अवधि में इन्होंने विकास, नवाचार और सामाजिक-आर्थिक प्रगति के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल की हैं। 

हालांकि, नए राज्यों के गठन के साथ देश में प्रशासनिक खर्चों में वृद्धि, संसाधनों के बंटवारे की चुनौतियाँ और क्षेत्रीय असंतुलन जैसे मुद्दे भी सामने आए हैं लेकिन इन राज्यों की विकास यात्रा ने कई नए राज्यों की उम्मीदों को भी जन्म दिया है। भविष्य में नए राज्यों के गठन के फायदे और नुकसान पर बात करने से पहले हम छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और झारखंड की 25 वर्षों की यात्रा पर संक्षेप में नजर डालना जरूरी है ।

 जैसा कि हम सभी जानते हैं कि छत्तीसगढ़ का गठन वर्ष 2000 में मध्य प्रदेश से एक हिस्से को अलग करके किया गया था। यह राज्य प्राकृतिक संपदा और आदिवासी संस्कृति का अनमोल खजाना है। इन 25 वर्षों में राज्य ने औद्योगिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति की। खनिज संसाधनों से समृद्ध छत्तीसगढ़ ने इस्पात, सीमेंट और ऊर्जा क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई। रायपुर और भिलाई जैसे शहर औद्योगिक विकास के केंद्र बने, जबकि बस्तर की सांस्कृतिक विरासत ने पर्यटन को बढ़ावा दिया।राज्य सरकार ने ग्रामीण विकास और आदिवासी कल्याण पर विशेष ध्यान दिया। 

'नरवा, गरवा, घुरवा, बारी' जैसी योजनाओं ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त किया, वहीं जैविक खेती और हस्तशिल्प को बढ़ावा देकर स्थानीय समुदायों को रोजगार मिला। शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में भी सुधार हुआ, जिससे साक्षरता दर और स्वास्थ्य सेवाएँ बेहतर हुईं।हालांकि, नक्सलवाद छत्तीसगढ़ की सबसे बड़ी चुनौती रहा, जिसने कई क्षेत्रों में विकास को प्रभावित किया। बुनियादी ढाँचे की कमी और ग्रामीण-शहरी असमानता भी प्रगति में बाधक रही। पर्यावरण संरक्षण और खनन के बीच संतुलन बनाना भी एक जटिल मुद्दा है।

इन चुनौतियों के बावजूद, छत्तीसगढ़ ने अपनी प्राकृतिक और सांस्कृतिक संपदा का उपयोग कर विकास की राह पर कदम बढ़ाए। अब नक्सलवाद पर मजबूत नियंत्रण, सतत विकास और समावेशी नीतियों के माध्यम से छत्तीसगढ़ भारत के विकसित राज्यों में शुमार हो रहा है। हिमालय की गोद में बसा एक खूबसूरत सा राज्य उत्तराखंड भी वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होकर अस्तित्व में आया था। इन 25 वर्षों में उत्तराखंड ने विकास, पर्यटन और शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है। देहरादून, राज्य की राजधानी, एक प्रमुख शैक्षिक और प्रशासनिक केंद्र के रूप में उभरी, जबकि हरिद्वार और ऋषिकेश आध्यात्मिक और पर्यटन स्थल के रूप में विश्व प्रसिद्ध हुए।

 चारधाम यात्रा ने न केवल धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा दिया, बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी मजबूती दी। राज्य ने ऊर्जा क्षेत्र में विशेष रूप से जलविद्युत परियोजनाओं के माध्यम से भी कदम बढ़ाए हैं। टिहरी बांध इसका प्रमुख उदाहरण है। इसके अलावा, आयुष और जैविक खेती को बढ़ावा देकर उत्तराखंड ने नवाचार की दिशा में प्रगति की। शिक्षा के क्षेत्र में, आईआईटी रुड़की और अन्य संस्थानों ने राज्य को तकनीकी शिक्षा का केंद्र बनाया है। हालांकि, प्राकृतिक आपदाएँ जैसे भूस्खलन और बाढ़ ने विकास में जरूर कुछ बाधाएँ डालीं। पर्यावरण संरक्षण और विकास के बीच संतुलन बनाना उत्तराखंड की सबसे बड़ी चुनौती है। इसके अलावा, ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं की कमी और पलायन भी चिंता का विषय है। 

फिर भी, उत्तराखंड ने अपनी सांस्कृतिक विरासत, प्राकृतिक सौंदर्य और विकास की संभावनाओं के बल पर एक विशिष्ट पहचान बनाई है।   वनांचल के नाम से मशहूर झारखंड 15 नवंबर 2000 को भारत के 28वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आया था और इसकी 25 वर्षीय विकास यात्रा गौरव, चुनौतियों और संभावनाओं का संगम रही है। प्राकृतिक संसाधनों और खनिजों से समृद्ध इस राज्य ने अपनी स्थापना के बाद से आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति की है। 

शुरुआती वर्षों में, झारखंड ने खनन और औद्योगिक विकास पर खास ध्यान केंद्रित किया। टाटा स्टील और सेल जैसे उद्योगों ने राज्य को औद्योगिक केंद्र के रूप में स्थापित किया। हाल के दशकों में, रांची और जमशेदपुर जैसे शहरों ने शिक्षा, स्वास्थ्य और तकनीकी नवाचारों में प्रगति की। झारखंड ने बुनियादी ढांचे में निवेश किया, जिसमें सड़कें, रेलवे और बिजली उत्पादन शामिल हैं। स्मार्ट सिटी परियोजनाओं और डिजिटल कनेक्टिविटी ने ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों को जोड़ने का काम किया है। राज्य में सामाजिक क्षेत्र में, आदिवासी समुदायों के कल्याण के लिए योजनाएं शुरू की गईं हैं। 

शिक्षा के क्षेत्र में बिरसा मुंडा विश्वविद्यालय और आईआईटी (आईएसएम) धनबाद जैसे संस्थानों ने युवाओं को सशक्त बनाया। स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि, नक्सलवाद, गरीबी और बेरोजगारी जैसी कुछ चुनौतियां अभी भी बरकरार हैं। पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। फिर भी, झारखंड की सांस्कृतिक समृद्धि, आदिवासी कला और पर्यटन स्थल जैसे बेतला और दस्सम फॉल्स इसे वैश्विक मंच पर आकर्षक बनाते हैं। आने वाले वर्षों में, नवीकरणीय ऊर्जा, स्टार्टअप्स और कौशल विकास पर ध्यान देकर झारखंड समृद्धि की नई ऊंचाइयों को छू रहा है।

 नए राज्यों का गठन क्यों है जरूरी:

 भारत में नए राज्यों के गठन का इतिहास पुराना है। 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम के बाद से, भाषाई, सांस्कृतिक और प्रशासनिक आधार पर कई राज्यों का निर्माण हुआ। छोटे राज्यों के गठन के पक्ष में कई तर्क दिए जाते हैं मसलन: 

प्रशासनिक दक्षता: बड़े राज्यों में प्रशासनिक जटिलताएँ और संसाधनों का असमान वितरण आम समस्याएँ हैं। छोटे राज्य स्थानीय समस्याओं पर अधिक ध्यान दे सकते हैं और शासन को जनता के करीब ला सकते हैं। उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ और झारखंड में आदिवासी समुदायों की समस्याओं पर केंद्रित नीतियाँ बनाई गईं, जो बड़े राज्यों में संभव नहीं था।

 क्षेत्रीय पहचान और सांस्कृतिक संरक्षण: कई क्षेत्र अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक और भाषाई पहचान के आधार पर अलग राज्य की माँग करते हैं। यह न केवल उनकी संस्कृति को संरक्षित करता है, बल्कि उन्हें स्वशासन का अवसर भी देता है। उत्तराखंड इसका एक उत्तम उदाहरण है, जहाँ पहाड़ी संस्कृति और भाषा को बढ़ावा मिला। 

आर्थिक विकास: छोटे राज्य अपनी विशिष्ट संसाधनों और संभावनाओं का बेहतर उपयोग कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ ने अपने खनिज संसाधनों का उपयोग करके औद्योगिक विकास को गति दी। 

राजनीतिक सशक्तिकरण: छोटे राज्य स्थानीय नेतृत्व को उभरने का अवसर देते हैं, जिससे राजनीतिक भागीदारी बढ़ती है। यह विशेष रूप से उपेक्षित क्षेत्रों के लिए महत्वपूर्ण है। 

नए राज्यों के गठन की चुनौतियाँ  

नए राज्यों के गठन के कई लाभ हैं, लेकिन इसके साथ कई चुनौतियाँ भी जुड़ी हैं जैसे: 

प्रशासनिक खर्च में वृद्धि: नए राज्यों के गठन से नई राजधानियाँ, सचिवालय, विधानसभाएँ और अन्य प्रशासनिक ढाँचे की आवश्यकता होती है। यह केंद्र और राज्य सरकारों पर वित्तीय बोझ बढ़ाता है। उदाहरण के लिए, उत्तराखंड में देहरादून को राजधानी बनाने,छत्तीसगढ़ में नया रायपुर बसाने और नई प्रशासनिक संरचनाएँ विकसित करने में भारी लागत आई। आंध्रप्रदेश भी अपनी नई राजधानी के निर्माण पर आ रहे भारी खर्च को लेकर ऊहापोह में है। 

संसाधनों का बँटवारा: नए और पुराने राज्यों के बीच जल, बिजली, खनिज और अन्य संसाधनों के बँटवारे को लेकर विवाद उत्पन्न होते हैं। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के बीच जल संसाधनों को लेकर कई बार तनाव देखा गया। क्षेत्रीय असंतुलन: नए राज्यों के गठन से कुछ क्षेत्रों में विकास तेजी से होता है, जबकि अन्य क्षेत्र उपेक्षित रह जाते हैं। यह असमानता सामाजिक और आर्थिक तनाव को बढ़ा सकती है।

 राजनीतिक अस्थिरता: नए राज्यों की माँग कभी-कभी अलगाववादी आंदोलनों को हवा दे सकती है। तेलंगाना के गठन के बाद विदर्भ, गोरखालैंड और बोडोलैंड जैसे क्षेत्रों में भी अलग राज्य की माँग तेज हुई। 

प्रशासनिक क्षमता की कमी: नए राज्यों में प्रशासनिक ढाँचे को स्थापित करने और कुशल अधिकारियों की नियुक्ति में समय लगता है, जिससे शुरुआती वर्षों में शासन प्रभावित हो सकता है। 

इन सभी विषयों के विश्लेषण के बाद हमें इस बात पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है कि क्या भारत को और नए राज्यों की आवश्यकता है? इसका कारण यह है कि भारत की जनसंख्या, भौगोलिक विविधता और सांस्कृतिक बहुलता को देखते हुए नए राज्यों की माँग समय-समय पर उठती रहती है। वर्तमान में विदर्भ (महाराष्ट्र), गोरखालैंड (पश्चिम बंगाल), बोडोलैंड (असम), बुंदेलखंड (उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश) और सौराष्ट्र (गुजरात) जैसे क्षेत्रों में अलग राज्य की माँग तेजी पकड़ रही है। मसलन यह तर्क दिया जा है कि विदर्भ और बुंदेलखंड जैसे क्षेत्र लंबे समय से उपेक्षित हैं। अलग राज्य बनने से इन क्षेत्रों में केंद्रित विकास संभव हो सकता है। वहीं, गोरखालैंड के पक्ष में यह बात कही जा रही है कि इस क्षेत्र की अपनी विशिष्ट पहचान को संरक्षित करने के लिए अलग राज्य जरूरी है। एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में प्रशासनिक जटिलताएँ हैं। इसे छोटे राज्यों में विभाजित करने से शासन अधिक प्रभावी हो सकता है। 

वहीं, नए राज्यों के गठन का विरोध करने वालों का कहना है कि देश की अर्थव्यवस्था के लिए नए राज्यों का निर्माण महँगा सौदा है। मौजूदा आर्थिक स्थिति में यह बोझ और बढ़ सकता है और आर्थिक संतुलन गड़बड़ा जाएगा। इसके साथ साथ नए राज्य राष्ट्रीय एकता को भी प्रभावित कर सकते हैं क्योंकि अधिक राज्यों के गठन से क्षेत्रीयता की भावना बढ़ सकती है। विश्लेषकों का यह भी मानना है कि नए राज्य बनने से विकास की गारंटी नहीं होती। झारखंड इसका उदाहरण है, जहाँ खनिज संपदा के बावजूद गरीबी और बेरोजगारी की स्थिति में आशानुरूप सुधार नहीं आ पाया है । 

 कुल मिलाकर नए राज्यों के गठन का निर्णय लेते समय आर्थिक व्यवहार्यता, सामाजिक और सांस्कृतिक एकता,प्रशासनिक क्षमता, राष्ट्रीय हित जैसे तमाम बिंदुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है। नए राज्यों के गठन के स्थान पर सरकारें कई अन्य विकल्पों पर काम कर सकती हैं मसलन केंद्र और राज्य सरकारें मौजूदा राज्यों में ही क्षेत्रीय विकास को बढ़ावा देने के लिए विशेष क्षेत्रीय विकास प्राधिकरण स्थापित कर सकती हैं जो बिना नए राज्य गठन के इन क्षेत्रों की समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। 

छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और झारखंड के 25 वर्षों की यात्रा से यह साबित हुआ है कि नए राज्यों का गठन विकास और स्थानीय शासन को तो बढ़ावा दे सकता है, लेकिन इसके साथ कई चुनौतियाँ भी आती हैं।  इसलिए भारत जैसे विशाल और विविधताओं से भरे देश में नए राज्यों के गठन का निर्णय सावधानीपूर्वक और दीर्घकालिक दृष्टिकोण के साथ लिया जाना चाहिए। 

टिप्पणियाँ

  1. नए राज्यों के गठन पर इतनी गहराई से लिखा गया है कि हर पहलू साफ़ नज़र आता है, फायदे भी, खतरे भी। मुझे अच्छा लगा कि इसमें सिर्फ़ विकास की बातें नहीं, बल्कि प्रशासनिक चुनौतियाँ और सामाजिक असर भी ईमानदारी से बताए गए हैं। सच है, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और झारखंड ने बहुत कुछ हासिल किया, लेकिन अभी भी सब कुछ परफेक्ट नहीं है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. शुक्रिया, जुगाली से जुड़ने और लेख का विश्लेषण करने के लिए

      हटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

कुछ तो अलग था हमारे वेद में .....!

आज ‘भारत रत्न’ तो कल शायद ‘परमवीर चक्र’ भी!

भारत में महिलाएं कैसे करेंगी पुरुषों के “टायलट” पर कब्ज़ा