बुधवार, 2 जून 2010

क्या हम " सामूहिक आत्महत्या " की ओर बढ रहे हैं?

एक पुरानी कहानी है कि एक राजा ने अपने राज्य में संगमरमर का तालाब बनवाया और उस तालाब को दूध से भरने का फैसला किया. चूँकि इतना दूध इकठ्ठा करना आसान नहीं था इसलिए राजा ने घोषणा कर दी कि रात में सभी प्रजाजन एक-एक लोटा दूध तालाब में डालेंगे इससे तालाब भी दूध से भर जायेगा और किसी एक व्यक्ति पर बोझ भी नहीं पड़ेगा. राजा की घोषणा के बाद एक व्यक्ति ने सोचा की प्रजा की संख्या १० लाख से ज्यादा है. यदि में दूध के स्थान पर एक लोटा पानी डाल दू तो किसी को पता भी नहीं चलेगा. ऐसा ही विचार अन्य लोगों के मन में आया और भीड़ के मनोविज्ञान के मुताबिक सभी लोगों ने ऐसा ही सोचा और सुबह पूरा तालाब दूध के स्थान पर पानी से भरा नज़र आया. इस कहानी का सार यह है कि हम सब अपने स्वार्थ और फायदे के बारे में तो सोचते हैं पर देश-दुनिया पर उसके परिणाम की चिंता नहीं करते. पर्यावरण(environmnt) और ग्लोबल वार्मिंग (global varming)पर भी हमारा व्यवहार कुछ ऐसा ही है.
हम अपनी सुविधा के लिए कार पर कार खरीदते जा रहे हैं पर उसके नुकसान की चिंता नहीं कर रहे. सिर्फ दिल्ली में ही पचास लाख से ज्यादा निजी वाहन हैं और वे रोज सड़को पर आग बरसा रहे हैं. बढती कारों से तपन बढ रही है फिर भी हम अपने परिवार के हर सदस्य के लिए नई कार खरीदने में पीछे नहीं हैं. यही हाल एसी ,फ्रिज और विलासिता के अन्य सामानों का है.एसी पर्यावरण के लिए कितना हानिकारक है यह किसी से छिपा नहीं है फिर भी एसी बेरोकटोक बिक रहे हैं. यह सामूहिक आत्महत्या नहीं तो क्या है कि हम अपनी ही बर्बादी का इंतजाम ख़ुशी-ख़ुशी कर रहे हैं. हमारी इन आदतों के कारण सूर्य की घातक किरणों से हमारी सुरक्षा करने वाली ओजोन परत में बना छेद २००७ में बढकर २५.०२ मिलियन वर्ग किलोमीटर तक पहुँच गया है जो १९८० में मात्र ३.२७ मिलियन वर्ग मीटर था. जानकारों का मानना है कि यदि ओजोन परत इसीतरह नष्ट होती रही तो २०५४ तक पृथ्वी के आस-पास से ओजोन का कवच ही ख़त्म हो जायेगा और हमे सीधे सूर्य की परावैगनी किरणों का सामना करना पड़ेगा.जिससे जीवन दूभर हो जायेगा. वहीँ केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कहना है कि भारत के शहरों से प्रतिदिन ३.८० अरब लीटर मैला पानी निकल रहा है इसमें से अधिकतर गन्दिगी गंगा,यमुना और नर्मदा जैसी पवित्र नदियों में मिल रही है.दस -बीस साल बाद कि स्थिति सोचकर ही डर लगता है.
शहरीकरण के चलते देश के गाँव ख़त्म हो रहे हैं और शहर तथा शहरों की गन्दिगी उतनी ही तेज़ी से बढ रही है.१९०१ से २००१ के दौरान शहरों कि संख्या १८२७ से बढकर ५१६१ हो गयी है जबकि गाँव घटकर ६८५६६५ की तुलना में २००१ में ५९३७३१ रह गए हैं. खुद ही सोचिये कहाँ जा रहे हम? अंधाधुंध विकास के कारण आज भी ढाई करोड़ लोगों के पास घर नहीं हैं और हर साल १०० अरब क्यूबिक लीटर पानी की कमी हो रही है. चालीस फीसदी लोगों के पास शौचालय तक नहीं हैं,न सड़क है और न बिजली. यह स्थिति तो आज की है पर भविष्य कितना भयावह होगा इसकी कल्पना से ही डर लगने लगता है. अभी भी वक्त है बिगड़ी हालत को सुधारने का वरना इन सुविधाओं को पाने के लिए हम एक दूसरे को ही मरने-मारने पर उतारू हो जायेंगे और फिर देश का क्या होगा सोचिये.......ज़रा सोचिये.

8 टिप्‍पणियां:

  1. sahab hamein ped lagane hi nahi honge varan unki dejkhbaal bhi karni padegi...

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  2. दिलीप जी से पूरी तरह से से सहमत हूँ आज वक्त की भी यही मांग हैं की हमें इस धरती को बचाना हैं

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  3. बिलकुल सही और उम्दा प्रश्न उठाया है आपने आज लोग कार की सवारी और झूठे शान के लिए चोरी और ठगी जैसे धंधे से पैसों का इंतजाम कर रहें हैं ,अपने बच्चे का पेट भरने के लिए दूसरों का गला काट रहें हैं ,AC के ठंढक का मजा लेने के लिए बिजली चोरी करने की कोशिस कर रहें हैं ,निश्चय ही यह इनसानियत के मरने का सबूत है ...

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  4. आज मेरी ये अंतिम टिप्पणियाँ हैं ब्लोग्वानी पर.
    कुछ निजी कारणों से मुझे ब्रेक लेना पड़ रहा हैं .
    लेकिन पता नही ये ब्रेक कितना लंबा होगा .
    और आशा करता हूँ की आप मेरा आज अंतिम लेख जरूर पढोगे .
    अलविदा .
    संजीव राणा
    हिन्दुस्तानी

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  5. आज दिनांक 12 जून 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में आपकी यह पोस्‍ट भविष्‍य का भय शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्‍कैनबिम्‍ब के लिए इस लिंक http://blogonprint.blogspot.com/2010/06/blog-post_12.html पर जा सकते हैं।

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