ये चमक, ये दमक, फूलवन में महक, सब कुछ सरकार तुम्हई से है..।
तभी अचानक एक दिन अखबार में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता संस्थान का विज्ञापन प्रकाशित हुआ। आज के विद्यार्थियों के लिए संस्थान शब्द अचरज लग सकता है क्योंकि उनके लिए तो यह विश्वविद्यालय है। वे भी सही हैं और हम भी क्योंकि उन दिनों यह संस्थान ही था, विश्वविद्यालय बाद में बना।
खैर, इस विज्ञापन में जनसंपर्क और पत्रकारिता के दो पाठ्यक्रमों के लिए 20-20 सीटों पर देश भर से आवेदन आमंत्रित किए गए थे । पहली बात तो यह है कि यह प्रदेश में अपनी तरह का पहला संस्थान था और दूसरा इसमें जनसंपर्क जैसा बिल्कुल नया पाठ्यक्रम प्रस्तावित था।
विज्ञापन देखकर ऐसा लगा जैसे यह मन में मची खलबली का इलाज है। वैसे भी, एमएससी के बाद सीधे तौर पर तो नौकरी मिलने की कोई संभावना होती नहीं है और स्कूल के दिनों से ही मेरी लिखने पढ़ने में गहरी रुचि थी इसलिए लगा कि मैं और यह संस्थान शायद हमराह होने के लिए ही बने हैं। फिर क्या था, मेरे बहकावे में हमारे कुछ और साथियों ने भी यह सोचकर फार्म भर दिए कि नया संस्थान और नए कोर्स हैं इसलिए हो सकता है सार्थक भविष्य की कोई राह मिल जाए।
दिक्कत यह थी कि केवल फार्म भरने से एडमिशन नहीं मिल रहा था बल्कि महज चालीस सीटों के लिए देश भर के सभी प्रमुख शहरों में होने वाली प्रवेश परीक्षा की बाधा भी सफलता पूर्वक पार करनी थी। अब इसे पठन पाठन में रुचि का प्रतिफल कहें या भाग्य का लेखा..हमारे सभी साथियों में बस मेरा चयन हुआ और वह भी मेरे मनचाहे विषय जनसंपर्क में। इसतरह अपन इस संस्थान के सर्वप्रथम (फाउंडर) बैच के लिए देश भर से चुने गए जनसंपर्क विषय के चुनिंदा 20 विद्यार्थियों की खास जमात में शामिल हो गए।
मनचाही दिशा और विषय ने उत्साह भर दिया और हम भी साइंस में भविष्य गढ़ने का इरादा त्यागकर झोला उठाकर नए सपने लेकर भोपाल चले आए । तब यह संस्थान शाहपुरा में सहकारिता विभाग के भवन में था जहां नीचे हमारी कक्षाएं लगती थी और ऊपर हमारा हॉस्टल था..एक तरह से आधुनिक गुरुकुल की तरह… जहां पढ़ाई-लिखाई से लेकर जेएनयू टाइप लड़के और लड़कियों के साथ घूमने फिरने और खाने पीने को लेकर पूरी आजादी थी।
लड़के और लड़कियों में किसी तरह का भेदभाव नहीं था। हमारा जनसंपर्क और पत्रकारिता विषय के 20-20 विद्यार्थियों का बैच भी लताजी के गाए कालजयी गीत “ऐ मेरे वतन के लोगों.. “ की ‘कोई सिख, कोई जाट-मराठा, कोई गोरखा, कोई बंगाली..’ टाइप मिश्रित था मतलब विभिन्न राज्यों से आए धुरंधर । पढ़ाई के लिए जहां डॉक्टर नंदकिशोर त्रिखा, प्रोफेसर रघुनाथ प्रसाद तिवारी, सुश्री दविंदर कौर उप्पल, श्री कमल दीक्षित, डॉ श्रीकांत सिंह और श्री शशिकांत शुक्ला जैसे नामचीन पत्रकार और अपनी अपनी फील्ड के मंझे हुए दिग्गज मौजूद थे तो विषयों में विशेषज्ञता के लिए श्री प्रभात जोशी से लेकर डॉ ओम नागपाल तक देश भर के जाने-माने पत्रकार हमें इस पेशे के हुनर सिखाने बुलाए जाते थे।
उस समय संस्थान के महानिदेशक श्री राधेश्याम शर्मा और कार्यकारी निदेशक श्री अरविंद चतुर्वेदी की जोड़ी ने संस्थान को इस तरह से संचालित किया कि देशभर में पहले दिन से ही इस संस्थान की और हमारी चर्चा होने लगी। पहले बैच से होने के नाते हमसे मीडिया की उम्मीदें भी जुड़ गई थीं।
अब यह हमारे समर्पण, उत्साह और पत्रकारिता के प्रति जिज्ञासा का नतीजा था या फिर हमारे गुरुओं की मेहनत का, कि 40 विद्यार्थियों में से जो जिस मीडिया संस्थान में गया वहीं से नाम कमाकर लौटा। शुरुआती प्रशिक्षण से मिली यह सफलता आज 3 दशक बाद भी इसी तरह जारी है। ऐसा लगता है जैसे कल की ही बात है। हमारे बैच में न तो कोई विषयगत भेदभाव था और न ही कोई पेशागत पक्षपात। यही कारण है कि जनसंपर्क का कोर्स करने के बाद भी मुझे पत्रकारिता के क्षेत्र में जाने का मौका मिला और अखबारों ने भी पूरे उत्साह से हाथों हाथ लिया।
दैनिक देशबंधु के भोपाल संस्करण से शुरू हुआ यह सफर नवभारत,पाक्षिक हिंदी मेल, एक्सप्रेस मीडिया सर्विस सहित कुछ अन्य मीडिया हाउस से होता हुआ भारतीय सूचना सेवा के साथ आज अनवरत रूप से जारी है। मैं, एक और मामले में भाग्यशाली हूं कि अध्ययन के बाद मुझे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता और संचार विश्वविद्यालय में अध्यापन का भी सुअवसर मिला।
दरअसल, पहले स्नातक और उसके बाद स्नातकोत्तर में अव्वल स्थान हासिल करने के फलस्वरूप मुझे विश्वविद्यालय में स्नातक स्तर की कक्षाओं को पढ़ाने का अवसर दिया गया। तब इसे शोधवृत्ति कहा जाता था। कक्षाएं लेने के एवज में 1995- 96 में ₹1500 प्रति माह मिलते थे । जो निश्चित ही उस दौर में एक बड़ी राशि थी क्योंकि हमारे कई साथियों को तो इससे आधी तनख्वाह भी नहीं मिलती थी । एक सुखद और गर्व की बात यह भी है कि आज विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों में शीर्ष जिम्मेदारियां संभाल रहे गुरुजनों को दीक्षित करने का मौका भी मुझे उसी दौरान मिला ।
पठन-पाठन के साथ-साथ अखबार की नौकरी का सिलसिला भी चलता रहा और फिर शिक्षा, अपराध, राजनीति, कला, संस्कृति और धर्म से लेकर तमाम विषयों पर रिपोर्टिंग और संपादन का भरपूर मौका मिला। विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई के फलस्वरुप हासिल कार्य कुशलता ने संपादकों का दिल जीता तो उन्होंने भी अखबार के हर पन्ने पर कलम के रंग बिखेरने के भरपूर अवसर दिए।
तकरीबन पौन दशक पत्रकारिता में गुजारने के बाद मेरा चयन भारतीय सूचना सेवा में हो गया। इससे राह जरूर बदली लेकिन काम का तरीका वही रहा। यही कारण है कि रक्षा मंत्रालय की 100 साल से प्रकाशित तेरह भाषाओं वाली पत्रिका ‘सैनिक समाचार’ के संपादन का मौका मिला तो प्रतिष्ठित ‘आकाशवाणी’ से जुड़कर पूर्वोत्तर से लेकर भोपाल तक प्रादेशिक समाचार एकांश संभालने का महत्वपूर्ण जिम्मा भी । असम में कार्यकाल के दौरान हमारे प्रादेशिक समाचार एकांश,सिलचर को देश में सर्वश्रेष्ठ समाचार एकांश के पुरस्कार से नवाजा गया वहीं भोपाल में कोरोना काल के समय प्रसार भारती द्वारा शुरू की गई स्पेशल स्टोरी की प्रतियोगिता में हमारी टीम ने हर सप्ताह अधिकतर पुरस्कारों पर कब्जा जमाया।
इन सफलताओं ने सीनियर अधिकारियों का भी ध्यान खींचा और फिर राष्ट्रपति,प्रधानमंत्री और उपराष्ट्रपति जैसे दिग्गजों के देश में कवरेज के साथ-साथ विदेश में कवरेज करने का अवसर भी दिया। तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के साथ मुझे अफ्रीकी देशों में जाने का मौका मिला तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ जापान में जी 20 देशों के महत्वपूर्ण सम्मेलन के कवरेज की जिम्मेदारी भी मिली। यह अनुभव न केवल अविस्मरणीय थे बल्कि आने वाली चुनौतियों के लिए तैयार रहने की परीक्षा भी।
इन देशों की यात्रा से हासिल अनुभव पर मैंने ‘चार देश चालीस कहानियां’ नामक पुस्तक लिखी है जिसे पाठकों और विद्वानों का भरपूर स्नेह मिला। आकाशवाणी भोपाल के कार्यकाल के दौरान ही मैने अयोध्या में मंदिर निर्माण पर केंद्रित ‘अयोध्या 22 जनवरी’ नामक एक और पुस्तक लिखी। इसे भी सुधि जनों ने भरपूर सराहा । पुस्तक लिखने का सिलसिला अभी भी जारी है और जल्दी ही कुछ और विषयों पर नए किस्से पढ़ने को मिल सकते हैं। फिलहाल मैं केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय के प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो (पत्र सूचना कार्यालय पीआईबी) के शिमला क्षेत्रीय ऑफिस में सहायक निदेशक के रूप में प्रदेश भर की पब्लिसिटी का जिम्मा संभाल रहा हूं।
जब उपलब्धियां जुड़ती हैं तो पुरस्कार और सम्मानों से झोली भरने लगती है । मुझे अब तक प्रतिष्ठित माधवराव सप्रे समाचार पत्र संग्रहालय और शोध संस्थान, पब्लिक रिलेशंस सोसायटी ऑफ इंडिया, बंग साहित्य परिषद असम, मप्र श्रमजीवी पत्रकार संघ, प्रेरणा भारती के प्रतिष्ठा सम्मानों के साथ साथ बेस्ट ब्लॉगर का शोभना सम्मान, नईदिल्ली सहित अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं । मेरा ‘जुगाली’ ( jugaali.blogspot.com ) के नाम से एक लोकप्रिय ब्लॉग भी है और सोशल मीडिया पर लेखन भी सतत रूप से जारी है ।
इसके अलावा, मुझे माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय और शोध संस्थान के परामर्श मंडल के सम्मानित सदस्य और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम निर्धारण समिति के सम्मानित सदस्य का गौरव भी हासिल है। अपने लगभग साढ़े तीन दशक के पत्रकारिता के अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि मेरी इस यात्रा में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता और संचार विश्वविद्यालय की सबसे अहम भूमिका है।
विश्वविद्यालय से जुड़ने के बाद न केवल एक अलग पहचान बनाने का अवसर मिला है बल्कि विश्वविद्यालय की शिक्षा ने स्थाई रोजगार का अवसर भी दिया है। आज जो भी नाम और दाम हासिल है, उसमें निश्चित ही विश्वविद्यालय से हासिल शिक्षा और कार्य कुशलता की सबसे अहम भूमिका है। सीधे शब्दों में कहे तो ये चमक, ये दमक, फूलवन में महक, सब कुछ सरकार तुम्हई से है..।
अक्सर यह होता है कि हम सभी बहुत सारी बातों को जानते हैं और बहुत ज्ञान भी रखते हैं लेकिन उस ज्ञान को कुशलता के साथ व्यवस्थित सांचे और खांचे में बिठाने का कौशल शिक्षा से ही हासिल होता है। शिक्षा के जरिए हमें अपनी धार को पैना करने और उसे सकारात्मक रूप से इस्तेमाल करने के गुण भी हासिल होते हैं । अपने कार्यकाल के दौरान मैंने हमेशा अपने साथियों और विश्वविद्यालय में कक्षाएं लेने के दौरान छात्रों को यही सलाह दी है कि जब भी मौका मिले पढ़ते और लिखते रहना चाहिए क्योंकि पढ़ने से आपकी समझ बेहतर होती है और लिखने से आपकी कलम को पारंगतता हासिल होती है।
जाहिर सी बात है कि हम जितना पढ़ेंगे और लिखेंगे हमारी लेखन शैली उतनी ही सुव्यवस्थित और सुगठित होती जाएगी और वह अपने साथ-साथ पाठकों को भी अपनी ओर खींचेगी। अंत में, मैं, एक बार पुनः हमारे गुरुकुल यानि विश्वविद्यालय के प्रति आभार व्यक्त करता हूं क्योंकि यदि मुझे विश्वविद्यालय से जुड़ने का मौका नहीं मिलता तो शायद आज यह मकाम हासिल नहीं होता। मैं विश्वविद्यालय के उन सभी गुरुओं के प्रति भी आभारी हूं जिन्होंने हमें मीडिया का ककहरा सिखाकर इस लायक बनाया कि आज हम न केवल कुशलता के साथ अपना काम कर पा रहे हैं बल्कि अपने से जुड़े लोगों को भी सही दिशा दे पा रहे हैं।
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