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आइए, मेघा रे मेघा रे...के कोरस से करें 'मानसून' का स्वागत

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मेघा रे मेघा रे...सुनते ही आँखों के सामने प्रकृति का सबसे बेहतरीन रूप साकार होने लगता है, वातावरण मनमोहक हो जाता है और पूरा परिदृश्य सुहाना लगने लगता है। भीषण गर्मी और भयंकर तपन, उमस, पसीने की चिपचिपाहट के बाद मानसून हमारे लिए ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण प्रकृति,जीव जंतु और पक्षियों के लिए एक सुखद अहसास लेकर आता है। मई की चिलचिलाती गर्मी के साथ ही पूरा देश मानसून की बात जोहने लगता है और जैसे जैसे मानसून के करीब आने का संदेशा मिलता है मन का मयूर नाचने लगता है। पहली बारिश की ठंडक भरी फुहारों में भीगते लोग, पानी में धमा-चौकड़ी करती बच्चों की टोली, झमाझम बारिश के बीच गरमागरम चाय पकौड़े, कोयले की सौंधी आंच पर सिकते भुट्टे....क्या हम इससे अच्छे और मनमोहक दृश्य की कल्पना कर सकते हैं। वैसे भी,भारत में मानसून आमतौर पर 1 जून से 15 सितंबर तक 45 दिनों तक सक्रिय रहता है और देश के ज्यादातर राज्यों में दक्षिण-पश्चिम मानसून ने दस्तक दे दी है।   समुद्र की ओर बढ़ते मेघ जल की लहरों के साथ मिल जाते हैं, जो एक स्थल की खूबसूरती को दोगुना कर देते हैं। उनके संगम पर सूरज की किरणों का खेल, उनकी तेज रोशनी और च...

पाठकों ने इस तरह बना दिया ‘अयोध्या 22 जनवरी’ पुस्तक को दस्तावेज

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और ‘अयोध्या 22 जनवरी’ पुस्तक से दस्तावेज बन गई। अखबारों में आज छपी खबरों, मीडिया की नामचीन हस्तियों की संजीदा मौजूदगी, परिजनों,पत्रकारीय जीवन के साथियों, आकाशवाणी की टीम और विभिन्न क्षेत्रों के अनेक जाने माने लोगों की उपस्थिति और उनकी प्रतिक्रियाओं ने ‘अयोध्या 22 जनवरी’ को दस्तावेज बना दिया।   शनिवार 29 जून को रीडर्स क्लब भोपाल के ‘लेखक से मिलिए’ कार्यक्रम के दिन मौसम विभाग ने पहले ही भारी बारिश की चेतावनी देकर डरा दिया था। इसके बाद दिन चढ़ते ही शैतान बादलों ने अपनी धुंआधार कलाबाजियों से मौसम विभाग की चेतावनी को सच्चाई बना दिया। हम मतलब Manoj Kumar  भैया, मेरे हमनाम Sanjeev Persai ,अपनी ही राशि के Sanjay Saxena  और हम कदम Manisha Sanjeev जी..फिक्रमंद थे कि ऐसी बरसात में कोई कैसे आ पाएगा? लेकिन पढ़ने/सुनने/कहने की पुस्तक प्रेमियों की चाह को बारिश की धमा चौकड़ी भी नहीं रोक पाई।  कुछ भीगते,कुछ बचते बचाते लोग जुटने लगे और चार बजे के लिए निर्धारित कार्यक्रम में साढ़े चार बजे तक 9 मसाला रेस्त्रां का सभागार खचाखच भर गया (वैसे भी, भारतीय समय तो यही है कार्यक्रम शुरू होन...

एक सौ एक नॉट आउट…!!

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सौ साल पूरे करना किसी भी प्रसारण माध्यम/संस्थान के लिए गर्व की बात है। हमारे देश में विधिवत रेडियो प्रसारण का आज 101 वां जन्मदिन है।  23 जुलाई, 1927 को इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी (IBC) अस्तित्व में आई और यहीं से रेडियो प्रसारण को सरकारी संरक्षण और प्रोत्साहन मिला. यही कारण है कि 23 जुलाई राष्ट्रीय प्रसारण दिवस के रूप में मनाया जाता है.  वैसे निजी तौर पर रेडियो प्रसारण 1923 से शुरू हो गया था। 8 जून 1936 को इसे ऑल इंडिया रेडियो (AIR) नाम  दिया गया और 1957 में आकाशवाणी नाम अपनाकर कर यह रेडियो प्रसारण का पर्याय बन गया ।  हर साल नेशनल ब्रॉडकास्टिंग दिवस सेलिब्रेट करने का उद्देश्य रेडियो का महत्व याद दिलाना है।  इन सौ सालों में रेडियो ने सतत रूप से जवान होते हुए कई उपलब्धियां हासिल की हैं। अब नए नवेले डिजिटल रूप में साफ आवाज़, अल्फाज़ और अंदाज़ में यह मोबाइल फोन और कार के साउंड सिस्टम के जरिए हर घर तक पहुंच रहा है और हर दिल में जगह बना रहा है। यह हर जेब का हिस्सा भी बन चुका है।   हाल ही में रायटर और ऑक्सफोर्ड जैसे नामचीन संस्थानों के सर्वे में आकाशवाणी और आक...

क्या रेडियो डाइंग मीडियम है?

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रेडियो डाइंग मीडियम है? रेडियो कौन सुनता है? आकाशवाणी में कैरियर की क्या संभावनाएं हैं? रेडियो प्रसारण कितने प्रकार के हैं?आकाशवाणी के समाचारों की कॉपी कैसे लिखी जाती है? यह अख़बार की न्यूज से कितनी अलग है? जैसे तमाम सवालों के साथ #lnctbhopal के ‘स्कूल ऑफ़ जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन’ के विद्यार्थियों की टीम तैयार थी…अवसर था-#राष्ट्रीयप्रसारणदिवस पर ‘बदलते वक्त के साथ बदलता रेडियो’ विषय पर संवाद का।   सोशल मीडिया, पॉडकास्ट और इससे आगे बढ़ चुकी नई पीढ़ी के साथ सौ साल पुराने मीडियम की बात करना और उन्हें बातचीत में रुचि के साथ जोड़े रखना आसान नहीं है लेकिन #LNCT के सुलझे हुए गुरुओं Anu Shrivastava जी, @ManishkantJain और अन्य सहयोगियों की विद्वान टीम तथा अनुशासित विद्यार्थियों ने इस संवाद को आसान बना दिया और चर्चा संपन्न होने के बाद अधिकतर विद्यार्थियों की व्यक्त/अनकही प्रतिक्रिया यही थी कि- रेडियो और खासकर #आकाशवाणी में इतना कुछ है,हमें पता ही नहीं था।   कुछ विदेशी विद्यार्थियों को भी भारत के लोक प्रसारक के बारे में बताने का मौका मिला। उम्मीद ही नहीं पूरा विश्वास है क...

बूंदों,बादलों,पानी और हरियाली का मेला!!

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नीचे लबालब पानी,ऊपर शरारती बूंदें और चारों ओर मानसून में नहाकर चमकदार हरे रंग में रंगे वृक्षों से भरा घना जंगल। हम किसी अबूझ द्वीप या विदेश की किसी सिनेमाई लोकेशन की बात नहीं कर रहे बल्कि अपने शहर भोपाल के इर्द गिर्द बसे कई प्राकृतिक श्वसन तंत्रों में से एक कोलार डैम की बात कर रहे हैं। इन दिनों यहां प्रकृति की नैसर्गिक सुंदरता कई गुना बढ़ गई है।   चेहरे के साथ अठखेलियां करती कभी नन्हीं तो कभी बादलों से तर माल उड़ाकर आईं मोटी बूंदे, कभी भिगोकर तो कभी छींटें मारकर हमारे आसपास अपनी मौजूदगी का सतत अहसास कराती रहती हैं। वहीं, काले, घने, मचलते बादल एक छोर से दूसरे छोर तक रेस लगाते से नज़र आते हैं। ऐसा लगता है अभी टूटकर बरस पड़ेंगे और आपके पास छाते में छिपकर कार में घुसने के अलावा कोई और विकल्प नहीं रहेगा..लेकिन जैसे ही आप डरकर भागते हैं,ये नटखट और बदमाश बादल खिलखिलाते हुए कोलार बांध को दूर से निहारने के लिए कहीं ओर टहलने निकल जाते हैं।  आप, बादलों और बूंदों के खेल में ठीक से शामिल भी नहीं हो पाते हो कि नीचे कोलाहल करती विशाल जलराशि अपनी ओर ध्यान खींचने का पुरजोर प्रयास करती दिख...

समोसे-कचौरी पर क्यों मेहरबान हैं ‘सरकार’

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आप इन दिनों किसी भी सरकारी या गैर सरकारी आयोजन में जाइए, वहां खाने-पीने के नाम पर जो पैकेट दिए जाते हैं या फिर जो सामग्री परोसी जाती है उसमें समोसे, कचौरी, हॉट डॉग, बर्गर और गुलाब जामुन होना सामान्य बात है। वहीं, सामान्य ट्रेन तो छोड़िए वंदे भारत, शताब्दी और राजधानी जैसी प्रीमियम ट्रेनों में भी ब्रेकफास्ट से लेकर खाने तक के मैन्यू में समोसा, कचौरी, आइसक्रीम और गुलाब जामुन मिलना आम है। समोसा कचौरी और आइसक्रीम तो ट्रेन के खानपान का सबसे अनिवार्य हिस्सा है। कोई भी मौसम हो आपको भोजन के साथ दिन हो या रात आइसक्रीम जरूर दी जाएगी। हाल ही में मुझे विज्ञान के आईआईटी-आईआईएम स्तर के एक संस्थान के कार्यक्रम में शामिल होने का मौका मिला। वहां भी अतिथियों से लेकर विद्यार्थियों तक को खाने के नाम पर समोसा, कचौरी, हॉट डॉग और पेटिस जैसी सामग्री परोसी गई । हर सरकारी और प्राइवेट सेक्टर की कैंटीन में समोसा-कचौरी का सबसे अहम स्थान पर बैठकर इठलाना आम बात है। समोसा और कचौरी ही क्यों, गोलगप्पे, चाट, जलेबी, पकोड़े, सैंडविच, केक, ब्रेड, ब्रेड पकौड़े, मोमोज, चाउमिन, पराठे, कटलेट, फ्रेंच फ्राइज़ जैसी तमाम स्वादिष्ट ...

एक शहर से साक्षात्कार…!!

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नब्बे के दशक में जवानी की दहलीज पर पांव रखते और आंखों में उजले सपने लिए हम लोग अपने अपने कस्बों से भोपाल के लिए उड़ चले थे। पृष्ठभूमि समान थी और परवरिश भी,सपने भी साझा थे और संघर्ष भी, पैसे भी सीमित थे और परिवारिक संस्कार भी एक जैसे, इसलिए ‘दुनिया गोल है’ के सिद्धांत पर अमल करते हुए हम साल-छह महीने के अंतराल में आखिर एक दूसरे से मिल ही गए और फिर हमने शुरू किया अपने सपनों का साझा सफर। तब एक गीत की यह पंक्तियां हमें राष्ट्रीय गीत सी लगती थी: ‘छोटे-छोटे शहरों से, खाली भोर-दुपहरों से, हम तो झोला उठाके चले। बारिश कम-कम लगती है, नदियां मद्धम लगती है, हम समंदर के अंदर चले।’ वाकई, हमारा सफर कुएं से समंदर का था..अपने कस्बे से भोपाल जैसे बड़े शहर और प्रदेश की राजधानी में आना, किसी समंदर से कम नहीं था। यह बात अलग है कि प्रदेश की राजधानी भी बाद में पीछे छूट गई और कैरियर के विस्तार की रफ्तार राष्ट्रीय राजधानी तक ले गई। बहरहाल,सफर साझा था तो सामान भी,साथ भी और परस्पर सहयोग भी साझा ही था। इसका परिणाम यह हुआ कि ‘हम’ यानि मैं, इस पुस्तक के लेखक संजीव परसाई,मित्र संजय सक्सेना और अग्रज जैसे मित्र और इस प...

अब्बू खां का कुत्ता

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भोपाल का नाम तो सुना ही होगा आपने...तालाबों-झीलों और खूबसूरत वादियों वाला शहर अपनी फुट-हिल्स और हरियाली के लिए प्रसिद्ध है. यहाँ का बड़ा तालाब समंदर सा नजर आता है और पूरे शहर की प्यास बुझाने का काम करता है.  बड़े तालाब के किनारे बसा है भोपाल का सबसे वीआईपी और सुन्दर इलाका श्यामला हिल्स. यही की एक बस्ती में रहते थे अब्बू खां. वैसे तो अब्बू खां का भरा पूरा परिवार था लेकिन जवान होते ही बच्चे पंख फैलाकर उड़ गए और उन्होंने शहर में दीगर ठिकानों पर अपने घोंसले बना लिए. बेग़म असमय ही खुदा को प्यारी हो गयीं और अब्बू खां निपट अकेले रह गए. दरअसल, वे अपने खानदानी आशियाने का मोह छोड़ नहीं पाए और बच्चों के दड़बे नुमा घोंसलों में इतनी जगह नहीं थी कि वे अपनी हसरतों के साथ अब्बू खां की इच्छाओं को जगह दे सकें.  जैसा की होता है, अब्बू खां और बच्चों के बीच ईद का समझौता हो गया मतलब ईद पर बच्चे या तो अब्बू खां से मिलने आ जाते या फिर अब्बू खां किसी बच्चे के साथ ईद मनाने चले जाते. समय सुकून से गुजर रहा था और रही अकेलेपन की बात तो अब्बू खां को कुत्ता पालने का शौक था और वे कुत्ते को ही अपना साथी बना लेते थे,...

ढाई राज्यपाल और दो मुख्यमंत्रियों वाला अनूठा शहर…!!

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एक शहर में ढाई राज्यपाल और दो मुख्यमंत्री!!…पढ़कर आप भी चौंक गए  न? हम-आप क्या, कोई भी आश्चर्य में पड़ जाएगा कि कैसे एक शहर या सीधे शब्दों में कहें तो एक राजधानी में कैसे दो मुख्यमंत्री और ढाई राज्यपाल हो सकते हैं। राजनीति की स्थिति तो यह है कि अब एक ही दल में वर्तमान मुख्यमंत्री अपने ही दल के पूर्व मुख्यमंत्री को बर्दाश्त नहीं करते तो फिर एक ही शहर में यह कैसे संभव है कि ढाई राज्यपाल और दो मुख्यमंत्री हों और फिर भी कोई राजनीतिक विवाद की स्थिति नहीं बनती।   अब तक मुख्यमंत्री पद पर एक से ज्यादा दावेदारियां, ढाई-ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री और कई उपमुख्यमंत्री जैसी तमाम कहानियां हम आए दिन समाचार पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते रहते हैं लेकिन कोई शहर अपने सीने पर बिना किसी विवाद के दो मुख्यमंत्रियों की कुर्सी रखे हो और उस पर तुर्रा यह कि मुख्यमंत्रियो से ज्यादा राज्यपाल हों तो उस शहर पर बात करना बनता है।   देश का सबसे सुव्यवस्थित शहर चंडीगढ़ वैसे तो अपने आंचल में अनेक खूबियां समेटे है लेकिन दो मुख्यमंत्री और ढाई राज्यपाल की खूबी इसे देश ही क्या दुनिया भर में अतिविशिष्ट बनात...

‘बालूशाही’ के बहाने बदलाव की बात…!!

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बालूशाही के बहाने आज बदलाव की बात…दरअसल, पिछले कुछ महीनों का अनुभव है कि बालूशाही एक बार फिर मिठाइयों की जीतोड़ प्रतिस्पर्धा में अपनी पहचान बनाती दिख रही है। पिछले दिनों हुए कुछ बड़े और अहम् आयोजनों में मिठाई के लिए आरक्षित स्थान पर बालूशाही ठाठ से बैठी दिखी…कहीं इसे गुलाब जामुन का साथ मिला तो कहीं किसी और मिठाई का और कहीं-कहीं तो इसकी अकेले की बादशाहत देखने को मिली। इससे शुरूआती नतीजा यही निकाला कि बालूशाही मिठाइयों की मुख्य धारा में लौट रही है और धीरे-धीरे अपना खोया हुआ अस्तित्व पुनः हासिल कर रही है।  इन दिनों पिज़्ज़ा, बर्गर,केक और पेस्ट्री में डूब-उतरा रही नयी पीढ़ी ने तो शायद बालूशाही का नाम भी नहीं सुना होगा। इस पीढ़ी को समझाने के लिए हम कह सकते हैं कि बालूशाही हमारे जमाने का मीठा बर्गर था या फिर आज का उनका प्रिय डोनट। समझाने तक तो ठीक है, लेकिन ‘कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली’ वाले अंदाज में कहें तो बालूशाही की बात और अंदाज़ ही निराला है।  मैदे और आटे की देशी घी के साथ गुत्थम गुत्था वाली नूराकुश्ती के बाद उठती सौंधी और भीनी सुगंध और फिर चीनी की चाशनी में इलायची की खुशबू के सा...

वे अपने से हैं, सभी के हैं, तभी तो परम प्रिय हैं गणेश…,!!

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वे खुश मिजाज हैं, बुद्धि, विवेक, शक्ति, समृद्धि, रिद्धि-सिद्धि के दाता हैं, अष्ट सिद्धि और नौ निधि के ज्ञानी हैं, फिर भी उनमें जरा भी घमंड नहीं है, बिलकुल सहज और सरल हैं इसलिए लोकप्रिय है और प्रथम पूज्य भी । भक्तों की रक्षा के लिए वे दुष्टों का संहार करते हैं तो भक्तों की इच्छा पर अपना सर्वत्र देने में भी पीछे नहीं रहते। वे सभी के हैं…सभी के लिए हैं तभी तो परम प्रिय हैं गणेश।    वे सहज हैं, सरल हैं और सर्व प्रिय भी। बच्चों को वे अपने बालसखा लगते हैं तो युवा उन्हें सभी परेशानियों का हल मानते हैं । बुजुर्गों के लिए वे आरोग्यदाता और विघ्नहर्ता हैं तो महिलाओं के लिए सुख समृद्धि देने वाले मंगलमूर्ति। यह देवताओं में तुलना की बात नहीं है लेकिन भगवान गणेश जैसी व्यापक, सर्व वर्ग और हर उम्र में लोकप्रियता ईश्वर के किसी भी अन्य रूप को इतने व्यापक स्तर पर हासिल नहीं है। सभी वर्ग, जाति और उम्र के लोग श्री गणेश को अपने सबसे करीब पाते हैं इसलिए वे लोक देव हैं।    उनकी भक्ति और आराधना के कोई कठोर नियम नहीं हैं। उनकी पूजा में सरलता, सार्वभौमत्व और व्यापक अपील है। आप ढाई दिन पूजिए या ...

गणेश विसर्जन…मानो, मतदान की रात!!

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  कबीर दास जी ने लिखा है..’लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल, लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल'...कुछ यही हाल अनंत चतुर्दशी के दिन मुंबई,भोपाल और जबलपुर जैसे तमाम शहरों का था। कबीर ने यह दोहा भले ही किसी और भाव में लिखा था लेकिन फिलहाल तो यह गणेश विसर्जन के माहौल पर सटीक लग रहा था क्योंकि हर तरफ गणेश जी ही गणेश जी थे..कहीं छोटे से खूबसूरत गणेश तो कहीं लंबे चौड़े लंबोदर, कहीं पंडाल को छूते गणेश तो कहीं भित्ति चित्र में सिमटे गणेश। भोपाल में एक पंडाल ने तो भगवान गणेश के जरिए मां भगवती और भोले शंकर दोनों को साध लिया। उन्होंने शेर पर मां दुर्गा की वर मुद्रा वाली शैली में भगवान गणेश को बिठा दिया और उन्हें शिवशंकर की तरह जटा जूट के साथ नीले रंग में रंग दिया…मतलब, आप विघ्नहर्ता के साथ शक्ति और शिव को भी महसूस कर सकें।  खैर, अनंत चतुर्दशी के माहौल पर ही कायम रहें तो तमाम घाटों पर एक के बाद एक गणेश चले आ रहे थे। कहीं, साइकिल पर गणेश तो कहीं रिक्शे पर, मोटरसाइकिल पर, कार में और यहां तक कि ट्रैक्टर और ट्रक में भी। जहां देखो वहां बस भगवान गणेश और उनके साथ था हजारों स्त्री/पुरुष/युवाओं...

भारतीय पराक्रम की स्वर्णिम गाथा है… ‘विजय दिवस’

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सोलह दिसंबर दुनिया के इतिहास के पन्नों पर भले ही महज एक तारीख हो लेकिन भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश के इतिहास में यह तारीख कहीं स्वर्णिम तो कहीं काले हर्फो में दर्ज है। भारत में यह तारीख विजय की आभा में दमक रही है तो बांग्लादेश के लिए तो यह जन्मतिथि है । पाकिस्तान के लिए जरूर यह दिन काला अध्याय है क्योंकि इसी दिन उसका एक बड़ा हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान से बांग्लादेश बन गया था। वैसे भी,पाकिस्तान के लिए यह दिन किसी बुरे सपने से कम नहीं था क्योंकि उसकी हजारों सैनिकों को सर झुकाकर भारत की सरपरस्ती में इतिहास की सबसे बड़ी पराजय स्वीकार करनी पड़ी थी।  इतिहास के पन्नों में दर्ज निर्णायक तारीख जरूर 16 दिसंबर 1971 है, लेकिन पाकिस्तान की कारगुजारियों ने उसकी नींव कई साल पहले डाल दी थी । जब उसकी सेना के अत्याचारों से कराह रहे पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने मदद के लिए भारत से गुहार लगाना शुरू कर दिया था। आखिर, तत्कालीन भारत सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा और फिर भारतीय सैनिकों के शौर्य और पराक्रम का स्वर्णिम पन्ना ‘विजय दिवस’ के नाम से इतिहास में दर्ज हो गया । 16 दिसंबर 1971 को ढाका में पाकिस्तान की ओ...

उपलब्धियों का गढ़ है डीआरडीओ

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अपनी गर्जना और मारक क्षमता से दुश्मन के कलेजे में सिहरन पैदा करने वाला लड़ाकू विमान ‘तेजस’ हो या जमीन पर अपनी आवाज़ और सटीक गोलाबारी से शत्रु को नेस्तनाबूद करने वाला मुख्य युद्धक टैंक 'अर्जुन एमके-I' या फिर दुश्मन के विमानों को सूंघने में सक्षम ‘अवाक्स’ प्रणाली या शत्रु पर ताबड़तोड़ रॉकेट बरसाने वाला ‘पिनाका’....जब भी किसी नवीनतम हथियार प्रणाली या अत्याधुनिक तकनीक का जिक्र होता है तो डीआरडीओ का नाम हमेशा सबसे प्रमुखता से सामने आता है। डीआरडीओ का अर्थ है - डिफेन्स रिसर्च एंड डेवलपमेंट आर्गेनाईजेशन, इसे हम हिंदी में रक्षा अनुसंधान एवं विकास विभाग के नाम से जानते हैं। छः दशक से ज्यादा समय से भारतीय रक्षा और सुरक्षा तंत्र का मुख्य आधार डीआरडीओ ने हाल ही में अपना 66 वां स्थापना दिवस मनाया है। इन छियासठ सालों में डीआरडीओ ने अस्त्र-शस्त्रों और तकनीक के मामले में भारतीय सेनाओं को इतना दिया है कि यदि उनके केवल नामों का ही यहाँ उल्लेख किया जाए तो कई पन्ने भर जाएंगे। फिर भी कुछ अहम् संसाधनों की बात करें तो  सेना और वायु सेना के लिए पृथ्वी मिसाइल, सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल 'ब्रह्मोस', रिम...

तो,क्या रेणु-प्रेमचंद आएंगे पुस्तक का प्रचार करने

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  जिन्होंने जीवन में एक किताब भी न लिखी-पढ़ी है, वे भी आपको ज्ञान देते नज़र आएंगे कि यार ज्यादा पब्लिसिटी मत करो,जिसे पढ़ना होगा खुद ढूंढकर पढ़ लेगा,किताब है उत्पाद नहीं…टाइप ज्ञान की चौतरफ़ा भरमार दिखेगी। अरे भैया, हम क्या फणीश्वर नाथ रेणु हैं या मुंशी प्रेमचंद, की लोग अपने आप तलाशकर पढ़ लेंगे। कोई भी किताब अपनी विषय वस्तु,भाषा और कथन शैली से गबन, गोदान, राग दरबारी या मैला आंचल बनती है लेकिन यह तो तब पता चलेगा जब पाठकों तक वह किताब पहुंचेगी और उन पाठकों तक किताब पहुंचाने के लिए प्रचार तो जरूरी है वरना जंगल में मोर नाचा किसने देखा इसलिए मेरी किताब ‘अयोध्या 22 जनवरी’ पढ़ो या पुस्तक ‘चार देश चालीस कहानियां’ खरीदो…कहने/पोस्ट करने/मार्केटिंग/सोशल मीडिया पर शेयर करने में क्या बुराई है? किताब कोई अमिताभ बच्चन, रजनीकांत, शाहरुख या सलमान की फिल्म तो है नहीं कि ‘पहला दिन पहला शो’ देखने वाले टूट पड़ेंगे। वैसे भी, इन नामी गिरामी अभिनेताओं को भी अपनी फिल्म चलाने के लिए कितने धतकरम करने पड़ते हैं, हम सब जानते हैं। फिल्म की लांचिंग से लेकर रिलीज तक सैकड़ों समाचार,इंटरव्यू, चटखारेदार खबरें,फोटो…औ...

धधकते भोपाल को चाहिए हर घर में भगीरथ..!!

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शाम के साढ़े सात बज रहे हैं। आकाशवाणी भोपाल के न्यूज रूम से बाहर निकलते ही ऐसा लग रहा है जैसे किसी भट्टी के पास से गुजर रहे हैं। शाम ढलते ही सूरज को भले ही रात के अंधेरे ने अपने आगोश में समेट लिया पर उसके तेवर झेलना न तो अंधेरे के वश में है और न ही आम लोगों के। ताल तलैयों का शहर भोपाल इन दिनों धधक रहा है। अपनी हरियाली पर इतराने वाला भोपाल अब गर्मी से लाल हो रहा है और यहां रहने वालों का हाल बेहाल। हरियाली और स्वच्छता की राजधानी में तापमान 44 डिग्री सेल्सियस को भी पार कर गया है। न्यूनतम तापमान भी 31 डिग्री सेल्सियस से नीचे नहीं सरक रहा है। अब, जब रात का सबसे कम तापमान ही 31 डिग्री सेल्सियस हो तो पंखे आग उगलेंगे ही और फाइबर के कूलरों का लड़खड़ाना लाज़िमी है। जंबो और घर के बाहर की गरम हवा को ठंडा कर अंदर भेजने वाले फौलादी कूलर खुद पानी मांग रहें हैं। कूलर का क्या कहें, पुराने एसी ही गर्मी से हांफने लगे हैं और नए रंग-बिरंगे विज्ञापनी एसियों (ACs) को भी अपनी औकात समझ में आ गई है। सड़कों पर बेवजह चहलकदमी करती छोटी कारें सांझ ढलने का इंतज़ार करती हैं तो दिनभर सड़कों पर हुंदराने वाले बाइक और स्...

अयोध्या पर देश का पहला दस्तावेज

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अयोध्या 22 जनवरी, पुस्तक रामलला की प्राणप्रतिष्ठा और मंदिर निर्माण की जानकारियों को समाहित करके लाया गया संभवतः देश का प्रथम दस्तावेज है। ये सच है कि #राममंदिर का प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने जरूरत से ज्यादा कवरेज किया। लेकिन इस कवरेज में अधिकतर, जरूरत का था ही नहीं। यह पुस्तक राम मंदिर और 22 जनवरी की ऐतिहासिक घटना का विस्तारपूर्वक विवरण आपको देती है।  इसमें दर्ज घटनाएं, जानकारियां, विवरण, उनकी पृष्ठभूमि पढ़ते पढ़ते आप रोमांचित भी होते हैं और यदा कदा आश्चर्यचकित भी।  पुस्तक को चार भागों उल्लास, विकास, इतिहास और दृष्टि पर्व नामक चार अध्यायों में विभाजित किया गया है, जो आपके विचारों को तारतम्य देते हैं। उल्लास पर्व में अधिकतर सामग्री प्राण प्रतिष्ठा उत्सव से जुड़ी हैं, विकास पर्व में मंदिर और अयोध्या में आए बदलावों को शामिल किया गया है। इतिहास पर्व में ऐतिहासिक घटनाओं, दस्तावेजों का चित्रण साथ ही इस आयोजन पर भी प्रकाश डाला गया है। दृष्टि पर्व में विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा इस आयोजन के बारे में की गई टिप्पणियों को समावेश है। लेखक संजीव शर्मा एक संयमित और जिम्मेदार लेखक हैं, य...

रिश्तों की गुल्लक सी है- ‘डायरी का मुड़ा हुआ पन्ना’

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हम सभी के जीवन में बचपन से दो चीज अनिवार्य तौर पर शामिल रही हैं- एक है गुल्लक और दूसरी डायरी। गुल्लक का काम माता-पिता और रिश्तेदारों से मिले पैसों को सहेजना था तो डायरी का काम इन सभी के साथ अपने रिश्ते के तानेबाने,सुख-दुख और जीवन में घट रही घटनाओं को सहेजना।  वरिष्ठ पत्रकार, व्यंग्यकार और लेखक संजय सक्सेना की पुस्तक ‘डायरी का मुड़ा हुआ पन्ना’ रिश्तों की गुल्लक के समान है। जैसे-जैसे आप इसके पन्ने पलटते हैं,आपको अपने आसपास के किरदार, आपके साथ घटी घटनाएं और रिश्तों को सहजने-समेटने का प्रयास अपना सा नजर आता है और आप इसके सहज प्रवाह में बहने लगते हैं। लेखक ने भले ही यह कहा है कि उनकी किताब फेसबुक पर लिखे हुए पोस्ट का संकलन है लेकिन हकीकत यह है कि यह किताब रिश्तों का संकलन है, उनके आसपास के किरदारों का संग्रहण है और कई सारे भावनात्मक पहलुओं का सम्मिश्रण है। ‘डायरी का मुड़ा हुआ पन्ना’ पुस्तक की छोटी-छोटी कहानी हमें हंसाती भी हैं और कई बार गंभीर भी करती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हर लेखा हमें कोई न कोई सीख देकर जाता है.. चाहे फिर वह ‘हंसता हुआ नीम का पेड़ हो’, जो हमारी जीवन शैली का ...