बुधवार, 12 मई 2010

माननीयों को चाहिए बस मकान....फिर क्यों करें काम

हमारे परमपूज्य और आदरणीय "माननीयों" को तो बस मकान चाहिए ,कैसे भी ?किसी भी नियम को तोड़कर या फिर कोई भी नया नियम बनाकर .माननीयों से मेरा आशय हमारे सांसदों और विधायकों से है.चूकिं बार बार संसद-विधायक लिकने में टाइम खर्च होगा और फिर इनका सम्मान भी काम हो सकता है इसलिए माननीय शब्द से काम चला रहा हूँ.मकान के लिए हमारे माननीय काम की भी परवाह नहीं करते फिर वह काम देश की प्रगति से ,सरकार चलने से या आम जनता की भलाई से ही क्यों न जुड़ा हो? यह बात अलग है की जब इनके अपने काम की बारी आती है तो सब मिल-जुलकर सारे गिले शिकवे भूलकर और समय की परवाह न करते हुए भी उसे पूरा करके ही दम लेते हैं मसलन अपना वेतन -भत्ते बढवाना .जहाँ तक हमारे-आपके हितों से जुड़े काम की बात है जैसे महंगाई ,भ्रष्टाचार महिला आरक्षण,नक्सली हमले,आतंकवाद जैसे विषयों पर चर्चा करनी और कानूनी उपाय करना हो तो ये आपस में फिजोल की बहस कर सारा समय ख़राब कर देते हैं.ये मेरी भड़ास नहीं बल्कि संसद के आंकड़े हैं जिनमे बताया गया है की इन माननीयों ने संसद के बजट सत्र का किस तरह बेड़ा गर्क किया.२२ फरवरी से लेकर ७ मई तक चले इस सत्र में कुल३८५ घंटे कारवाई होनी थी पर इनके हंगामे के कारण ११५ घंटे ख़राब हो गए.इसमें से ७० घंटे हमारे चुने हुए जन प्रतिनिधियों ने बर्बाद किये तो ४५ घंटे मनोनीत अर्थात राज्यसभा से सदस्यों ने .इसके फलस्वरूप २७ में से मात्र ६ विधेयक ही सरकार पास करा पाए और बाकी अगले सत्र तक लटक गए.संसद में बर्बाद हुए ११५ घंटों का यदी हिसाब लगाया जाये तो वह करोड़ नहीं अरबों रूपए होता है पर इनका का जाता है इन्हें तो मकान चाहिए और मकान भी ऐसे-वैसे नहीं बल्कि लाखों रूपए की कीमत वाले,शानदार लोकेशन में स्थित मकान चाहिए वे भी सस्ती कीमत पर जैसे कॉमनवेल्थ खेलगांव ,दिल्ली में बन रहे मकान या फिर म्हाडा (मुंबई)के आलिशान मकान.दरअसल सारे माननीय मकान के मामले में दलगत राजनीति से ऊपर उठकर एक साथ हैं इसलिए कोई उनका कुछ बिगाड़ भी नहीं सकता.हिंदी में प्रचलित है न के "चोर-चोर मौसेरे भाई"और "सारे कुयें में ही भंग घुली हो तो फिर किसका दोष" .ऐसा ही एक और मुहावरा है " समरथ को नहीं दोष गुसाईं "...तो फिर आओ सरकारी संपत्ति लुटते देखें !

2 टिप्‍पणियां:

  1. उम्दा विचारणीय प्रस्तुती /

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  2. भाई संजीव जी, अब ये माननीय हैं तो उसी के अनुरूप ही तो आकांक्षा पालेंगे. आम आदमी होते तो झुग्गी-झोंपड़ी या ईडब्ल्यूएस जैसी खोली के बारे में सोचते. सही मायनों में आम जनता ने इन्हें देश बेचने का परमिट दिया हुआ है, इसीलिए बेचने दो. नेता शब्द नीति से बना है, जब नीति है ही नहीं तो नेता से ही काम चलाओ.

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