यह महाकवि रसखान की समाधि है। भगवान कृष्ण के अनन्य भक्त रसखान की स्मृति और वर्तमान परिदृश्य में हिंदू-मुस्लिम समभाव का एक सशक्त स्थल । उप्र के मथुरा के क़रीब गोकुल और महावन के बीच मां यमुना के आंचल में स्थित यह समाधि अपने अंदर पूरा इतिहास समेटे है। घने पेड़ों के बीच बनी रसखान की यह समाधि धर्मनिरपेक्ष सरकारों के दौर में रख रखाव के मामले में वाकई 'निरपेक्ष' ही थी पर 8 दिसंबर 2021 में इसकी क़िस्मत पलटी और करीब साढ़े तीन करोड़ रुपए में इस समाधि का जीर्णोद्धार हुआ और तब जाकर इसे यह मौजूदा गौरवमयी स्वरूप मिला। चौतरफा घिरी हरियाली के बीच बेहद साफ-स्वच्छ रसखान समाधि स्थल आपको बरबस ही कुछ वक्त यहां बिताने के लिए मजबूर कर देता है। यहां निशुल्क विशाल पार्किंग के साथ बैठने की बढ़िया व्यवस्था है तो खानेपीने के लिए कैंटीन भी ।
“जुगाली” समाज में आमतौर पर व्याप्त छोटी परन्तु गहराई तक असर करने वाली बुराइयों, कुरीतियों और समस्याओं पर ‘बौद्धिक विलाप’ कर अपने मन का बोझ हल्का करने और अन्य जुगाली-बाज़ों के साथ मिलकर इन बुराइयों को दूर करने के लिए एक अभियान है. आप भी इस मुहिम का हिस्सा बनकर बदलाव के इस प्रयास में भागीदार बन सकते हैं..
बुधवार, 14 दिसंबर 2022
आज क्यों जरूरी हैं रसखान और उनका रचना संसार..!!
समाधि स्थल पर लगे पटल के मुताबिक करीब 1551 ईस्वी में मुगल बादशाह हुमायूं के शासनकाल के अंतिम दौर में मची कलह से ऊबकर रसखान बृज भूमि में आ गए थे। ये दिल्ली के एक पठान सरदार थे लेकिन जब लौकिक प्रेम से कृष्ण प्रेम की ओर उन्मुख हुए तो जन्म जन्मांतर तक बृज के होकर रह गए। फिर गोस्वामी विट्ठलनाथ के सबसे बड़े कृपापात्र शिष्य बनकर रसखान ने अपने सहज, सरस, प्रवाहमय लेखन से कृष्ण की विभिन्न लीलाओं को घर घर तक पहुंचा दिया। बृजभाषा का ऐसा सहज प्रवाह अन्यत्र बहुत कम मिलता है। रसखान की रचनाओं में उल्लास, मादकता और उत्कटता तीनों का संयोग है और ब्रज भूमि के प्रति खास मोह भी। उप्र राज्य पुरातत्व विभाग के अनुसार रसखान के 53 दोहे वाले प्रेम वाटिका ग्रंथ के साथ साथ अब तक उनके 66 दोहे, 4 सोरठे, 225 सवैए, 20 कवित्त और 5 पद सहित कुल 310 छंद प्राप्त हुए हैं। उनकी सुजान रसखान भी एक अनमोल कृति है। 85 साल की आयु में 1618 ईस्वी में वे मानव शरीर त्यागकर ईश्वर की स्थाई शरण में चले गए।
आज के दौर में जब धर्म राजनीति का सबसे बड़ा असलहा बन रहा है तब रसखान, धार्मिक विवादों के बीच सफेद ध्वज लिए युद्ध विराम कराने वाले प्रेम और शान्ति के मसीहा नज़र आते हैं। बढ़ती धार्मिक वैमनस्यता की भड़कती आग के इस दौर में रसखान और उनकी रचनाएं शीतल जल की फुहार सी लगती हैं । उनके शब्दों में प्रेम बरसता है। प्रेम को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं:
प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।
जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोइ॥
मुस्लिम रसखान न्यौछावर हैं कृष्ण पर, समर्पित हैं उनकी भक्ति के लिए और बृजभूमि के कण कण में बिखरे मानववाद के लिए । तभी तो उन्होंने लिखा है:
"मानुष हौं तो वही रसखानि
बसौ ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बसु
मेरा चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को
जो धर्यौ कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तौ बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल-कदंब की डारन॥"
अपने इस पद में रसखान कहते हैं कि यदि मुझे आगामी जन्म में मनुष्य-योनि मिले तो मैं वही मनुष्य बनूँ जिसे ब्रज और गोकुल गाँव के ग्वालों के साथ रहने का अवसर मिले। यदि मुझे पशु-योनि मिले तो मेरा जन्म ब्रज या गोकुल में ही हो, ताकि मुझे नित्य नंद की गायों के मध्य विचरण करने का सौभाग्य प्राप्त हो सके। यदि मुझे पत्थर-योनि मिले तो मैं उसी पर्वत का एक भाग बनूँ जिसे श्रीकृष्ण ने इंद्र का गर्व नष्ट करने के लिए अपने हाथ पर छाते की भाँति उठा लिया था। यदि मुझे पक्षी-योनि मिले, तो मैं ब्रज में ही जन्म पाऊँ ताकि मैं यमुना के तट पर खड़े हुए कदम्ब वृक्ष की डालियों में निवास कर सकूँ।
रसखान की रचनाओं को इसलिए गागर में सागर कहा जाता है क्योंकि इससे कम शब्दों में बृज भूमि की इससे बेहतर व्याख्या और कौन कर सकता है। कृष्ण की बात हो, बृज भूमि की चर्चा निकले और रसखान का ज़िक्र न आएं तो कुछ अधूरा सा लगता है बिल्कुल वैसे ही जैसे सम्पूर्ण भोजन के बाद मीठे से जो तृप्ति मिलती है । कृष्ण की लीलाओं के रसखान के शब्दों में ढलने से वैसा ही आनंद आता है जैसे खाने के बाद कोई पान प्रेमी अपना मनपसंद पान मुंह में दबाकर टहलते हुए उस का बूंद बूंद रसपान करता है । कृष्ण और बृज पर रसखान के दोहे,सोरठे, सवैया और पद पढ़कर कुछ कुछ वैसा ही सुख आता है।
आखिर कुछ तो अनूठा और दिव्य था कृष्ण में तभी तो वे वासुदेव, मोहन, द्वारिकाधीश, केशव, गोपाल, नंदलाल, बाँके बिहारी, कन्हैया, गिरधारी, मुरारी, मुकुंद, गोविन्द, यदुनन्दन, रणछोड़, कान्हा, गिरधर, माधव, मधुसूदन, बंशीधर, और मुरलीधर जैसे विविध नामों से हमारे आसपास मौजूद हैं..और तभी रसखान उनके अनूठे रूप का वर्णन कुछ इस तरह करते हैं:
धूरि भरे अति शोभित श्याम जू,
तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरैं अँगना,
पग पैंजनिया कटि पीरी कछौटी।।
वा छवि को रसखान विलोकत,
वारत काम कलानिधि कोटी
काग के भाग कहा कहिए
हरि हाथ सों ले गयो माखन रोटी।।
शायद योगेश्वर श्रीकृष्ण का यही आकर्षण मीरा से राधा तक,सुदामा से उद्धव तक और सूरदास से रसखान तक को देश के कौने कौने से जाति धर्म संप्रदाय और ऊंच नीच की तमाम बेड़ियों को तोड़कर बृज भूमि और कृष्ण की ओर खींच लाता है।
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