वर्षा विगत चुनाव ऋतु आई...

वर्षा विगत चुनाव ऋतु आई...... पढ़ कर इस गुस्ताख़ी के लिए संत तुलसीदास जी माफ़ करें क्योंकि उन्होंने तो वर्षा विगत शरद ऋतु आई... लिखा है। मौसम विभाग के बाबू भी नाराज़ न हों क्योंकि मौसम परिवर्तन की सूचना देना तो उनकी बपौती है। फिर चाहे वे गर्मी में पानी गिरने की और वर्षा में तीखी गर्मी की भविष्यवाणी क्यों न करते हों और उनके पूर्वानुमानों पर आस लगाकर कितने ही किसान हर साल बर्बाद होते हों। खैर, मौसम विभाग के किस्से तो कहानी घर घर की तरह देशभर में समान रुप से चर्चित हैं। यहाँ पेश है संत तुलसीदास की इन प्रसिद्ध पंक्तियों पर रामायण काल और आधुनिक काल की दो सखियों की बात-चीत:  

सखी (एक): हे सखी, देख वर्षा ऋतु बीतने को है। शरद ऋतु के स्वागत की तैयारियों में धरती हरियाली और रंग-बिरंगे फूलों से सज गयी है।  

सखी (दो): तुम गलत समझ रही हो सहेली, यह सजावट शरद ऋतु के स्वागत की नहीं, बल्कि चुनाव की तैयारियाँ हैं। जिसे तुम हरियाली और रंग-बिरंगे फूल समझ रही हो वे राजनीतिक पार्टियों के झंडे, बैनर, पोस्टर है। पगली ये चुनाव ऋतु है।  

सखी (एक): पर देख, फूले काँस सकल महि छाये वर्षा बूढ़ी हो रही हो? इस सफेदी से लग रहा है मानो..वर्षा विदाई की ओर है?  

सखी (दो): तुम्हे कैसे समझाऊ, यह सफेदी काँस के फूलों की नहीं, बल्कि राजनीतिक पार्टियों के नेताओं और कार्यकर्ताओं के नए-नए कुर्ते-पायजामों की है। चुनाव की बेला में सेठ- साहूकार- कलाकार-दलाल, सभी यह वेशभूषा धारण कर लेते हैं। तभी वे जनप्रतिनिधि कहलाने के हकदार बनते हैं।  

सखी (एक): लेकिन, दादुरों (मेंढक) के समूह कोरस में वर्षा की विदाई को अभिव्यक्त कर रहे है?  

सखी(दो): तुम निरी मूर्ख ठहरी, रीतिकाल से बाहर आओ। यह चुनाव काल है। यह मेंढक की नहीं नेताओं की आवाज़ है। पूरे पाँच साल बाद वे कोरस में अपनी उपस्थिति और जनता से किए गए वादो को दुहरा रहे हैं। 

सखी(एक): देख-देख, शरद के स्वागत में लोग अन्न-वस्त्र दान कर रहे हैं, अमृत पान करा रहे हैं।  

सखी(दो): पगली,यह शरद का स्वागत नहीं, चुनाव के दौरान वोट बटोरने का आजमाया हुआ फार्मूला है। ये लोग मतदाता हैं और वे नेता। जिसे तुम अमृत-पान समझ रही हो वह मदिरा है जिसके नशे में चूर मतदाता आँख बंद कर वोट डाल आते हैं और ज्यादातर का वोट बिना जाए ही डल जाता है।  

सखी(एक): लेकिन यह तो देख कि शरद के आगमन के साथ ही धरती रोशनी से नहा गयी है।  

सखी(दो): तुम तो कुछ समझ ही नहीं रही हो, यहाँ तीन-तीन दिन लाइट नहीं रहती, पर चुनाव आते ही घर तो घर सड़कों पर भी दिन भर लाइट रहने लगी है ताकि हम बिजली संकट भुलाकर फिर इन नेताओं झोली वोट से भर दें।  

सखी(एक): अरे अरे देखो, लगता है महाराज नगर भ्रमण पर निकले है, चलो राजमार्ग पर चल कर उनके दर्शन करें।  

सखी(दो): ये महाराज नहीं टिकट राज है और इनके दर्शन के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं क्योंकि मतदान तक ये खुद हर घर, गली, मुहल्ले में घूम घूम कर हमारे हाथ-पैर जोड़ेंगे। हाँ, चुनाव जीतते ही फिर पाँच साल तक हम इन्हें ढूंढते रह जायेंगें.. यही राजनीति है।  

सखी(एक): यह नीति है या अनीति, चल बहना, इससे तो हम रामायण काल में ही भले थे.....।

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