जाड़ों की ‘ठंडी’ धूप में,आँगन में लेट कर..
फिल्म ‘आंधी’ का मशहूर गीत ‘दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन…’, जरूर गुलज़ार साहब ने शिमला या इस जैसे किसी पहाड़ पर ठंड के दिनों में बैठकर लिखा होगा क्योंकि तभी वे लिख पाए कि ‘..जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेट कर...’ या फिर ‘..बर्फ़ीली सर्दियों में किसी भी पहाड़ पर वादी में गूँजती हुई खामोशियाँ सुने..।’ दरअसल, ऐसी कल्पना वही कर सकता है जिसने पहाड़ों पर मौसम का अतरंगी मिजाज जिया हो और खासतौर पर जाड़ों की ठंडी धूप को महसूस किया हो। वैसे, गुलज़ार साहब ने काव्यात्मक रूप देने के लिए शायद नर्म धूप लिख दिया है लेकिन इसे नर्म नहीं बल्कि ठंडी धूप कहना ज्यादा बेहतर होगा। इसकी वजह यह है कि शिमला जैसे पहाड़ी इलाकों में सर्दियों की जो धूप होती है, वह नर्म या गर्म नहीं बल्कि ठंडी होती है। यह धूप शरीर को उतना गर्म नहीं करती,जितना दिल को गुदगुदाती है। इसे हम ठंडी धूप कह सकते हैं…और यह बात भी उतनी ही सच है कि पहाड़ों के बाहर शायद ही कोई इसे समझ पाए। तमाम भूमंडलीय बदलावों, कम होते पेड़, जनसंख्या एवं वाहनों के बढ़ते बोझ तथा पर्यटकों की बेतहाशा भीड़ के बाद भी सर्दियों में शिमला जैसे पहाड़ी इला...